हत्यारे वेदान्ता ग्रुप के अपराधों का कच्चा चिट्ठा

 पराग वर्मा

पिछली 22 मई को तमिलनाडु पुलिस ने एक रक्तपिपासु पूँजीपति के इशारे पर आज़ाद भारत के बर्बरतम सरकारी हत्याकाण्डों में से एक को अंजाम दिया। उस दिन तमिलनाडु के तूतुकोडि (या तूतीकोरिन) जिले में वेदान्ता ग्रुप की स्टरलाइट कम्पनी के दैत्याकार कॉपर प्लाण्ट के विरोध में 100 दिनों से धरने पर बैठे हज़ारों लोग सरकारी चुप्पी से आज़िज़ आकर ज़िला कलेक्ट्रेट और कॉपर प्लाण्ट की ओर मार्च निकाल रहे थे। पुलिस ने पहले जुलूस पर लाठी चार्ज किया और उसके बाद गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। सादी वर्दी में बसों के ऊपर तैनात पुलिस के निशानेबाज़ों ने एसॉल्ट राइफ़लों से निशाना साधकर प्रदर्शनकारियों को गोली मारी। आन्दोलन की अगुवाई कर रहे चार प्रमुख नेताओं को निशाना साधकर गोली से उड़ा दिया गया। सरकार के मुताबिक 13 प्रदर्शनकारी गोली से मारे गये और दर्जनों घायल हुए। हालाँकि स्थानीय लोगों का कहना है कि मरने वालों की तादाद इससे कहीं ज़्यादा थी। पुलिस वालों के वहशीपन का आलम यह था कि एक युवा लड़की के मुँह में बन्दूक डालकर उसे गोली से उड़ा दिया गया। पूरे देश और दुनिया में चौतरफ़ा विरोध और भर्त्सना होने के बावजूद अगले कई दिनों तक पुलिस तूतुकोडि में दमन और उत्पीड़न का ताण्डव रचती रही। लोगों को उनके घरों से घसीटकर पीटा गया। सड़कों-गलियों में लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया। सैकड़ों लोगों को गिरफ़्तार किया गया।

पर्यावरण सहित अनेक क़ानूनों का खुला उल्लंघन करके चल रहे वेदान्ता कम्पनी के इस कॉपर प्लाण्ट की वजह से पूरे इलाक़े में भारी प्रदूषण फैल रहा था जिसकी वजह से वहाँ बसने वाली हज़ारों की आबादी में साँस के रोगों से लेकर कैंसर तक के मामले ख़तरनाक ढंग से बढ़ रहे थे। इलाक़े के पर्यावरण को भी काफ़ी नुक्सान हो रहा था। कुछ वर्ष पहले प्लाण्ट से हुई गैस लीक के कारण एक व्यक्ति की मौत हो गयी थी और कई को अस्पताल में भरती होना पड़ा था। उस समय लोगों के विरोध के बाद प्रदेश सरकार ने प्लाण्ट बन्द करने के आदेश दिये थे लेकिन कम्पनी ने अदालत में अपील करके इसे फिर से खुलवा लिया था। मगर स्थानीय लोगों ने इसका विरोध करना जारी रखा था। अब कम्पनी तमाम क़ानूनों को ठेंगा दिखाते हुए प्लाण्ट की क्षमता को दोगुना करने जा रही थी जिसके विरोध में इलाक़े के लोग 100 दिनों से आन्दोलन चला रहे थे। सौवें हुए विरोध प्रदर्शन का बर्बर दमन कम्पनी के इशारे पर पूरी योजना के साथ किया गया था। इसका सीधा मकसद था इतना आतंक फैलाना कि फिर किसी को कम्पनी का विरोध करने की हिम्मत ही न हो।

वेदान्ता ग्रुप कई तरह के खनन और खनिजों के कारोबार में लगी एक ब्रिटिश कम्पनी है जिसका नेतृत्व एक अनिवासी भारतीय अनिल अग्रवाल करता है। अनिल अग्रवाल ब्रिटेन के सबसे अमीर लोगों में से एक है और वेदान्ता ग्रुप में लगभग 69.39% मालिकाना उसके परिवार का है। वेदान्ता ग्रुप के उड़ीसा, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब और गोवा के साथ-साथ ज़ाम्बिया, दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया, ऑस्ट्रेलिया और आयरलैंड में भी खदानें, रिफ़ाइनरी, बिजली संयंत्र और अन्य कारखाने हैं । इस कम्पनी का दुनिया में हर जगह विरोध किया जा रहा है क्योंकि वह लगातार प्रदूषण सम्बन्धी नियमों और मानवाधिकार क़ानूनों का उल्लंघन करती है, स्थानीय आबादी के अधिकारों का हनन करती है और कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न करती है। 2010 में वेदान्ता को ब्रिटेन में ‘इंडिपेंडेंट’ अख़बार ने ‘दुनिया की सबसे ज़्यादा नफ़रत की जाने वाली खनन कम्पनी’ कहा था। भारत में भी यह कम्पनी कई राज्यों में पर्यावरण और स्थानीय आबादी पर ऐसे ही कहर बरपा करती रही है।

वेदान्ता ग्रुप के विरोध में हुए इस जन प्रदर्शन के मूल कारणों को जानने के लिए स्टरलाइट कॉपर स्मेल्टर प्लाण्ट की पृष्ठभूमि को जानना ज़रूरी है। 70 वर्षीय माडाथी जो कुमारेड्डीआपूराम गाँव की रहने वाली हैं जहाँ पे स्टरलाइट तांबा स्मेल्टर प्लाण्ट स्थित है, बतलाती हैं कि फैक्ट्री से उत्पन्न प्रदूषण के कारण उनके गाँव में न तो साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा नहीं है और न ही पीने का योग्य पानी है। यहाँ की ज़मीन बंजर हो गयी है। पहले हम दालों, मक्का, और इसी तरह की अन्य खेती करते थे लेकिन अब खेती संभव ही नहीं है क्योंकि यहाँ का भूजल पूरी तरह से दूषित हो गया है और मिट्टी अब बिलकुल उपजाऊ नहीं रही। यहाँ बहुत से लोग दूषित हवा के चलते फेफड़ों और त्वचा की बीमारियों से पीड़ित हैं। कैंसर रोगियों में भी तेज़ वृद्धि हुई है।

स्टरलाइट कम्पनी ने 1997 में जो कॉपर स्मेल्टर प्लाण्ट लगाया था वह चिली से खरीदा हुआ सेकंड हैंड प्लाण्ट है जिससे पर्यावरण का खतरा निश्चित था। परन्तु भारत में स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद राजनीतिक साँठगाँठ से उसे लगा दिया गया। स्थानीय लोगों में सबसे ज्यादा नुक्सान मछुआरों को था क्योंकि प्रदूषित समुद्र के पानी में  मछलियों की संख्या में कमी होने लगी थी। वे अन्य गाँव वालों और किसानों के साथ मिलकर लगभग दो दशकों से इस प्लाण्ट के खिलाफ़ लड़ते रहे हैं। वेदान्ता ग्रुप स्थानीय लोगों में फूट डालने और उनके विरोध को कुन्द कर देने की तमाम कोशिशें करता रहा है। स्थानीय व्यापारियों और दुकानदारों को फायदे पहुँचाने का लालच देकर विरोध से दूर किया गया। आम गाँव वालों को नौकरी देने और उनके पानी का बिल भर देने की रिश्वत देकर इस विरोध से दूर किया गया। स्थानीय पंचायतों में शामिल लोगों को सब कॉन्ट्रैक्ट पर काम देने का लालच दिया गया। अपनी इमेज सुधारने के लिए कई तरह के एन.जी.ओ. की मदद से वृक्षारोपण जैसे काम कराये गये। इस सबके बावजूद मछुआरों की अगुआई में जब विरोध बढ़ता गया तो जातीय और धार्मिक दंगे भी भड़काये गये और झूठे आरोपों में फँसा कर आन्दोलन की अगुवाई कर रहे कई लोगों को जेल भेज दिया गया। समय बीतने के साथ यह आन्दोलन बिखर गया। परन्तु हर कुछ महीनों में फैक्ट्री से होने वाले ज़हरीली गैसों के रिसाव से कई लोगों को फेफड़े में तकलीफ़ होने लगी, कैंसर से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ गयी और चर्म रोग और अन्य कई रोग लोगों को होने लगे। कई तरह की दालों की फसलें जो पहले हुआ करती थी वे प्रदूषित पानी और मिट्टी के कारण उगना बन्द हो गयीं। मछुआरों की जीविका रहीं मछलियां दूषित समुद्र में मरने लगीं और लोगों को फिर समझ आ गया की इस कॉपर प्लाण्ट से कितने ज़्यादा दीर्घकालीन खतरे हैं।

इसी दौरान मुनाफे़ को पहली प्राथमिकता देने के चलते प्लाण्ट में सही व्यवस्थाएँ ना होने के कारण बहुत सी दुर्घटनाएँ भी हुईं जिससे कई गाँवों के लोग फिर से इसके विरोध में लामबन्द होने लगे। 2013 में एक बड़े रिसाव के बाद मामला कोर्ट तक गया और प्लाण्ट को 5 दिन बंद करना पड़ा। लेकिन केवल 100 करोड़ के जुर्माने के साथ वेदान्ता ग्रुप को प्लाण्ट चालू करने की अनुमति फिर मिल गयी। उसने जुर्माना भी अदा नहीं किया। फरवरी 2018 में जब पता चला कि वेदान्ता ग्रुप इस प्लाण्ट की क्षमता को दोगुना बढ़ाने जा रहा है तो एक व्यापक आन्दोलन शुरू हो गया। आन्दोलन के सौवें दिन लगभग 2 लाख लोगों का समूह इसके विरोध में एकत्र हो गया था। स्टरलाइट द्वारा इतने सालों वायु प्रदूषण किया जाता रहा जिससे आसपास रहने वाले लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ा। प्लाण्ट से गंदा पानी भी छोड़ा गया जो भूमि में रिसकर भूमिगत जल को जहरीला बनाता रहा  और उस ज़हरीले पानी से सिंचाई करके जो सब्जियां उगाई गयीं वे भी ज़हरीली होने लगीं । समुद्र के पानी में भी केमिकल मिलने के कारण मछलियां मर गयीं और मछुआरों की जीविका संकट में आ गयी । ये सब दो दशकों तक बेरोकटोक होता रहा और इस सबके बावजूद वेदान्ता ग्रुप को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से क्लीन चिट मिलती रही। चाहे कांग्रेस हो या भाजपा या प्रदशे में बारी-बारी से राज करने वाली द्रमुक और अन्नाद्रमुक – वेदान्ता ग्रुप हमेशा सभी राजनीतिक पार्टियों को खूब चन्दा देता रहा है और सभी को अपनी जेब में रखता है। 2004 से 2014 तक भारत में कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलों के लिए वेदान्ता ग्रुप एक प्रमुख दान दाता रहा है । मोदी सरकार के तथाकथित विकास का तो वेदान्ता ग्रुप एक प्रमुख स्तम्भ बन गया है और सरकार खुद वेदान्ता ग्रुप का प्रचार-प्रसार करती नज़र आती है। यही कारण है कि उसके प्रोजेक्ट की रक्षा करने के लिए ख़ुद सरकार की पुलिस आम जनता की हत्या करने में मुस्तैद रही है। यही असली चरित्र है कॉर्पोरेट और सरकारों की मुनाफे़ के बँटवारे पर आधारित साँठगाँठ का। ये दोनों एक-दूसरे के हित में और आम लोगों के विरोध में इसी तरह काम करते हैं। वेदान्ता ग्रुप जैसे बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट ज़्यादातर  पिछड़े या विकासशील देशों में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके और ठेका मज़दूरों के सस्ते श्रम की लूट से अरबों का मुनाफ़ा कमाते हैं। इस मुनाफे का कुछ हिस्सा वे सरकार और अन्य राजनीतिक पार्टियों की तिजोरी में डाल देते हैं और कुछ टुकड़े वे एन.जी.ओ. के भिखमंगों की ओर फेंक देते हैं जो उनके चेहरे पर लगे ख़ून के दाग़ों को धोने-पोंछने का काम करते हैं।

वेदान्ता ग्रुप द्वारा पर्यावरण और मानवाधिकारों के उल्लंघन की सूची बहुत लम्बी है। भारत में ही  कोरबा (छत्तीसगढ़) स्थित बाल्को एल्युमीनियम स्मेल्टर प्लाण्ट की एक निर्माणाधीन चिमनी के ढेह जाने से लगभग 42 मज़दूरों की जान चली गयी थी और इस घटना के बाद लगभग 100 मज़दूर लापता भी हो गये थे। न्यायिक जाँच की रिपोर्ट में वेदान्ता ग्रुप पर दोषपूर्ण सामग्री और गलत निर्माण विधियों द्वारा चिमनी बनाने का आरोप तय हुआ और उसे लापरवाही का भी दोषी पाया गया। परन्तु वेदान्ता ग्रुप के वकीलों ने इस रिपोर्ट को दबा दिया और कानूनी तिकड़म लगाकर केस को रफ़ा-दफ़ा करवा दिया। कोरबा स्थित इस एल्युमीनियम रिफाइनरी (बाल्को) को वेदान्ता ग्रुप ने 551 करोड़ में सरकार से खरीदा था जबकि इसकी असली क़ीमत कम से कम 3000 करोड़ तक आंकी जा रही थी। निजीकरण के बाद से इस रिफाइनरी में ठेका मज़दूरों को बहुत कम मज़दूरी पर ख़राब परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है और फैक्ट्री के अन्दर दुर्घटनाओं में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई है।

इसी तरह, वेदान्ता ग्रुप ने 2004 में उड़ीसा स्थित नियामगिरी पहाड़ियों के नीचे बिना किसी सरकारी अनुमति के दस लाख टन उत्पादन क्षमता की लांजीगढ़ रिफाइनरी का निर्माण कर दिया और इसे छह गुना बढ़ा भी दिया। उन्हें पूरा यकीन था कि नियामगिरि पहाड़ों में भारी तादाद में मौजूद बॉक्साइट का खनन करने की अनुमति उन्हें सरकारी साँठगाँठ से देर-सबेर मिल ही जायेगी और फिर वे इस रिफाइनरी से तगड़ा मुनाफ़ा कमायेंगे। नियामगिरि में खनन की अनुमति की फर्जी रिपोर्ट दिखाकर वेदान्ता ग्रुप ने 2003 में लंदन स्टॉक एक्सचेंज में अपना नाम भी दर्ज करवा लिया। परन्तु नियामगिरि पहाड़ों में रहने वाले डोंगरिया कोंड आदिवासियों ने इसका शुरू से ज़बर्दस्त विरोध किया क्योंकि इस स्तर का प्राकृतिक दोहन उन्हें वहाँ से बेदखल तो करता ही, वहाँ की जैव विविधता को भी लगभग ख़त्म कर देता। आदिवासियों के इस लम्बे और तगड़े प्रतिरोध के कारण 2014 में नियामगिरि पहाड़ों में खनन पर पूरी तरह रोक लगा दी गयी। मगर इस लड़ाई के दौरान कई आदिवासियों की हत्या कर दी गयी और उन्हें बहुत अधिक अत्याचार और उत्पीड़न झेलना पड़ा। बहुत से आदिवासियों को आतंकवादी कहकर पुलिस और प्रशासन ने मार दिया। सरकार की तरफ से खनन की अनुमति दिये बिना खनन करने पर भी वेदान्ता ग्रुप के खिलाफ कोई कड़ी कार्यवाही ना होना, खनन रोकने के कोई प्रयास ना होना और पुलिस और प्रशासन द्वारा विरोध कर रहे आदिवासियों पर अत्याचार साफ़ दर्शाता है कि वेदान्ता ग्रुप को हमेशा ही सरकार का संरक्षण प्राप्त रहा। आज भी बड़े-बड़े बैनरों पर प्रधानमन्त्री के साथ वेदान्ता ग्रुप के चेयरमैन की तस्वीर देखी जा सकती है जो बतलाती है कि किस तरह सरकार इन बड़े पूँजीपतियों के अपराधों पर पर्दा डालने के साथ-साथ उनकी मार्केटिंग भी करती है।

उड़ीसा में ही वेदान्ता ग्रुप के झारसुगुडा एल्यूमीनियम परिसर में दो स्मेल्टर और पावर प्लाण्ट शामिल हैं जिन्हे तूतुकोडिकी ही तरह उचित पर्यावरण प्रभाव आकलन के बिना बनाया गया था। निरन्तर प्रदूषण के परिणामस्वरूप वहाँ बहने वाली भेदेन नदी का पानी अब पीने योग्य नहीं बचा है । अगस्त 2017 में राख का एक टैंक ढह गया जिससे 500 एकड़ कृषि भूमि में ज़हरीले पानी की बाढ़ सी आ गयी। गाँव वालों ने मुआवज़ा ना मिलने पर कारखाने के  फाटक को बन्द करवा दिया। गाँव वालों का कहना था कि वे इस तरह के और भी एक राख के टैंक का विरोध कर रहे है क्योंकि जिस टैंक में ये एकत्र किये जाते है उसमें दरारें है और वह कभी भी ढह सकता है।  इससे उनकी जान को भी खतरा है क्योंकि वहाँ का पानी उनकी जीविका का साधन है। प्राथमिक जाँच से पता चला कि लगभग 100 एकड़ कृषि भूमि  इस राख़ के पानी के कारण अब उपयोगी नहीं बची है। पर्यावरण के जानकार बताते हैं कि कृषि भूमि पर बहने वाली ऐश भारी धातु को भी मिट्टी में छोड़ देती है जो मिट्टी की परत को साफ़ करने के बावजूद बचे रह जाते हैं। भारी धातु की मौजूदगी अक्सर मिट्टी को दीर्घकालीन प्रदूषण की ओर ले जाती है और फसल को प्रभावित करती है। इसके अलावा भेदेन नदी के नज़दीक जलीय जंतु  भी अत्यधिक प्रभावित होंगे। पर्यावरण और स्थानीय रहवासियों के जीवन के साथ ऐसा खिलवाड़ करके ही वेदान्ता जैसे ग्रुप बेरोकटोक मुनाफ़ा कमाते जा रहे है।

वेदान्ता ग्रुप के ऐसे कई और कारनामे रहे है। सेसा गोवा नामक कम्पनी वेदान्ता ग्रुप की ही सहायक कम्पनी है जो गोवा में लौह अयस्क खनन के कारोबार में है। 2012 में शाह आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार सेसा गोवा अवैध खनन करने वाली सबसे बड़ी कम्पनी थी। इस रिपोर्ट में ये भी बताया गया कि पर्यावरणीय क्लीयरेंस प्राप्त करने में यह कम्पनी विफल रही। 2010 में गोवा से इस कम्पनी द्वारा 15 करोड़ टन लौह अयस्क निर्यात किया गया पर दिखाया गया केवल 7.6 करोड़ टन। इसी तरह राजस्थान में वेदान्ता ग्रुप ने केवल 600 करोड़ रुपये में सार्वजनिक कम्पनी हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड (एच.जे़ड.एल.) खरीद ली जबकि ये उसकी अनुमानित क़ीमत से बीस गुना कम रकम है। पंजाब स्थित टी.एस.पी.एल. भी वेदान्ता ग्रुप की पावर सेक्टर में एक सहायक कम्पनी है। इस कम्पनी ने पंजाब में स्थानीय लोगों के साथ परामर्श किये बिना उनकी भूमि हड़प ली। किसानों को ज़मीन के लिए बाजार मूल्य से बहुत कम क़ीमत का भुगतान किया गया। दलित और भूमिहीन मज़दूरों को आजीविका के नुकसान के लिए कोई मुआवज़ा नहीं मिला। पर्यावरण को इस तरह बर्बाद किया गया कि वहाँ के स्थानीय समुदाय साँस लेने में समस्याएँ, खुजली और आखों में जलने और सिरदर्द की शिकायतें अक्सर करते रहे हैं। यहाँ मवेशियों में भी गम्भीर बीमारियाँ पैदा होती हैं। वेदान्ता ग्रुप  के अन्य प्लांटों की तरह यहाँ भी सुरक्षा का ध्यान नहीं दिया जाता और अनेक मज़दूरों की जान दुर्घटनाओं में जा चुकी है। विदेशों में स्थित वेदान्ता ग्रुप के प्लांटों की कहानी भी लगभग ऐसी है। अफ्रीका के ज़ाम्बिया में कॉन्कला कॉपर खदान मुनाफ़ा होने के बावजूद नुक्सान दिखाती रही और कम क़ीमतों में कॉपर को अपनी ही एक दूसरी सहायक कम्पनी को दुबई में बेचती रही। ज़ाम्बिया में वेदान्ता के प्लाण्ट के कारण लोगों को गुर्दों की बीमारी और गर्भपात का सामना करना पड़ा। वेदान्ता ग्रुप  को इस मामले में दोषी भी ठहराया गया परन्तु उसको मुआवज़े के लिए कुछ ना देने तक की छूट दे दी गयी। इसी तरह ऑस्ट्रेलिया के तस्मानिया, अफ्रीका के नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका और आयरलैंड में भी वेदान्ता ग्रुप पर पर्यावरण के नाजायज़ दोहन और मानव अधिकारों के उल्लंघन के कई मामले दर्ज होते रहे हैं।

मुनाफे़ की अन्धी हवस में पर्यावरण, आम जन-जीवन और मज़दूरों के जीवन से खिलवाड़ करना वेदान्ता के लिए एक आम बात है। सरकारों और अन्य राजनीतिक दलों के साथ साँठगाँठ करके उसका कारोबार बेरोकटोक चलता रहा है। पर वेदान्ता ग्रुप कोई अपवाद नहीं है क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफा ही केन्द्र में होता है और हर पूँजीपति अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए मज़दूरों और प्रकृति का दोहन करता है और इसके लिए सरकारों के साथ तमाम किस्म के नापाक गँठजोड़ भी करता है। ऐसे ख़ून के प्यासे राक्षसों को ख़त्म करने के लिए इन राक्षसों को जन्म देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था का ही नामो-निशान मिटाना होगा।

मज़दूर बिगुल, जून 2018


 

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