भुखमरी का शिकार देश : ये मौतें व्यवस्था के हाथों हुई हत्याएँ हैं!

वृषाली

पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली के मण्डावली में 8, 4 व 3 साल की तीन बच्चियों की मौत सुर्ख़ियों में छायी रही। इस मौक़े का ‘फ़ायदा’ उठाकर चुनावी रोटियाँ सेंकने में किसी भी चुनावबाज़ पार्टी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। एक ओर दिल्ली सरकार, ख़ास तौर पर इलाक़े के विधायक – मनीष सिसोदिया पर भाजपा ने जमकर कीचड़ उछाला और दूसरी ओर दिल्ली सरकार ने इसकी ज़िम्मेदारी केन्द्र सरकार के मत्थे यह कहकर मढ़ दी कि राशन कार्ड बनाने की नयी नीतियों को केन्द्र सरकार लागू नहीं करने दे रही। अपना दामन बचाने के लिए दिल्ली सरकार ने तमाम तरह की नीच कोशिशें करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन दिल्ली के मण्डावली क्षेत्र में मौत का शिकार हुई मज़दूर परिवार की ये तीन बच्चियाँ न तो पहली हैं और न आखि़री। पिछले साल सितम्बर माह में झारखण्ड में ‘भात’ की रट लगाते हुए मौत का शिकार हुई 11 वर्ष की ‘सन्तोषी’ या कुछ दिनों पहले 58 साल की महिला ने तो मीडिया का थोड़ा-बहुत ध्यान तो आकर्षित कर लिया, लेकिन ‘ग्लोबल हंगर इण्डेक्स’ की सूची में 119 देशों में 100वें पायदान पर खड़े भारत के विकास की सच्चाई यह है कि यहाँ 19.4 करोड़ आबादी रोज़ाना भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि मौत का तात्कालिक कारण कभी ‘भुखमरी’ नहीं होती, बल्कि इसका वाहक डायरिया जैसी कोई बीमारी ही होता है, लेकिन बीमारी से न उबर पाने में ‘कुपोषण’ ही ज़िम्मेदार होता है। वैसे अगर दुनिया-भर की बात करें तो भुखमरी 2000 के मुकाबले 27 फ़ीसदी कम हुई है, परन्तु भारत के लिए यह आँकड़ा सिर्फ़ 18 फ़ीसदी है। 1992 में भारत से पीछे चल रहे बांग्लादेश और बर्मा भी आज भारत को पछाड़ने में सफल हो चुके हैं! संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 19.07 करोड़ आबादी, अर्थात 14.5 फ़ीसदी आबादी कुपोषण का शिकार है। भारत में 5 वर्ष से कम की आयु के बच्चे सबसे ज़्यादा मौत का शिकार होते हैं जिनकी मृत्यु दर 4.8 फ़ीसदी है।  5 वर्ष के कम की आयु के बच्चों की मौत के 50 फ़ीसदी मामलों का प्रत्यक्ष कारण कुपोषण है। आँकडों से दिखाया जाये तो रोज़ मरने वाले बच्चों की संख्या 4,500 प्रतिदिन अर्थात 15 लाख प्रतिवर्ष है! देश के एक चौथाई बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। 5 वर्ष से कम की आयु के 38.4 प्रतिशत बच्चे बौने हैं और 21 प्रतिशत बच्चे ‘वेस्टिंग डिज़ीज़’ (क़द के हिसाब से कम वज़न) का शिकार हैं। 15 से 49 वर्ष की महिलाओं में 51.4 फ़ीसदी महिलाएँ ‘अनेमिक’ यानी ख़ून की कमी की शिकार हैं। ये आँकड़े सिर्फ़ किसी एक देश की चौहद्दी तक सीमित नहीं हैं – दुनिया-भर में लगभग 79.30 करोड़ लोग यानी 11 फ़ीसदी आबादी कुपोषण का शिकार है। लेकिन कुपोषण के लिए आख़िर ज़िम्मेदार कौन है? शायद जो पहला जवाब दिमाग़ में कौंधता है वह है देश की बढ़ती आबादी और खाद्यान संकट।

आइए अब इसकी पड़ताल की जाये कि इस नक़ाब के पीछे है कौन? आँकड़े यह साफ़ बताते हैं कि दुनिया-भर में हो रहे खाद्यान उत्पाद से दुनिया-भर की मौजूदा आबादी की दोगुनी संख्या को पर्याप्त पोषाहार दिया जा सकता है! वहीं ‘इकनोमिक टाइम्स’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में आबादी के हिसाब से खाद्यान ज़रूरत लगभग 25.5-23.0 करोड़ टन है और उत्पादन लगभग 27.0 करोड़ टन है। वह भी तब जब 88.8 फ़ीसदी जोत का अाकार 2 एकड़ से भी कम है, मतलब उत्पादकता को पूर्ण रूप से बढ़ाया भी नहीं जा सका है। फिर भी पिछले दो दशकों में खाद्यान्न उत्पादन दोगुना हो चुका है। भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय के अनुसार इस वर्ष सरकार द्वारा लगभग 27.95 करोड़ टन उत्पादन की सम्भावना दर्शायी गयी है, जो पिछले पाँच सालों के औसत उत्पादन से 1.73 करोड़ टन ज़्यादा है। चावल का उत्पादन 1.2 फ़ीसदी, गेहूँ का उत्पादन 1.42 फ़ीसदी बढ़ने के अासार हैं। लेकिन भारत सरकार के खाद्य निगम के गोदामों में हर साल लाखों टन अनाज चूहों की भेंट चढ़ जाता है, बचाव सामग्री के अभाव में बारिश में सड़ा दिया जाता है। रोज़ाना देश में 244 करोड़ रुपये के खाद्यान बर्बाद कर दिये जाते हैं और हर साल 89,635 करोड़ रुपये की क़ीमत का खाद्यान फेंक दिया जाता है। 40 फ़ीसदी फल और सब्जि़याँ व 30 फ़ीसदी अनाज आपूर्ति प्रबन्धन की अक्षमता की वजह से बर्बाद हो जाते हैं। 2018 तक पिछले पाँच वर्षों में भारतीय खाद्य निगम ने 57,676 टन अनाज बर्बाद कर दिया। 2.1 करोड़ टन – लगभग ऑस्ट्रेलिया के गेहूँ उत्पाद के बराबर गेहूँ; हर साल भारत में सड़ा दिया जाता है। इतनी उत्पादकता, इतनी उर्वर ज़मीन के बावजूद अगर आज देश की बड़ी आबादी कुपोषण का शिकार है तो दिक़्क़त किसी ओर ही वजह से है! 2010 में सुप्रीम कोर्ट के गोदामों में सड़ रहे अनाज को ग़रीब जनता में बाँट देने के आदेश को अनसुना करते हुए मनमोहन सिंह की सरकार ने बेशर्मी से साफ़ ज़ाहिर कर दिया था कि सरकार की पक्षधरता आम जनता की तरफ़ नहीं बल्कि फ़ूड कॉर्पोरेट मालिकों की तरफ़ है और ग़रीब जनता में खाद्यान बाँटने का मतलब बड़े मालिकों का मुनाफ़ा घटाना है। वैसे भी सरकार के तहत मिलने वाली ‘फ़ूड सब्सिडी’ का 60 फ़ीसदी हिस्सा तो ज़रूरतमन्दों तक पहुँच ही नहीं पाता है, और बिचौलियों के हत्थे चढ़ जाता है! सरकार को गोदामों में अनाज सड़ा देना मंज़ूर है लेकिन पूँजीपतियों के मुनाफ़े में एक पैसे की कमी भी ये बर्दाश्त नहीं कर सकते। इनके लिए आम जनता के बच्चों की बलि चढ़ा देना ज़्यादा सुविधाजनक है! सिर्फ़ खाद्यान ही नहीं, हर तरह के उत्पाद लोगों में बाँटने की बजाय बर्बाद कर दिये जाते हैं। हाल में ही ब्रिटिश कम्पनी ‘बरबेर्री’ ने 2.86 करोड़ ब्रिटिश डॉलर मूल्य के कपड़ों व अन्य सामग्री को आग लगाकर तबाह कर दिया। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन लोगों की ज़रूरतें पूरी करने के मक़सद से नहीं किया जाता, बल्कि चन्द घरानों के ‘मुनाफ़े’ के लिए किया जाता है। इस व्यवस्था का संकट ‘अतिउत्पादन’ का संकट है। देश के बाज़ारों-शॉपिंग मॉलों में सामान पटे पड़े रहते हैं और दूसरी ओर बेरोज़गारी की शिकार एक बड़ी आबादी अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरा कर पाने लायक सामान ख़रीदने की भी हैसियत नहीं रख पातीं। इस व्यवस्था में भुखमरी कोई ‘रोग’ नहीं जिससे निजात पाना असम्भव हो, वह तो सिर्फ़ एक लक्षण है। मुनाफ़े और पैसे पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था के ख़ात्मे के बग़ैर इस लक्षण से छुटकारा पाना नामुमकिन है। भुखमरी से होने वाली ये मौतें महज़ मौतें नहीं बल्कि व्यवस्था-जनित निर्मम हत्याएँ हैं! आज नहीं तो कल पूँजीवादी व्यवस्था को हमें कटघरे में खड़ा करना ही पड़ेगा, इन हत्याओं के ज़िम्मेदारों को सज़ायाफ़्ता करना ही पड़ेगा!!

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2018


 

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