उत्तराखण्ड मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के पहले चरण की शुरुआत
बिगुल संवाददाता
उत्तराखण्ड मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के पहले चरण के तहत हरिद्वार के रौशनाबाद के मज़दूर बस्ती में व्यापक हस्ताक्षर अभियान चलाया गया और ‘मज़दूर जागरूकता रैली’ व सभा के माध्यम से मज़दूरों को अपने हक़-अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाने का आह्वान किया गया।
बिगुल मज़दूर दस्ता व स्त्री मज़दूर संगठन द्वारा उत्तराखण्ड के मज़दूरों के माँगपत्रक आन्दोलन की शुरुआत 22 अप्रैल से की गयी है जिसके तहत 24 माँगों को उत्तराखण्ड की सरकार के सामने रखा जाना है! इस माँगपत्रक की मुख्य माँगें हैं कि उत्तराखण्ड के मज़दूरों की मज़दूरी जो अभी तक 5500 से 7200 रुपये मासिक है, को बढ़ाकर 16000 रुपये किया जाये। स्त्री-पुरुष मज़दूरों को समान कार्य का समान वेतन दिया जाये। ठेका प्रथा को ख़त्म किया जाये। कम्पनी पहचानपत्र व वेतन स्लिप दिया जाये। सिडकुल में ईएसआई अस्पताल व पीएफ़ का दफ़्तर खोला जाये।
मज़दूर जागरूकता रैली के बाद की गयी मज़दूर सभा में माँगपत्रक की माँगों पर बात रखते हुए बिगुल मज़दूर दस्ता के अपूर्व ने कहा कि माँगपत्रक में उठायी गयी मुख्य माँगें आज हमारे जीवन जीने की शर्त बन चुकी है। इन बुनियादी माँगों के बिना एक सम्मानजनक जीवन जीना असम्भव है। ठेका प्रथा को ख़त्म करने की माँग आज मज़दूर वर्ग की मुख्यतम माँगों में है। देश की 46 करोड़ मज़दूर आबादी में 43 करोड़ मज़दूर बिना किसी क़ानूनी और सामाजिक सुरक्षा के असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। आज सरकारी और अर्द्धसरकारी विभागों में भी दैनिक संविदा और ठेके के तहत कर्मचारियों को रखा जा रहा है जिनके ऊपर हमेशा छटनी की तलवार लटकी रहती है। जबकि सरकार का यह दायित्व बनता है कि वह सभी कार्य कर सकने वाले नागरिकों को स्थायी रोज़गार को गारण्टी दे। सरकार ने ख़ुद भी ठेका प्रथा क़ानून (1970) लागू करते समय ‘विनियमन’ के साथ ‘उन्मूलन’ शब्द भी जोड़ा था। जिसका अर्थ कि भविष्य में ठेका प्रथा को नियमित प्रकृति के कामों में नहीं लागू किया जायेगा और इसे ख़त्म कर दिया जायेगा, लेकिन इसे समाप्त करने की जगह लगातार इसे बढ़ावा ही दिया गया है। आज पूरे देश के मज़दूरों को एकजुट होकर इस क़ानून को समाप्त करने की माँग करनी होगी।
न्यूनतम वेतन के सवाल पर बात रखते हुए रामाधार ने कहा कि उत्तराखण्ड में न्यूनतम वेतन आसपास के राज्यों (दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश) के न्यूनतम वेतन से बहुत ही कम है,जबकि जीवन-जीने की मूलभूत सुविधाओं के मूल्यों व महँगाई आदि में कोई अन्तर नहीं है। न्यूनतम वेतन का सवाल व्यक्ति के गरिमामय जीवन और भरण-पोषण से जुड़ा हुआ है। ऐसे में उत्तराखण्ड के मज़दूरों का न्यूनतम वेतन कम से कम दिल्ली राज्य सरकार के न्यूनतम वेतन के बराबर होना चाहिए। हालाँकि इस वेतन पर भी दिल्ली हाईकोर्ट ने सख्त टिप्पणी की थी कि, ”क्या आप 16000/- रुपये में अपने परिवार का गुज़र-बसर कर सकते हैं?” और दिल्ली के पूँजीपतियों की वेतन न बढ़ाने की याचिका को खारिज करने के साथ इस तर्क को भी ख़ारिज़ किया था कि ”न्यूनतम वेतन बढ़ जाने से निवेश में कमी आयेगी और उत्पादन घटेगा।”
उत्तराखण्ड माँगपत्रक आन्दोलन के पहले चरण में व्यापक हस्ताक्षर अभियान चलाकर मज़ूदरों को इस माँगपत्रक के ज़रिये जागरूक किया जायेगा। इसके दूसरे चरण में जगह-जगह मज़दूर पंचायतें व सभा का आयोजन किया जायेगा, ताकि इन माँगों पर विस्तार से मज़दूरों के बीच चर्चा की जा सके। इसके तीसरे व अन्तिम चरण में उत्तराखण्ड सरकार को यह माँगपत्रक सौंपा जायेगा।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018
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