राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 – जनता के लिए बची-खुची स्वास्थ्य सुविधाओं को भी बाज़ार के मगरमच्छों के हवाले कर देने का दस्तावेज़

लखविन्दर

2014 में जब देश में ”राष्ट्रवादी” सरकार आयी थी, तो और बहुत सारे वादों के साथ–साथ स्वास्थ्य क्षेत्र में ”युगप्रवर्तक” बदलाव लाने का वादा भी किया था। तक़रीबन एक वर्ष बाद सरकार को अपना यह वादा याद आया तो 2015 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का मसविदा बनाकर घोषणा की गयी, फिर दो वर्ष मसविदे को संशोधित करने में लगा दिये। मसविदे पर दो वर्षों की लम्बी मेहनत के बाद लोगों को उम्मीद थी कि नयी स्वास्थ्य नीति में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए ज़रूर कुछ-न-कुछ होगा, लेकिन नया तो क्या मिलना था, लोगों को जो कुछ पहले मिला हुआ था, वह भी छीनने की तैयारी है।

आज़ाद भारत की पहली स्वास्थ्य नीति आज़ादी के 36 वर्ष बाद 1983 में बनी थी। उस समय बड़े-बड़े ऐलान हुए, उद्देश्य तय किये गये, मगर हाल यह है कि जो उद्देश्य वर्ष 2000 तक हासिल करने की क़समें खायी गयी थीं, आज तक उनके नज़दीक भी नहीं पहुँचा गया। फिर 2002 में, वाजपेयी सरकार द्वारा स्वास्थ्य नीति में संशोधन किये गये और कहा गया कि स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए अधिक पैसा दिया जायेगा। स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था को पुनःसंगठित करने की बात की गयी, लेकिन कुछ भी नहीं बदला। न तो स्वास्थ्य के लिए अधिक पैसे दिये गये और न ही व्यवस्था को ठीक करने के लिए कुछ किया गया। बल्कि बिल्कुल उल्टा हुआ, 2002 से लेकर अब तक निजी स्वास्थ्य क्षेत्र अब तक की सबसे तेज़ रफ़्तार से बढ़ा है, सरकार के पास पंजीकृत कुल ऐलोपैथिक डॉक्टरों में से महज़ 11 प्रतिशत सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था में हैं और बीमारी पर होने वाला ख़र्चा भारत में ग़रीबी के अहम कारणों में से एक बन गया है।

अब जब राष्ट्रवादी फूल अच्छी तरह से खिला हुआ है, तो फिर से नयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति लायी गयी है। 2015 के मसविदे में यह वादा किया गया था कि ‘स्वास्थ्य को एक बुनियादी अधिकार’ बनाया जायेगा और ‘सबको स्वास्थ्य सुविधाएँ’ का सिद्धान्त लागू किया जायेगा, लेकिन इससे मोदी सरकार एकदम मुक़र गयी है। स्वास्थ्य को ‘बुनियादी अधिकार’ और ‘सबको स्वास्थ्य सुविधाएँ’ की जगह नयी नीति में स्वास्थ्य सुविधाओं को ”भरोसेमन्द” बनाने का जुमला उछाला गया है। सरकार का कहना है कि ‘स्वास्थ्य को बुनियादी अधिकार’ और ‘सबको स्वास्थ्य सुविधाएँ’ सम्भव बनाने के लिए व्यवस्था नहीं है, लेकिन व्यवस्था बनी क्यों नहीं और बनानी किसे है, इसके बारे में सरकार ने न तो कोई जवाब दिया है और न ही कोई योजना है। यानी स्वास्थ्य सुविधाओं को सबके लिए सुलभ बनाने के काम को अब नीतिगत और क़ानूनी तौर पर भी ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया है और सरकार हर तरह की जवाबदेही से निकलकर भाग गयी है। हालाँकि भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्तों के मुताबिक़ सभी के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ देना सरकार के कर्तव्यों में आता है।

2015 की स्वास्थ्य नीति के मसविदे में मोदी सरकार ने वादा किया था कि 2020 तक स्वास्थ्य सुविधाओं पर ख़र्च बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पादन का 2.5% कर दिया जायेगा, फि़लहाल यह 1% के इर्द-गिर्द रहता है। अब यह समय-सीमा बढ़ाकर 2025 कर दी गयी है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि विश्व स्तर पर यह ख़र्चा कुल घरेलू उत्पाद का औसतन 4.9% है (अर्थात 2025 तक हम वैश्विक औसत के भी आधे में पहुँच जायेंगे, वह भी अगर सरकार एक बार फिर न मुक़री तब!)। हमारे पड़ोसी श्रीलंका जैसे ग़रीब देश भी इस मामले में हमसे आगे हैं। जब ख़र्च की स्कीमें ऐसी हों तो मुफ़्त दवाइयाँ, मुफ़्त टेस्ट, मुफ़्त इमरजेंसी स्वास्थ्य सुविधाएँ देने की घोषणाओं में कितनी गम्भीरता होगी, यह समझने में किसी कम बुद्धि के व्यक्ति को भी कोई मुश्किल नहीं होगी। लेकिन मोदी और उसके स्वास्थ्य मन्त्री जे.पी. नड्डा चाहते हैं कि उनकी मुफ़्त घोषणाओं पर लोग यक़ीन करें। इस वर्ष के राष्ट्रीय बजट में वित्त मन्त्री जेटली ने यह भ्रम खड़ा करने की कोशिश की कि सरकार स्वास्थ्य पर ख़र्च बढ़ा रही है, लेकिन अगर हम पिछले 10 वर्षों का रिकाॅर्ड देखते हैं तो यह कोशिश ख़ाली लिफ़ाफ़ा दिखायी देती है। 2015-2016 के केन्द्रीय बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए दी गयी राशि‍ में उससे पहले के वर्ष के मुक़ाबले 5.7% की कटौती कर दी गयी थी, 2016-2017 में 5% बढ़ाया गया और अब 2017-2018 के लिए कुछ और वृद्धि की गयी है, लेकिन 2017-2018 की यह आरक्षित राशि अब भी 2011-12 के स्वास्थ्य बजट से नीचे है। यह है वित्त मन्त्री की जादूगिरी!! ऊपर से, जो राशि बजट में रखी जाती है, वह पूरी ख़र्च नहीं की जाती; जैसे 2011-12 के वर्ष में 20,000 करोड़ रुपये में से 4,000 करोड़ रुपये से अधिक ख़र्चे ही नहीं गये। वैसे जो पैसे ख़र्च होते हैं, वे भी वास्तव में (नौकरशाहों-नेताओं के हिस्से निकाल कर) कहाँ होते हैं, यह सबको पता ही है।

इस नयी स्वास्थ्य नीति का सबसे घटिया पहलू निजी क्षेत्र के लिए राह साफ़ करना है। भारत में पहले ही स्वास्थ्य के कुल क्षेत्र में से 70% के क़रीब हिस्से पर निजी क्षेत्र का क़ब्ज़ा है जिनमें अपोलो, फ़ोर्टिस, मेदान्ता, टाटा जैसे बड़े कारपोरेट अस्पतालों से लेकर क़स्बों तक में खुले निजी नर्सिंग होम शामिल हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में कारपोरेट अस्पतालों का रिकाॅर्ड-तोड़ फैलाव हुआ है, इन्होंने एक हद तक निजी नर्सिंग होमों को भी निगल लिया है। इसके साथ ही बची-खुची सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के अन्दर भी निजी क्षेत्र की घुसपैठ बढ़ी है। ज़िला-स्तरीय अस्पताल, मेडिकल कॉलेज और बड़े मेडिकल संस्थानों में प्राइवेट-पब्लिक-पार्टनरशिप के नाम पर बहुत सारी सुविधाएँ निजी हाथों में सौंपी जा चुकी हैं, या सौंपने की तैयारी है। यह कैसे किया जाता है, इसकी कुछ मिसालें पंजाब के मेडिकल कॉलेजों में मिलती हैं। पटियाला के मेडिकल कॉलेज में एमआरआई स्कैन केन्द्र को सरकार ने एक निजी संस्थान को दे रखा है। चूँकि मेडिकल कॉलेज की इमारत में बने इस केन्द्र के मालिकों को दूसरे निजी स्कैन सेण्टरों की तरह डॉक्टरों को कट नहीं देना पड़ता, इसलिए इसके रेट कम हैं और सरकार इसकी सस्ती दरों को ऐसे पेश करती है, जैसे इसने कोई अद्भुत क़ारनामा कर दिखाया हो। जबकि सरकार को शर्म आनी चाहिए कि 4-5 करोड़ की मशीन लगाने पर तकनीकी स्टाफ़ का ख़र्चा उठाकर यह सुविधा बेहद कम दरों पर उपलब्ध करायी जा सकती है, मगर सरकार ऐसा करने की कोई इच्छा नहीं रखती। अमृतसर के मेडिकल कॉलेज में चलती स्कैन की दो मशीनों में से एक मशीन भी इसी तरह ठेके पर है। सारे पंजाब के सरकारी अस्पतालों और डिस्पेंसरियों में दवाइयों की सप्लाई (जितनी भी है) के लिए प्राइवेट कम्पनियों से दवाइयाँ ख़रीदी जाती हैं, क्योंकि दवाइयाँ बनाने वाले सरकारी संस्थान या तो बन्द किये जा चुके हैं, या बन्द जैसी हालत में हैं। सरकारी अस्पतालों में ऑपरेशन के समय मरीज़ को बेहोश करने के लिए कमीशन देकर प्राइवेट डॉक्टरों को बुलाया जाता है। और भी कई तरह की सुविधाओं को इसी तरह “ठेके पर देने” का नाम देकर निजीकरण किया जा चुका है। लगभग सारे राज्यों में, अधिक या कम, यही अमल जारी है।

लेकिन अभी भी काफ़ी कुछ है जिस पर निजीकरण की मार नहीं पड़ी, जैसे इन अस्पतालों की प्रयोगशालाएँ अभी निजी हाथों में नहीं गयीं, अल्ट्रासाउण्ड स्कैन और एक्सरे आदि जैसे छोटे स्कैन भी निजी हाथों से बचे हुए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस स्तर के अस्पताल अभी कारपोरेट सेक्टर के सीधे नियन्त्रण में नहीं आये हैं। दूसरा, अभी तक प्राइमरी स्वास्थ्य केन्द्रों और डिस्पेंसरियों का ताना-बाना भी काफ़ी हद तक निजीकरण से अछूता है। कारपोरेट अस्पतालों की गिद्ध-नज़र इन पर लगी हुई है। 2015 के मसविदे में सरकार निजी क्षेत्र के अस्पतालों और डॉक्टरों द्वारा ग़लत ढंग से काम करने के बारे में बयान दे रही थी, अब वही लोग दूध के धुले हो गये हैं। 2017 की स्वास्थ्य नीति में कहा गया है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं को पूरी तरह काम करने योग्य बनाने के लिए – ख़ासकर शहरी क्षेत्रों के उन लोगों तक पहुँच करने के लिए जिन्हें स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिलतीं, और मध्यवर्गीय आबादी को फ़ीस के बदले सुविधाएँ देने के लिए, सरकार हैल्थ एण्ड वेलनेस केन्द्र (फ़ैंसी कि़स्म के नाम सोचने में हमारे देश के नेताओं और अफ़सरों का दुनिया में कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता) चलाने के लिए निजी क्षेत्र से पार्टनरशिप करेगी। यानी गाँवों में ऐसी कोई आबादी नहीं है, जिसे स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिलतीं। दूसरा, सरकार ख़ुद मानती है कि अभी तक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र भी ढंग से नहीं चले (देश के आज़ाद होने से 70 वर्ष बाद भी)। तीसरा, अब प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 2-5-10 रुपये की पर्ची वाला ज़माना जाने वाला है। मध्यवर्गीय कौन होगा, इसकी परिभाषा तय नहीं। ख़ैर, हो सकता है कि ग़रीबी रेखा से ऊपर वाले सारे लोग मध्यवर्ग में शामिल कर दिये जायें। यहाँ हम यह बता दें कि भारत की बेशर्म सरकार उस व्यक्ति को ग़रीब नहीं मानती है जो प्रति महीना 960 रुपये (गाँव में) और 1410 रुपये (शहर में) ख़र्च सकता है (2014 में निर्धारित ग़रीबी रेखा के अनुसार)।

2017 की स्वास्थ्य नीति में यह भी कहा गया है कि सरकार निजी क्षेत्र के साथ भागीदारी करके जन स्वास्थ्य सुविधाओं की कमियों को पूरा करेगी, इसमें टेस्ट-स्कैन, ऐम्बुलैंस सुविधाएँ, ब्लड बैंक, पुनर्वास के साथ जुड़ी सुविधाएँ, तकलीफ़ घटाने वाली सुविधाएँ, मनोरोगियों के लिए सुविधाएँ, टैलीमैडीसन सुविधाएँ, कम होने वाली बीमारियों के इलाज की सुविधाएँ शामिल होंगी। यानी इनमें स्टाफ़ को छोड़कर बाक़ी सब कुछ निजी क्षेत्र में होगा। स्टाफ़ में ज़्यादातर हिस्सा ठेके द्वारा भर्ती हो रहा है, एक तरह वह भी निजी क्षेत्र ही है। मतलब साफ़ है कि सरकारी नाम तले निजी दुकानें। सरकार द्वारा गिनायी गयी कमियों को ठीक करने के लिए कोई भी योजना या इरादा कहीं दर्ज नहीं है, यानी निजी व्यवस्था पक्का काम है, कोई तात्कालिक योजना नहीं है। ऐसी कोशिशें पहले भी जारी हैं, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में इन स्कीमों के लागू करने की कोशिशें हो रही हैं, लेकिन इन कोशिशों का लगातार विरोध हो रहा है। वास्तव में, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 का दस्तावेज़ लोगों को स्वास्थ्य देने के लिए नीति का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि यह जन-स्वास्थ्य सुविधाओं का बचा-खुचा हिस्सा भी तबाह करने, पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को निजी क्षेत्र के हाथों में देने, बहुसंख्यक लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएँ देने से बेशर्मी के साथ मना करने और पैसे वालों के लिए ‘अति आधुनिक’ स्वास्थ्य सुविधाएँ क़ायम करने और निजी अस्पतालों को खुलकर लूटने के लिए माहौल तैयार करके देने का दस्तावेज़ है। अम्बानियों-अडानियों की सरकार से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। असल में मौजूदा पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था में सभी लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएँ देने का उद्देश्य पूरा करना न तो सम्भव है और न ही इस व्यवस्था का ऐसा कोई मक़सद ही है। जो जन-स्वास्थ्य व्यवस्था 1947 के बाद खड़ी की गयी थी, वह भी आज़ादी के बाद लोगों की उम्मीदों को बहुत जल्दी न टूटने देने के लिए और महामारियों को फैलने से रोकने के लिए बनायी गयी थी, जिनकी चपेट में अमीरों के भी आ जाने का ख़तरा बना रहता था। भारतीय पूँजीपतियों की भी उस समय इतनी औक़ात नहीं थी कि स्वास्थ्य क्षेत्र को मुनाफ़े के लिए लूट सकें, लेकिन 1991 के बाद परिस्थितियाँ एकदम बदल गयी हैं। अब भारतीय पूँजी यह समझ चुकी है (और उसकी औक़ात भी इतनी ही हो चुकी है) कि स्वास्थ्य क्षेत्र मुनाफ़ा कमाने का एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ कभी मन्दी नहीं आती, यह पूँजी निवेश का सबसे सुरक्षित क्षेत्र है (हालाँकि यह भी पूँजीपतियों की ग़लतफ़हमी ही है!)। 1991 के बाद से सरकारें लगातार जन-स्वास्थ्य व्यवस्था को तोड़ने, तबाह करने, ठेके पर देने और निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ तैयार करने में लगी हुई हैं। मोदी सरकार इसमें और बढ़-चढ़कर काम कर रही है, क्योंकि यह पूँजी की सबसे बेशर्म और वफ़ादार सेवक है।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2017


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments