इक्कीसवीं सदी में भी नन्हीं जिन्दगियों को बाल विवाह की बलि चढ़ा रहा है समाज
बिन्नी
पिछड़ी और दकियानूसी मूल्य-मान्यताओं के नाम पर स्त्रियों को ग़ुलाम बनाने और तमाम तरह के बर्बर अमानवीय व्यवहार का शिकार बनाने का चलन विश्वभर में आज भी मौजूद है। आपने मध्यकाल में दास प्रथा, सती प्रथा या धार्मिक कर्मकाण्डों के चलते स्त्रियों की बलि चढ़ाने या मार देने के बारे में सुना या पढ़ा जरूर होगा। मगर आज भी बाल-विवाह के नाम पर लाखों स्त्रियों की ज़िन्दगी की बलि दी जाती है। मध्यपूर्व, अफ्रीका, दक्षिण एशिया और भारत स्त्रियों को सामन्ती मूल्य-मान्यताओं में बाँधने में सबसे आगे हैं। यूनीसेफ़ (यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रेन एमरजंसी फण्ड) की रिपोर्ट के मुताबिक बाल विवाह के मामले में बंगलादेश का पहला और भारत का दूसरा स्थान है।
‘द सिटीज़न’ (9 मई, 2017) की ख़बर के अनुसार भारत की 22% यानि लगभग 24 करोड़ आबादी 10-19 वर्ष की है। यहाँ 47% लड़कियों का विवाह 5-15 वर्ष की आयु में ही कर दिया जाता है यानि प्रत्येक दो लड़कियों में से एक लड़की के बालिग होने से पहले ही विवाह कर दिया जाता है। भारत में वैसे तो हर राज्य में बाल-विवाह के नाम पर नन्हीं जिन्दगियों को बर्बाद करना जारी है लेकिन उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बँगाल और मध्य प्रदेश इसमें सबसे आगे हैं।
बाल विवाह के कारण वैसे तो लड़के और लड़की दोनों का ही मानसिक और शारीरिक विकास ठीक ढंग से नहीं हो पाता, क्योंकि जो आयु उनकी ज़िन्दगी के बारे में सीखने की होती है उसे तथाकथित विवाह बन्धन में बाँध दिया जाता है। लेकिन लड़कियों के लिए यह परम्परा बेहद भयानक है। लड़की को अहसास भी नहीं होता कि वह किस जंजीर में बँधने जा रही है। सी.बी.एन. न्यूज़ के एक रिपोर्टर अमित बेदी ने राजस्थान में वीना नाम की लड़की जिसकी आयु सिर्फ 8 वर्ष थी उसे विवाह के समय ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए देख उसकी दादी से कारण पूछा तो उसने जवाब दिया कि इसको पता नहीं है कि विवाह क्या होता है या अभी वह घर की देख-रेख के प्रति सचेत नहीं हुई इसलिए थोड़ा डरी हुई है लेकिन जल्दी ही उसको आदत पड़ जाएगी। मेरा भी विवाह छोटी आयु में हो गया था। अमित आगे बताते हैं कि राजस्थान में अप्रैल से मई के महीने में यहाँ रात को हज़ारों की संख्या में गुप्त विवाह करवाये जाते हैं जिसमें विवाह करने वालों की आयु 5-19 वर्ष तक होती है। कुछ की आयु इतनी छोटी होती है कि उनके माँ-बाप गोद में उठाकर लाते हैं। शहरों के मुकाबले गाँवों और दलितों में बाल-विवाह 3 प्रतिशत ज़्यादा होते हैं। विवाह के बाद अक्सर लड़कियों के पढ़ने-लिखने पर भी पाबन्दी लगा दी जाती है।
बाल विवाह स्त्रियों के लिए मानसिक के साथ-साथ शारीरिक पीड़ा भी लेकर आते हैं। विवाह होते ही लड़की से बच्चे की अपेक्षा की जाती है जिसका परिणाम अक्सर बच्चे के जन्म के समय बच्चे या माँ की मौत होती है। भारत में 18 वर्ष की आयु से पहले बच्चे को जन्म देते समय बड़ी संख्या में बच्चे मौत का शिकार हो जाते हैं और जो पैदा होते हैं उनका शारीरिक विकास सही ढंग से नहीं हो पाता। स्त्रियों को ज़िन्दगी भर के लिए मानसिक और शारीरिक तकलीफ़ झेलनी पड़ती है। स्त्रियाँ बच्चेदानी के रोग, कमज़ोरी तथा कई गम्भीर बीमारियों का शिकार होती हैं। एक लड़की की ज़िन्दगी को बचपन से गतिहीन और नीरस बनाने की प्रक्रिया चलती है। उसको अपना संसार परिवार तक ही सीमित करना पड़ता है। लड़की को बस एक पिता या पति की सम्पत्ति बना दिया जाता है।
आज सरकार द्वारा भले ही स्त्रियों की आज़ादी या इन पिछड़ी हुई मूल्य-मान्यताओं को रोकने के लिए कई कानून बना दिए गए हैं (बाल-विवाह रोकथाम बिल 1998, बाल विवाह रोकथाम बिल 2006 आदि)। इनमें बाल-विवाह करने या करवाने वाले को जेल या जुर्माने की सजा का प्रावधान है। लेकिन ये बस कागजों तक ही सीमित हैं क्योंकि तथ्यों से साफ पता चलता है कि स्त्रियों को बराबरी के अधिकार देने या आज़ादी के लिए उन्होंने कितने कदम उठाये हैं। बल्कि, प्रतिदिन कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो मौजूदा सरकार और समाज के के बच्चियों के प्रति व्यवहार को दर्शाते हैं। पूँजीवादी मीडिया खुलेआम सरकार से शह पाकर स्त्रियों को सामन्ती मूल्य-मान्यताओं के चौखटे में रहने के लिए प्रेरित करता है। भारत में 70 प्रतिशत स्त्रियाँ प्रतिदिन घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं, हर 20 मिनट बाद एक स्त्री बलात्कार का शिकार होती है और 80 प्रतिशत स्त्रियाँ किसी न किसी रूप में शारीरिक छेड़छाड़ का शिकार होती हैं। तथ्य बताते हैं कि स्त्रियों की सुरक्षा, आज़ादी या बराबरी का मामला सरकार के लिए कोई बहुत गम्भीर बात नहीं है।
पूँजीवाद ने जनता को ग़ुलाम और पिछड़ा बनाये रखने के लिए तमाम तरह के सामन्ती मूल्य-मान्यताओं के साथ समझौता करके न सिर्फ़ उन्हें बनाये रखा है बल्कि लगातार बढ़ावा भी दे रहा है। इस पूँजीवादी समाज व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए राजनीतिक और आर्थिक संघर्ष चलाने के साथ ही पिछड़ी सोच और संस्कृति से भी लड़ना होगा। पहले के संघर्षों और सामाजिक परिवर्तन द्वारा स्त्रियों ने कुछ हद तक सम्मान से जीने का हक़ पाया है। बराबरी का हक़ पाने के लिए पूँजीवादी व्यवस्था को ही बदलना होगा।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2017
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