ग़रीबों से जानलेवा वसूली और अमीरों को क़र्ज़ माफ़ी का तोहफ़ा
अखिल कुमार
”मेरे ऊपर लदे क़र्ज़ के भारी बोझ के कारण मैं आत्महत्या कर रहा हूँ। कीड़ा लगने के कारण मेरे खेत में खड़ी कपास की फ़सल बर्बाद हो गयी। मेरी मौत का िज़म्मेदार नरेन्द्र मोदी है।” महाराष्ट्र के यवजमाल ज़िले के किसान शंकर भाउराव चायने ने आत्महत्या करने से पहले छोड़े ख़त में ये पंक्तियाँ लिखी थीं। हर साल देश में लाखों किसान आत्महत्या कर लेते हैं जिसका एक बड़ा कारण बैंकों और सूदख़ोरों का क़र्ज़ न चुका पाना है। मज़दूरों की भारी संख्या क़र्ज़ से दबी रहती है और उसकी भारी क़ीमत चुकाती है। किसी भी कारख़ाने के बाहर तनख़्वाह बँटने के दिन सूदख़ोरों के आदमी घूमते रहते हैं कि मज़दूर पैसे लेकर निकले और उससे वसूली की जाये। ज़्यादातर ग़रीबों को तो बैंक से क़र्ज़ की सुविधा मिल ही नहीं पाती और वे मोटा ब्याज़ वसूलने वाले सूदख़ोरों के चंगुल में रहने को मजबूर होते हैं। जिन्हें किसी तरह बैंक से क़र्ज़ मिल भी जाता है, वे अगर समय से पूरा न चुका पायें तो उनकी कुर्की-ज़ब्ती से लेकर गिरफ़्तारी तक हो जाती है। दूसरी तरफ़ अमीरों को न सिर्फ़ बेहद सस्ती दर पर बैंकों से हज़ारों करोड़ के क़र्ज़ मिल जाते हैं, बल्कि इसका भारी हिस्सा वे चुकाते ही नहीं हैं और इसे डकार जाते हैं। ऐसे बड़े क़र्ज़-चोरों के ख़िलाफ़ सरकार भी कोई कार्रवाई नहीं करती, उल्टे उनके क़र्ज़ माफ़ कर दिये जाते हैं।
हाल ही में रिज़र्व बैंक ने खुलासा किया कि पिछले 4 साल में 21 सरकारी बैंकों ने 3 लाख 16 हज़ार करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ़ कर दिये हैं। आप सोच रहे होंगे कि न तो आपका क़र्ज़ माफ़ हुआ है और न ही आपने अपने रिश्तेदार-पड़ोसी की क़र्ज़ माफ़ी के बारे में सुना है, तो फिर भला ये क़र्ज़ माफ़ किसके हुए हैं! ये हमारे-आपके जैसे लोगों के छोटे-मोटे क़र्ज़ नहीं हैं, बल्कि देश के नामी-गिरामी पूँजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के हज़ारों करोड़ रुपये के क़र्ज़ हैं, जिन्हें पूँजीपति कारख़ाने लगाने के नाम पर ले लेते हैं और बाद में करोड़ों का मुनाफ़ा कमाने के बावजूद ख़ुद को दीवालिया दिखाकर पैसा वापस करने से मना कर देते हैं। नीरव मोदी, विजय माल्या, मेहुल चौकसी जैसों का नाम तो आपने सुना ही होगा, जो बैंकों के हज़ारों करोड़ रुपये डकार गये और अब भाजपा सरकार की मेहरबानी से विदेश में रहकर अय्याशी कर रहे हैं। लेकिन ये तो छुटभैया पूँजीपति हैं! असली खिलाड़ी तो अडाणी-अम्बानी जैसे बड़े पूँजीपति हैं, जिनके लिए मोदी समेत सारे मन्त्री-सन्त्री एक टाँग पर खड़े होकर काम कर रहे हैं।
3 लाख 16 हज़ार करोड़ कितनी बड़ी रक़म है, इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह रक़म 2018-19 के बजट में स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा के लिए दी गयी रक़म की दोगुनी है। मतलब, सरकार स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, पेंशन, ईएसआई आदि पर कुल जितना ख़र्च करने का दावा कर रही है, उसका दोगुना पैसा कुछ पूँजीपति 4 साल में हज़म कर गये हैं। ज़रा सोचिए, बैंकों के पास ये पैसा कहाँ से आया? क्या बैंकों के पास नोट छापने की मशीन लगी हुई है कि जितना चाहो छापते जाओ और पूँजीपतियों में बाँटते जाओ? नहीं। हम-आप दिनो-रात कड़ी मेहनत करके पाई-पाई जोड़कर जो पैसा बैंकों में जमा करवाते हैं, ये वही पैसा है, जिसे बैंक पूँजीपतियों को लोन के नाम पर खैरात में बाँट रहे हैं। हमारे ही जमा किये गये पैसे में से हमें छोटा-सा क़र्ज़ भी नहीं मिलता है। आँकड़ों के अनुसार मज़दूर और ग़रीब किसान आबादी के ऊपर जो क़र्ज़ है, उसका बड़ा हिस्सा ग़ैर-संस्थागत है। मतलब, ऐसा बहुत कम होता है कि किसी मज़दूर या ग़रीब किसान को बैंक से क़र्ज़ मिल जाये। क़र्ज़ के लिए उन्हें सूदखोरों, दुकानदारों, धनी किसानों आदि पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जो उनसे मूलधन पर बहुत अधिक ब्याज वसूलते हैं। अगर बैंकों से क़र्ज़ मिल भी जाये तो बैंक क़र्ज़ वसूलने के लिए सिर पर चढ़े रहते हैं। अपना क़र्ज़ वसूलने के लिए घर, ज़मीन आदि की नीलामी तक करवा डालते हैं। एक छोटे-से क़र्ज़ के लिए भी बैंक कर्मचारियों के हाथों ग़रीब आदमी को बेइज़्ज़त होना पड़ता है। इसी का नतीजा है कि मज़दूरों और ग़रीब किसानों में ख़ुदकुशी करने वालों की संख्या आसमान छू रही है। लेकिन, क्या ऐसा ही बैंक पूँजीपतियों के साथ भी करते हैं? नहीं। पूँजीपति क़र्ज़ की राशि और उससे कमाया हुआ मुनाफ़ा हड़प कर बैंकों से “दया की गुहार” लगाता है। और, इतने “दीन-हीन” पूँजीपति को देखकर बैंकों का दिल पसीज जाता है। बैंक तुरन्त उसके क़र्ज़ को “न वसूले जा सकने वाले क़र्ज़” की सूची (एनपीए) में डाल देते हैं। कई बार तो बैंकों को कुछ ज़्यादा ही दया आ जाती है और वे पूँजीपति को पहले वाला क़र्ज़ वापस करने में “मदद” करने के लिए हज़ारों करोड़ का क़र्ज़ फिर से दे देते हैं!
आँकड़े भी इसी हालत की गवाही दे रहे हैं। अप्रैल 2014 से लेकर अप्रैल 2018 तक सिर्फ़ 44,900 करोड़ रुपये की वसूली की गयी है और इसकी 7 गुना राशि माफ़ कर दी गयी है। 2014-15 में जो एनपीए 4.62 फ़ीसदी था, वह दिसम्बर 2017 में बढ़कर 10.41 फ़ीसदी हो गया, मतलब 7 लाख 70 हज़ार करोड़। इतनी बड़ी मात्रा में क़र्ज़ डूबने के चलते बैंकों की भी हालत पतली हो गयी है। इसकी भरपाई भी आम जनता से की जा रही है। पिछले दिनों केवल भारतीय स्टेट बैंक ने खाते में कम रक़म रखने के जुर्माने के तौर पर अपने ग्राहकों से 3000 करोड़ रुपये वसूल लिये! कोई भी समझ सकता है कि जो लोग खाते में न्यूनतम रक़म भी नहीं रख पाते हैं, वे कौन हैं। सारे ही बैंक और भी तरह-तरह के शुल्क लगाकर लोगों की जेब काटने में लगे हुए हैं।
आम जनता को दोनों तरफ़ से लूटा जा रहा है। एक तरफ़ जहाँ बैंकों में जमा उनकी मेहनत की कमाई को पूँजीपतियों को खैरात में बाँटा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर क़र्ज़ दे-देकर दिवालिया हुए बैंकों को भाजपा सरकार “बेलआउट पैकेज” के नाम पर जनता से वसूली गयी टैक्स की राशि में से लाखों करोड़ रुपये देने की तैयारी कर रही है। इससे पहले भी सरकार “बेलआउट पैकेज” के नाम पर 88,000 करोड़ रुपये बैंकों को दे चुकी है। ये सारा पैसा मोदी ने चाय बेचकर नहीं कमाया है, जिसे वह अपने आकाओं को लुटा रहा है। ये मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है जिसे तरह-तरह के टैक्सों के रूप में हमसे वसूला जाता है। ये पैसा जनकल्याण के नाम पर वसूला जाता है, लेकिन असल में कल्याण इससे पूँजीपतियों का किया जा रहा है। इस पैसे से लोगों के लिए आधुनिक सुविधाओं से लैस अच्छे अस्पताल बन सकते थे और निःशुल्क व अच्छे स्कूल-कॉलेज खुल सकते थे, लेकिन हो उल्टा रहा है। सरकार पैसे की कमी का रोना रोकर रही-सही सुविधाएँ भी छीन रही है।
मामला सिर्फ़ सरकारी बैंकों को “बेलआउट” करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अब 91,000 करोड़ रुपये के क़र्ज़ में डूबी इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एण्ड फाइनेंशियल सर्विसेज लिमिटेड (आईएल एण्ड एफ़एस) नाम की निजी कम्पनी में भी हज़ारों करोड़ रुपये झोंककर उसे भी “बेलआउट” करने की तैयारी हो रही है।
आमतौर पर यह समझा जाता है कि बैंक जनता के पैसों की हिफ़ाज़त करते हैं। यह बहुत बड़ा भ्रम है। बैंक भी कारोबारी हैं, जो पैसों के लेन-देन के काम में पैसा बनाते हैं। वे इस पूँजीवादी व्यवस्था के मज़बूत खम्भे हैं। नोटबन्दी से काला धन वापस लाने की बात तो जुमला ही थी, जो अब साबित भी हो चुकी है। असल मक़सद तो था जनता की मेहनत की कमाई को बैंकों में जमा करवाना ताकि क़र्ज़ दे-देकर दिवालिया होने की क़गार पर पहुँचे बैंकों को फिर से पैसों से लैस किया जा सके।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर-अक्टूबर-नवम्बर 2018
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन