बदहाली के सागर में लुटेरों की ख़ुशहाली के जगमगाते टापू –
यही है देश के विकास की असली तस्वीर
सत्यप्रकाश
प्रधानमन्त्री मोदी सहित केन्द्र सरकार के तमाम मन्त्री और भोंपू मीडिया पूरे जोशोख़रोश के साथ डंका बजा रहे हैं कि देश के विकास का रथ विकास के राजमार्ग पर कुलाँचे भर रहा है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर बढ़ती हुई दिखाने के लिए फ़र्ज़ी आँकड़ों की नुमाइश हो रही है। ”अच्छे दिनों” के इन्तज़ार में रोज़ नयी तक़लीफ़ें सहते-सहते देश की आम मेहनतकश जनता के सब्र का प्याला छलकने लगा है, मगर जनता की गाढ़ी कमाई से बड़े पूँजीपतियों को तरह-तरह के तोहफ़े लुटाये जा रहे हैं। कहीं से कोई विरोध न हो, इसलिए जनता को दबाने, कुचलने, उसका मुँह बन्द करने, मूल मुद्दों से बहकाने और आपस में बाँटने के तमाम हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं। यही वजह है कि कॉरपोरेट मीडिया के चारण-भाट बदलते भारत की सपनीली छवियाँ परोसने के लिए धमाल मचाये हुए हैं। देश के विकास के इस रंगारंग जलसे में मध्यवर्ग का ऊपरी मलाईमार तबक़ा भी ”विकास” की नशीली धुन पर थिरक-मचल रहा है।
लेकिन देश के विकास का डंका बजाने वाले इस शाही जुलूस में देश का मेहनतकश अवाम कहाँ है? उसे इस जुलूस में शामिल देखने की हसरत शायद इक्कीसवीं सदी की सबसे मासूम हसरत होगी। देश की करोड़ों-करोड़ मेहनतकश जनता तो विकास के इन राजमार्गों से अलग-थलग महानगरों की अँधेरी सीलनभरी झुग्गियों में, क़स्बों-गाँवों की ऊबड़-खाबड़ सड़कों-खड़ंजों-चकरोडों के किनारे लहूलुहान पड़ी हुई है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। यही तो पूँजीवादी विकास का स्वाभाविक विरोधाभास है। विकास की चमकती तस्वीर का दूसरा पहलू है। पूँजीवादी समाज में ख़ुशहाली के जगमगाते टापू तबाही-बदहाली के महासागरों के बीच ही खड़े होते हैं।
सरकार और उसके भाड़े के अर्थशास्त्रियों द्वारा पेश किये जा रहे आँकड़ों की ही नज़र से अगर कोई देश के विकास की तस्वीर देखने पर आमादा हो तो उसे तस्वीर का यह दूसरा स्याह पहलू नज़र नहीं आयेगा। उसे तो बस यही नज़र आयेगा कि नोएडा में सैमसंग की विशाल मोबाइल फ़ैक्टरी खुल गयी है। चौड़े एक्सप्रेस-वे बन रहे हैं जिन पर महँगी कारें फ़र्राटा भर रही हैं। पिछले वर्ष के दौरान देश में 17 नये ”खरबपति” और पैदा हुए जिससे भारत में खरबपतियों की संख्या शतक पूरा कर 101 तक पहुँच गयी। देश की शासक पार्टी का 1100 करोड़ रुपये का हेडक्वाटर आनन-फ़ानन में बनकर तैयार हो गया है और देश की सबसे पुरानी शासक पार्टी का ऐसा ही भव्य मुख़यालय तेज़ी से बनकर तैयार हो रहा है। लेकिन विकास के आँकड़ों की इस फ़्लड-लाइट से उन अँधेरे कोनों पर रोशनी नहीं पड़ती जहाँ इस विकास से ‘बहिष्कृत भारत’ रहता है।
एक ओर विकास के आँकड़े उछाले जा रहे हैं, दूसरी ओर देश में ग़रीबों, बेरोज़गारों, बेघर लोगों की तादाद भी लगातार बढ़ती गयी है। देश की लगभग 46 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत, या 43 करोड़ मज़दूर असंगठित क्षेत्र में धकेल दिये गये हैं, जहाँ वे बिना किसी क़ानूनी सुरक्षा के ग़ुलामों जैसी परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 45 करोड़ भारतीय ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं, जिसका अर्थ है कि वे भुखमरी की कगार पर बस किसी तरह ज़िन्दा हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की मानव विकास रिपोर्ट में भारत 188 देशों की सूची में खिसककर अब 131वें स्थान पर पहुँच गया है। दक्षिण एशियाई देशों में यह तीसरे स्थान पर, श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों से भी पीछे चला गया है। हमारे देश में दुनिया के किसी भी हिस्से से अधिक, 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। एक तिहाई आबादी भूखी रहती है और यहाँ हर दूसरे बच्चे का वज़न सामान्य से कम है। वैश्विक भूख सूचकांक के आधार पर बनी 119 देशों की सूची में भारत 100वें स्थान पर है, उत्तर कोरिया और बंगलादेश जैसे देशों से भी नीचे। बेरोज़गारी की दर लगातार बढ़ती जा रही है। अगर बेरोज़गारी बढ़ने की रफ़्तार यही रही तो हालात क्या होंगे इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का वादा करके सत्ता में आयी मोदी सरकार ने रोज़गार के आँकड़े जुटाने और जारी करने की व्यवस्था को ही अचानक क्यों बन्द कर दिया।
एक ओर देश के तमाम महानगरों में लाखों आलीशान फ़्लैट बनकर बिकने के इन्तज़ार में ख़ाली पड़े हैं, दूसरी ओर देश में क़रीब 20 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं और लगभग इतने ही लोग फुटपाथों पर सोते हैं। जाहिर है कि देश के भवन निर्माण उद्योग में जो तेज़ी आयी थी उसका लाभ ख़ुशहाल मध्यवर्ग तक सिमटकर रह गया है। ग़रीबों को सिर पर छत मयस्सर नहीं हो पा रही है। कुछ वर्ष पहले एक बीमा कम्पनी ने अपने एक सर्वेक्षण में यह सच्चाई उजागर की थी कि देश की 65 प्रतिशत आबादी स्वास्थ्य, चिकित्सा और अस्पतालों का ख़र्च उठाने की स्थिति में नहीं है। सरकारी अस्पतालों की बढ़ती दुर्दशा और चिकित्सा के बढ़ते निजीकरण के कारण यह स्थिति और भी बदतर हो चुकी है। देश के तथाकथित विकास की तस्वीर और अधिक खिल उठती है अगर हम देश में पैदा हो रही कुल सम्पदा के वितरण के आँकड़ों पर एक नज़र डाल लें। ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष देश में पैदा हुई कुल सम्पदा का 73 प्रतिशत देश के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की मुट्ठी में चला गया। इस छोटे-से समूह की सम्पत्ति में पिछले चन्द वर्षों के दौरान 20.9 लाख करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी हुई जो 2017 के केन्द्रीय बजट में ख़र्च के कुल अनुमान के लगभग बराबर है। दूसरी ओर, देश के 67 करोड़ नागरिकों, यानी सबसे ग़रीब आधी आबादी की सम्पदा सिर्फ़ एक प्रतिशत बढ़ी। एक तरफ़ ग़रीबी लगातार बढ़ रही है, दूसरी ओर, उद्योगपतियों, राज नेताओं, ऊँचे सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों आदि की छोटी-सी आबादी के पास पैसों का पहाड़ लगातार ऊँचा होता जा रहा है। आम जनता की बढ़ती तबाही के बीच इस परजीवी जमात की ऐयाशियाँ बढ़ती जा रही हैं। कहने को भारत एक जनतन्त्र है, मगर 130 करोड़ आबादी वाले इस जनतन्त्र में 100 सबसे अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति पूरे देश के कुल वार्षिक उत्पादन के एक चौथाई से भी अधिक है। इनसे नीचे क़रीब सवा करोड़ लोगों की एक परत है जिसके कब्ज़े में कुल सम्पदा का 50 प्रतिशत और हिस्सा चला जाता है। यानी क़रीब तीन-चौथाई सम्पदा (73%) इनकी मुट्ठी में है। वास्तव में यह तथाकथित जनतन्त्र इन्हीं की जेब में है।
यह तो है आँकड़ों के आर्इने में देश के विकास की तस्वीर। लेकिन अच्छे से अच्छे आँकड़े भी देश की ग़रीब मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी की सच्चाई सामने नहीं ला सकते। लगातार बढ़ती महँगाई व मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक आमदनी में कमी और कमाने के अवसरों के लगातार हाथ से फिसलते जाने के कारण आज हालत यह है कि देश की एक तिहाई से अधिक आबादी दो वक़्त की रोटी भी ठीक से नहीं खा पा रही है। दाल खाना सपना होता जा रहा है। जब ज़िन्दा रहना ही मुश्किल है तो फिर बच्चों की पढ़ाई और हारे-गाढ़े-बीमारी की कौन कहे। पूँजीपतियों और उनकी लग्गू-भग्गू जमातों की बात छोड़िए, खाया-पिया-अघाया मध्यवर्ग भी इतना संवेदनहीन और मानवद्रोही होता जा रहा है कि उसे इस बात का गुमान तक नहीं है कि उनकी ख़ुशहाली के टापुओं के चारों ओर इंसानों की पीड़ा-व्यथा का कितना अथाह महासागर हिलोरें ले रहा है।
एक तरफ़ समृद्धि और वैभव की ऊँची चोटियाँ और उसके नीचे अभाव और दरिद्रता की गहरी खाई – यह पूँजीवादी विकास की चारित्रिक विशेषता है। उदारीकरण-निजीकरण के इस दौर में अमीरी-ग़रीबी के बीच की यह खाई लगातार चौड़ी और गहरी होती जा रही है। आज दुनिया के पैमाने पर यही तस्वीर दिखायी दे रही है। अमेरिका, जापान सहित तमाम यूरोपीय देशों में आज बेरोज़गारों, ग़रीबों और बेघरों की संख्या बढ़ रही है। सम्पदा के वितरण में यह असमानता एक देश के भीतर ही नहीं बल्कि साम्राज्यवादी देशों और एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के देशों के बीच भी लगातार बढ़ती जा रही है। किन्हीं भले मानुषों की मासूम इच्छाओं और किसी भी तरह के ”जनकल्याणकारी” नुस्खों से विषमता की इस खाई को पाटना मुमकिन नहीं।
समाज के एक छोर पर पूँजी संचय और दूसरे छोर पर ”ग़रीबी संचय” पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का लाज़िमी नतीजा है। अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने की हवस और दूसरों के मुकाबले बाज़ार में टिके रहने का दबाव पूँजीपतियों को लगातार अपना पूँजी संचय बढ़ाते जाने के लिए बाध्य करता है। पूँजीपति जितना अधिक शोषण करता है संचित पूँजी उतनी ही ज़्यादा होती है और यह संचित पूँजी शोषण के नये-नये साधनों के ज़रिये मज़दूरों का शोषण और बढ़ाती जाती है। नयी-नयी मशीनें मज़दूरों को धकियाकर काम से बाहर कर देती हैं। इसके अलावा, उत्पादन तकनीकों के लगातार विकास से स्त्रियाँ और बच्चे भी भाड़े के मज़दूरों में शामिल हो जाते हैं। साथ ही देहाती क्षेत्रों में पूँजी की घुसपैठ भारी संख्या में ग़रीब व मँझोले किसानों का भी लगातार कंगालीकरण करती जाती है और वे आजीविका कमाने के लिए शहरों की ओर उमड़ पड़ते हैं। यह पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का न टाला जा सकने वाला नतीजा है जिसके कारण आज दुनिया के पैमाने पर बेरोज़गारी बढ़ रही है। यह किसी की इच्छा से रुक नहीं सकती।
इसी तरह जब तक पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद है तब तक दुनिया के पैमाने पर बढ़ती ग़रीबी को रोकना भी किसी की इच्छा के वश में नहीं है। मज़दूर अपनी श्रमशक्ति ख़र्च कर जो नया मूल्य पैदा करता है उसका अधिकाधिक हिस्सा पूँजीपति हड़पता जाता है और मज़दूरों की मज़दूरी का हिस्सा कम होता जाता है। राष्ट्रीय आय के वितरण में असमानता लगातार बढ़ते जाने का यह बुनियादी कारण है। इसके साथ ही लगातार बढ़ती बेरोज़गारी, मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक आमदनी में कमी और ख़राब जीवन दशाओं के कारण मज़दूर वर्ग पूर्ण दरिद्रीकरण की अवस्था में पहुँच जाता है। पूँजीवादी समाज में मज़दूरों के पूर्ण दरिद्रीकरण की इस प्रक्रिया की चर्चा करते हुए मज़दूर वर्ग के शिक्षक और महान नेता लेनिन ने लिखा था, ”मज़दूरों का पूर्ण दरिद्रीकरण हो जाता है। यानी, वे ग़रीब से ग़रीबतर होते जाते हैं, उनका जीवन और दुखपूर्ण हो जाता है, उनका भोजन बदतर होता जाता है और पेट कम भर पाता है और उन्हें तलघरों और छोटी कोठरियों में रेवड़ों की तरह रहना पड़ता है।”
पूँजीवादी उत्पादन की इसी प्रक्रिया यानी पूँजीपतियों की मुनाफ़े और पूँजी संचय की अन्धी हवस का ही नतीजा आज हमारे देश में देखने को मिल रहा है। सकल घरेलू उत्पाद की लगातार बढ़ती वृद्धि दर लेकिन आम मेहनतकश जनता की बढ़ती दरिद्रता – ये दो विरोधी सच्चाइयाँ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भूमण्डलीकरण के इस दौर में राष्ट्रीय आय में पूँजीपति वर्ग और उसके लग्गुओं-भग्गुओं का हिस्सा लगातार बढ़ता गया है और मेहनतकशों का घटता गया है। केन्द्र और राज्य की सभी सरकारें आज देशी-विदेशी पूँजीपतियों को मेहनतकशों के शोषण की मनमानी छूट देने के साथ ही करों में भी बेतहाशा छूटें देकर उनकी तिजोरियाँ भरने के मौक़े दे रही हैं। धनी तबकों को करों में छूट देने का आलम यह है कि सटोरियों की कमाई बढ़ाने के लिए शेयर बाज़ार से होने वाली पूँजीगत आय को पूरी तरह करमुक्त कर दिया गया है। इससे सरकारी खज़ाने को प्रतिवर्ष जो हज़ारों करोड़ रुपये का नुक़सान होता है उसकी भरपाई के लिए आम जनता को विभिन्न प्रकार के अप्रत्यक्ष करों से लाद दिया गया है। उद्योगपतियों को पिछले कुछ वर्षों के दौरान कई लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी और रियायतें देने वाली सरकारें जनता के लिए कल्याणकारी उपायों में लगातार कटौती कर रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, यातायात, हर चीज़़ को लगातार महँगा बनाया जा रहा है।
महँगाई का आलम यह है कि अब इसकी मार सीधे ग़रीब आबादी के पेट पर पड़ रही है। मेहनतकश जनता को यह समझना होगा कि उनकी बदहाली का बुनियादी कारण महज़ किसी सरकार का निकम्मापन नहीं वरन देश की मौजूदा पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली है। ये सारी सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर काम करती हैं जिसका एक ही मक़सद है – अपने आकाओं के मुनाफ़े को सुरक्षित रखना और लगातार बढ़ाते जाना, चाहे इसके लिए जनता को कितना भी निचोड़ना पड़े। पूँजीपतियों के लगातार बढ़ते मुनाफ़े या मुट्ठीभर ऊपरी धनी तबक़े की ख़ुशहाली का कारण मज़दूरों का दिनोंदिन बढ़ता शोषण है। किसी मज़दूर के लिए यह समझना कठिन नहीं कि अपनी श्रमशक्ति का उपयोग करके वह केवल उतना मूल्य नहीं पैदा करता जितना मज़दूरी के रूप में उसे मिलता है। वह तो उसके द्वारा पैदा किये गये मूल्य का एक छोटा हिस्सा ही होता है। बाकी हिस्सा पूँजीपति हड़प कर जाता है जिसे न केवल वह अपनी विलासिता पर ख़र्च करता है बल्कि पूँजी संचय कर और अधिक मुनाफ़ा कमाता जाता है और मज़दूर दरिद्र से दरिद्रतर होता जाता है। मज़दूर के गुज़ारे के लिए ज़रूरी वस्तुओं की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी की तुलना में उसकी वास्तविक आय में