जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के पैनल की रिपोर्ट के निहितार्थ
अगर समय रहते पूँजीवाद को ख़त्म न किया गया तो वह मनुष्यता को ख़त्म कर देगा
आनन्द सिंह
पिछले कुछ दशकों से दुनियाभर के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन के ख़तरे और उसके प्रलयंकारी परिणामों को लेकर आगाह करते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था ‘जलवायु परिवर्तन पर अन्तर-सरकारी पैनल’ (आईपीसीसी) जलवायु परिवर्तन पर कई रिपोर्टें प्रकाशित कर चुकी है, जिनमें यह चेतावनी दी जाती रही है कि यदि दुनियाभर में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन नियन्त्रित नहीं किया गया तो हमारी आने वाली पीढ़ियों को विनाशकारी तूफ़ानों, बाढ़, सूखा और विशाल पैमाने पर भुखमरी का सामना करना पड़ेगा और पृथ्वी का पारिस्थितिक तन्त्र इतना बिगड़ सकता है कि जीवन का अस्तित्व ख़तरे में पड़ जायेगा। लेकिन पिछले 8 अक्टूबर को आईपीसीसी ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें यह चेतावनी दी गयी है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाली तबाही का मंजर पृथ्वी पर रह रहे अधिकांश लोगों के जीवनकाल में ही देखने को मिल सकता है। रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि यदि वर्ष 2030 तक पृथ्वी के तापमान की वृद्धि को औद्योगिक क्रान्ति से पहले के तापमान की तुलना में 1.5 प्रतिशत तक सीमित न किया गया तो पृथ्वी पर मनुष्य सहित तमाम जीवों के अस्तित्व को बचाने में बहुत देर हो चुकी होगी।
ग़ौरतलब है कि अब तक जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए किये जा रहे प्रयासों का लक्ष्य पृथ्वी के तापमान में वृद्धि के लक्ष्य को औद्योगिक क्रान्ति से पहले की तुलना में 2 प्रतिशत तक सीमित करने का रखा जाता था। परन्तु आईपीसीसी की नवीनतम रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि 1.5 प्रतिशत का लक्ष्य रखने से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में रह रहे करोड़ों ग़रीब लोगों का जीवन ख़तरे में पड़ने से बचाया जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार 2 प्रतिशत के लक्ष्य की तुलना में 1.5 प्रतिशत का लक्ष्य रखने से वर्ष 2100 तक पृथ्वी पर समुद्र के स्तर में वृद्धि को 10 सेमी तक कम किया जा सकता है। 2 प्रतिशत का लक्ष्य रखने पर पृथ्वी की एक-तिहाई से भी ज़्यादा आबादी चरम गर्मी की लहर से प्रभावित होगी, जबकि 1.5 प्रतिशत का लक्ष्य रखने पर यह आँकड़ा घटकर 14 प्रतिशत रह जायेगा। इसी तरह 2 प्रतिशत का लक्ष्य रखने पर आर्कटिक समुद्र में जमा बर्फ़ पिघलने लगेगी जिससे भालू, व्हेल, सील और समुद्री पक्षी आदि के हैबिटैट को नुक़सान होगा। इसी तरह 2 प्रतिशत का लक्ष्य रखने पर कोरल रीफ़ को विलुप्त होने से नहीं बचाया जा सकेगा।
रिपोर्ट में 1.5 प्रतिशत के लक्ष्य को पूरा करने के लिए विश्व अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव करने की बात कही गयी है। उदाहरण के लिए कार्बन के उत्सर्जन को नियन्त्रित करने के लिए ऊर्जा कर लगाने की बात कही गयी है। 1.5 प्रतिशत के लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रति टन उत्सर्जित कार्बन पर 5500 डॉलर तक का ऊर्जा कर लगाने की बात कही गयी है। ग़ौरतलब है कि वर्तमान में कार्बन का उत्सर्जन करने वाले ईंधन की उपभोग की जाने वाली कुल ऊर्जा की खपत में हिस्सेदारी 80 प्रतिशत है। ऐसे में इतना भारी कर लगाने से समूची विश्व अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी क्योंेकि इससे परिवार से लेकर तमाम व्यवसाय तबाह हो जायेंगे। ज़ाहिर है कि जिस अर्थव्यवस्था का मूलमन्त्र ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाना हो वहाँ इतना बड़ा कर लगाना मुमकिन ही नहीं लगता।
साम्राज्यवादी विश्व की सच्चाई तो यह है कि 1.5 प्रतिशत का लक्ष्य तो दूर की बात है, 2016 के पेरिस सम्मेलन में तय किये गये 2 प्रतिशत के लक्ष्य के लिए आवश्यक क़दम भी अभी तक नहीं उठाये गये हैं। कार्बन के सबसे बड़े उत्सर्जक अमेरिका में ट्रम्प प्रशासन ने पिछले साल ही पेरिस समझौते से अमेरिका को वापस ले लिया था। दुनिया के विभिन्न हिस्सोंं में ऐसी सरकारें बन रही हैं जिनका रुझान संरक्षणवादी नीतियों की ओर अधिक है। उदाहरण के लिए ब्राज़ील में हाल के चुनावों में दक्षिणपन्थी जेयर बोल्सोहनारो के उभार की वजह से अमेज़न के वर्षावनों के काटे जाने पर रोक की बजाय एग्रीबिज़नेस कम्पनियों को खुली छूट देने की सम्भावना अधिक है। ऐसे में ऊर्जा कर जैसे उपाय पर आम सहमति बन पाना टेढ़ी खीर है।
ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन द्वारा उपजे संकट के मूल में पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था ही है क्योंकि जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई से लेकर ग्रीन हाउस गैसें पैदा करने वाले ईंधन की बेरोकटोक खपत के पीछे मुनाफ़े की अन्तहीन हवस ही है जिसने प्रकृति में अन्तर्निहित सामंजस्य को तितर-बितर कर दिया है। इस व्यवस्था से यह उम्मीद करना बेमानी है कि इस संकट का समाधान इसके भीतर से निकलेगा। समाधान तो दूर इस व्यवस्था में इस संकट से भी मुनाफ़ा पीटने के नये-नये मौक़े दिन-प्रतिदिन र्इज़ाद हो रहे हैं। उदाहरण के लिए समुद्र तट पर स्थित बस्तियों के डूबने के ख़तरे से बचने के लिए एक संरक्षण दीवार बनाने की कवायद हो रही है, जिससे भारी मुनाफ़ा पीटा जा सके। ऐसे में जीवन का नाश करने पर तुली इस मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था का नाश करके ही इस संकट से छुटकारा मिल सकता है।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर-अक्टूबर-नवम्बर 2018
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