जेनरिक दवाओं के बारे में मोदी की खोखली बातें और ज़मीनी सच्चाई

डॉ. जश्न जीदा

लच्छेदार गप्पबाज़ी के लिए प्रसिद्ध प्रधानमन्त्री मोदी ने बीती 17 अप्रैल को एक चैरिटेबल अस्पताल की नींव रखते हुए कहा कि सरकार डॉक्टरों की महँगी ब्राण्डेड दवाइयाँ लिखने की आदत को दुरुस्त करने के लिए जल्द ही सख़्त क़ानून बना रही है, ताकि लोग सस्ती दवाइयाँ ख़रीद सकें।

मोदी का यह बयान भी उनके अब तक के बयानों की तरह आम जनता को असल मुद्दे से भटकाकर रखने और अपने भक्तों से वाह-वाह करवाने के अलावा कुछ ख़ास असर डालने वाला नहीं है। असल में यह सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में जनता को सस्ता इलाज उपलब्ध करवाने में सरकार की अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने और अपने आकाओं, स्वास्थ्य क्षेत्र में ढेरों मुनाफ़ा कमाने वाली घरेलू और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का चुस्त तरीक़े से बचाव करने के लिए मोदी का सोचा-समझा एक नुस्खा ही था।

प्रधानमन्त्री मोदी के इस बयान के बाद भारतीय मेडिकल काउंसिल और पंजाब सरकार के स्वास्थ्य विभाग द्वारा सभी डॉक्टरों को सिर्फ़ ‘जेनरिक नाम’ से दवाइयाँ लिखने के आदेश दिये गये। जहाँ जेनरिक और ब्राण्डेड दवाइयों का मसला आम जनता के लिए तो समझना पेचीदा है ही, वहीं डॉक्टरों के शिविर में भी मोदी के इस बयान और भारतीय मेडिकल काउंसिल के निर्देशों के बारे में अपनी-अपनी समझ के मुताबिक़ चर्चा चलती रही और ज़्यादातर डॉक्टर ‘जेनरिक दवाइयाँ’ और दवाइयों के ‘जेनरिक नाम’ के चक्करों में उलझते देखे गये। पंजाब के एक डॉक्टरों के संगठन द्वारा प्रधानमन्त्री और मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इण्डिया को लिखत में इन निर्देशों को स्पष्ट करने के लिए कहा गया।

मोदी द्वारा डॉक्टरों को चेतावनी से ज़मीनी स्तर पर आम जनता पर कितना असर पड़ेगा, इस मसले को समझने के लिए पहले ‘ब्राण्डेड’ और ‘जेनरिक दवाइयाँ’ और दवाइयों के ‘जेनरिक नाम’ के फ़र्क़ को समझना पड़ेगा। जब कोई दवा कम्पनी किसी नयी दवाई की खोज करती है, तो वह कम्पनी उस दवाई को बनाने और बेचने का एकाधिकार (पेटेण्ट) हासिल करती है और दवाई के रासायनिक नाम के अलावा एक अलग नाम पर बेचती है, जिसको ‘ब्राण्डेड दवाई’ कहा जाता है। पेटेण्ट आमतौर पर 20 वर्ष तक का हो सकता है। यह तर्क दिया जाता है कि इस समय के दौरान कम्पनी दवाई की खोज, इसे विकसित करने के ख़र्चे और दवाई को प्रमोट करने के ख़र्चे पूरे करती है, जबकि असल में कम्पनी मुनाफ़ों के अम्बार लगा रही होती है। जब एक ख़ास दवाई बनाने का अधिकार किसी कम्पनी के पास ख़त्म हो जाता है, तो यह दवाई बनाने का अधिकार बाक़ी कम्पनियों को भी हासिल हो जाता है और फिर वे कम्पनियाँ भी दवाई को रासायनिक नाम के अलावा एक अलग ख़ास नाम पर बेचती हैं, जिसे ‘ब्राण्डेड जेनरिक दवाई’ कहा जाता है। आमतौर पर ‘ब्राण्डेड दवाई’ और ‘ब्राण्डेड जेनरिक दवाई’ की रिटेल क़ीमत लगभग एक जैसी होती है। तीसरा नम्बर आता है ‘जेनरिक दवाइयों’ का जो सिर्फ़ रासायनिक नाम पर बिकती हैं। इन दवाइयों की पैकिंग पर रासायनिक नाम के अलावा कम्पनी द्वारा दिया गया एक अलग नाम नहीं लिखा होता।

अब जेनरिक दवाइयों के बारे में फैलाये गये भ्रमजाल की छानबीन करते हैं और देखते हैं कि डॉक्टरों को ‘जेनरिक दवाइयाँ’ या ‘जेनरिक नाम’ से दवाइयाँ लिखने का फ़रमान सचमुच क़ारगर है या एक सरकारी हवाई बात के बिना और कुछ नहीं है।

‘इण्डियन फ़ार्मेकालाॅजी’ जनरल के सर्वेक्षण में खुलासा किया गया है कि ‘ब्राण्डेड’ दवाइयों पर प्रचून मार्जन 25%-30% है और ब्राण्डेड जेनरिक दवाइयों पर यह मार्जन 201% से 1016% तक है। भारत की दवाई की कम्पनियों का सकल घरेलू उत्पादन 1 लाख करोड़ है, जिसमें सिर्फ़ 10% हिस्सा जेनरिक दवाइयों का है। 90% घरेलू दवाइयों का बाज़ार ब्राण्डेड जेनरिक दवाइयों का है। भारत की ज़रूरी दवाइयों की सूची में शामिल दवाइयों का उत्पादन सिर्फ़ 12% है। बाज़ार का 45% हिस्सा एक से अधिक दवाइयों की जुड़कर बनी दवाइयों का है, जो कि 45,000 करोड़ बनता है और ये दवाइयाँ जेनरिक नहीं हैं। इन आँकड़ों से काफ़ी स्पष्ट हो जाता है, अगर डॉक्टर पूरी तरह जेनरिक नाम या दवाइयों का रासायनिक नाम लिखना भी लागू कर देते तो भी आम जनता को इसका ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि बाज़ार का बड़ा हिस्सा पहले ही ब्राण्डेड जेनरिक दवाइयों का है। अगर डॉक्टर दवाई का जेनरिक नाम भी लिखता है तो रिटेल दवाइयों का दुकानदार तय करेगा कि किस कम्पनी की दवाई देनी है और वह उसी कम्पनी की दवाई बेचेगा, जिसमें उसको ज़्यादा मुनाफ़ा होगा और इससे आम जनता की लूट वैसे ही बरक़रार रहेगी। जेनरिक दवाइयों को जनता तक पहुँचाने के लिए 2008 में केन्द्र सरकार ने ‘जन औषधि’ नाम की सस्ती दवाइयों के स्टोर खोलने का काम शुरू किया और इन 9 वर्षों में कुछ स्टोर चल रहे हैं, लेकिन अक़सर दवाइयों का स्टॉक ख़त्म हुआ रहता है। भारत में इस समय कुल लगभग 8 लाख फुटकर दवाइयों के स्टोर हैं। इसके मुक़ाबले इस समय देशभर में जन औषधि स्टोरों की गिनती 10,000 से भी कम है और इनके दूर स्थित होने के कारण जनता इनका लाभ नहीं ले पाती।

बहुराष्ट्रीय फ़ार्मा कम्पनियों को खुलेआम लूट के लिए छोड़ कर सिर्फ़ डॉक्टरों पर नकेल कसने से और सरकार द्वारा अपनी ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ने से जनता की हो रही लूट कम नहीं होने वाली। दवा कम्पनियाँ अपनी दवाइयों के नाम डॉक्टरों को रटाने के लिए हरसम्भव हथकण्डे इस्तेमाल करती हैं। तोहफ़ों के रूप में कमिशन के अलावा फि़ल्मों की टिकटें, कार, सोना और विदेश यात्रा तक उपलब्ध करवाती हैं। जॉनसन और फे़ज़र जैसी कम्पनियाँ दवाइयों की खोज और विकास करने के ख़र्चे से दुगुणा ख़र्चा सिर्फ़ अपनी दवाइयों के प्रचार पर ख़र्च करती हैं। अमेरिका की एक कम्पनी का 3.49 बिलियन डॉलर का वार्षिक ख़र्च डॉक्टरों, अस्पतालों तथा बाक़ी स्वास्थ्य कर्मचारियों को ख़ुश करने पर लगता है। डॉक्टरों के सम्मेलनों को दवाई और मेडिकल साजो-सामान बनवाने वाली कम्पनियाँ सपाॅन्सर करती हैं। इस वर्ष के जनवरी के महीने में 7 बड़े सम्मेलन भारत के विभिन्न राज्यों में हुए, जिनका बजट कई करोड़ रुपये का था। पिछले महीने हुए एक सम्मेलन का बजट 17 से 20 करोड़ था और इसमें प्लैटिनम सपाॅन्सर से 3 करोड़ और डायमण्ड सपाॅन्सर से 2 करोड़ लिया गया।

पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था में सरकार पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करती है। जिसका सिर्फ़ एक ही एक काम पूँजीपतियों के लिए देश में मेहनतकश जनता की लूट के लिए साज़गार माहौल बनाकर रखना है। इसी के तहत जनता के लिए भ्रम भी पैदा करना होता है कि सरकार जनता के लिए कुछ-न-कुछ कर रही है और पूँजीपतियों द्वारा की जा रही लूट पर पर्दा डालना बरक़रार रहता है। भारत में 1990 के बाद नवउदारवादी नीतियाँ लागू होने के ढाई दशकों बाद मोदी सरकार के आने से तो हुक्मरानों का यह जन-विरोधी चेहरा पूरी तरह नंगा-सफे़द सामने आ चुका है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सिर्फ़ ग़रीबों के प्राथमिक इलाज तक सीमित किया जा रहा है। लगातार आउटसोर्सिंग तथा अन्य योजनाओं द्वारा निजीकरण किया जा रहा है। योजना आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक़ 3 करोड़ 90 लाख जनता हर वर्ष मँहगे इलाज के कारण ग़रीबी रेखा से नीचे जा रही है। मरीज़ के इलाज के कुल ख़र्च का 70% हिस्सा दवाइयों पर ख़र्च होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में 47% और शहरी क्षेत्रों में 31% जनता अपना इलाज क़र्ज़ा लेकर या घर बेचकर करवाती है।

भारत में 30% जनता अपना इलाज ही नहीं करवा पाती। पिछले 10 वर्षों में टीबी से होने वाली मौतों की संख्या दुगुनी हुई है। पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर कुल मृत्यु दर की आधा है। स्वास्थ्य ख़र्च सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का 1.3 फ़ीसदी हिस्सा दुनिया-भर में नीचे से 12वें स्थान पर है। 27% कुल मौतों के समय पर डॉक्टरी सहूलत न मिलने के कारण होती हैं।

जहाँ एक ओर सरकारी दवा कारख़ाने तरह-तरह के बहानों के तहत बन्द किये जा रहे हैं, इसके विपरीत निजी क्षेत्र में 10,500 दवाई की कम्पनियाँ हैं। भारत में लगभग 900 दवाइयाँ बनती हैं और 62,000 भिन्न-भिन्न नामों से दुनिया-भर में आयात होने वाली 20% दवाइयाँ भारत में बनी होती हैं। भारत 200 देशों में दवाइयाँ निर्यात करता है। एड्स की 80% दवाइयाँ भारत में बनकर जाती हैं। भारत की दवाई का उद्योग दुनिया में मात्रा के हिसाब से तीसरे स्थान पर है। विश्व में खाई जाने वाली 3 गोलियों में से 1 गोली भारत में बनी होती है। अमेरिका में 40% जेनरिक दवाइयाँ भारत की बनी होती हैं। भारत को दुनिया की फ़ार्मेसी कहा जाता है। इससे साफ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत से सस्ती श्रम शक्ति को चूसती हैं और भारत की ग़रीब मेहनतकश जनता से हरसम्भव तरीक़े से मुनाफ़ा कमाने के लिए उसे चूसती-निचोड़ती रहती हैं।

जब तक मुनाफ़े पर आधारित इस पूँजीवादी व्यवस्था का ख़ात्मा नहीं होता, तब तक यह लूट जारी रहेगी। पूँजीवादी सरकारें पूँजीपतियों के हितों के लिए आम जनता के अधिकार छीनती रहेंगी। इसके अलावा इनसे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2017


 

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