बढ़ोत्तरी इतनी कम होती है कि उसे और उसके परिवार को आधे पेट सोने पर मजबूर होना पड़ता है। लेकिन सरकार सहित सारे पूँजीवादी अर्थशास्त्री और समूचा पूँजीवादी मीडिया इस बुनियादी सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए आँकड़ों के फ़र्ज़ीवाड़े के साथ ही माँग और पूर्ति की व्यवस्था के असन्तुलन को महँगाई के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं। मनमोहन सरकार के वित्तमन्त्री चिदम्बरम का यह बयान कौन भूल सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि महँगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि लोग अब ज़्यादा खाने लगे हैं।
मगर यह झाँसापट्टी सदा-सर्वदा चलती ही रहेगी, ऐसा मानने वाले भारी भुलावे में जी रहे हैं। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों से देश के भीतर अमीरी-ग़रीबी की जो खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है, वह देश की समूची पूँजीवादी व्यवस्था को अन्त के और क़रीब लाती जा रही है। पूँजीवादी व्यवस्था के इसी संकट ने भारत सहित दुनिया भर में फासिस्ट शक्तियों को मज़बूती दी है। तमाम शिकायतों के बावजूद देश के बड़े पूँजीपति इसीलिए मोदी सरकार के पीछे खड़े हैं। मगर फासीवाद पूँजीवाद को उसके विनाश से नहीं बचा सकता, बल्कि जनता पर बरपा होने वाले कहर को और भी बढ़ाकर संकट को और तीखा कर देता है। आज जितने बड़े पैमाने पर देश में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग औद्योगिक महानगरों में इकट्ठा होता जा रहा है, वह ख़ुद पूँजीवादी व्यवस्था के लिए मौत का साजो-सामान बन रहा है। देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने के नाम पर मेहनतकश अवाम के अन्धाधुन्ध शोषण के दम पर समृद्धि की जो मीनारें खड़ी हो रही हैं, उनके चारों ओर बारूद इकट्ठा होता जा रहा है। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत इसे रोकने का कोई उपाय नहीं है। ”पूँजी संचय की प्रक्रिया न केवल पूँजीवाद के विनाश की परिस्थितियों, यानी सामाजिक आधार पर बड़े पैमाने के उत्पादन को तैयार करती है बल्कि पूँजीवाद की क़ब्र खोदने वाले को – सर्वहारा को भी जन्म देती है।” पूँजी संचय की प्रक्रिया की इस ऐतिहासिक परिणति की ओर इशारा करते हुए मज़दूरों के शिक्षक और नेता कार्ल मार्क्स ने पूरे विश्वास के साथ घोषणा की थी : ”यह बम फटने वाला है, पूँजीवादी निजी स्वामित्व की घण्टी बजने वाली है। स्वत्वहरण करने वाले का स्वत्वहरण कर लिया जायेगा।”
”स्वत्वहरण करने वालों का स्वत्वहरण” करना मज़दूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है। पूँजीपति वर्ग और उसे अपना ज़मीर बेच चुके बुद्धिजीवियों द्वारा बोले जाने वाले तमाम झूठों में से एक यह है कि पूँजीपति मज़दूर को पालता है। इसके उल्टे सच यह है कि मज़दूर अपनी श्रमशक्ति से नया मूल्य पैदा कर पूँजीपतियों का न केवल पेट पालता है बल्कि उसकी पूँजी भी बढ़ाता है। साफ़ है कि पूँजीपति वर्ग और उसके तमाम लग्गू-भग्गू मज़दूरों की देह पर चिपकी ख़ून चूसने वाली जोंकों के समान हैं। इन जोंकों से छुटकारा पाना मज़दूर वर्ग का नैतिक कर्तव्य है। मज़दूर वर्ग के हरावलों को व्यापक मज़दूर आबादी के बीच जाकर उन्हें इस नैतिक कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार करना होगा।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन