बेहिसाब बढ़ती महँगाई यानी ग़रीबों के ख़िलाफ सरकार का लुटेरा युद्ध
यह सरकार की जनविरोधी, कॉरपोरेट-परस्त नीतियों का नतीजा है

सम्पादक मण्डल

‘बहुत हुई महँगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ के लुभावने नारे से बेहिसाब महँगाई की मार झेल रही जनता के एक हिस्से को भरमाकर उसके वोट बटोरने के बाद भाजपा की अपनी महँगाई तो दूर हो गयी, मगर आम लोगों पर महँगी कीमतों का कहर टूट पड़ा है। मोदी सरकार के आने के बाद ही रेल, गैस, पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी हुई। दालों की कीमतें 60-70 रुपये से बढ़कर सीधे 200 रुपये तक पहुँच गयीं और उसके महीनों बाद नीचे उतरी भीं तो 120-130 पर अटकी हुई हैं। खाने-पीने और बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों की महँगाई बेरोकटोक बढ़ी है। इस महँगाई ने देश की तीन-चौथाई से भी अधिक आबादी के सामने जीने का संकट पैदा कर दिया है। सब्ज़ियों से लेकर अनाज और दूध तक के बेहिसाब बढ़ते दामों ने मेहनतकश जनता के साथ-साथ निम्न मध्यवर्गीय आबादी तक के लिए पेटभर पौष्टिक खाना खा पाना दूभर बना दिया है। रेल-बस के भाड़े, अस्पताल की फ़ीस-दवाएँ, स्कूल-कॉलेज के खर्चे, बिजली-पानी, मकानों के भाड़े—हर चीज़ में जैसे आग लगी हुई है। ऊपर से जीएसटी ने आम लोगों के इस्तेमाल की अधिकांश चीज़ों पर टैक्स का बोझ बढ़ा दिया है। मोदी सरकार के आने के बाद सर्विस टैक्स 12.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत किया जा चुका है।

मगर इतनी बड़ी आबादी के लिए जीने का संकट पैदा करने वाली महँगाई अब अख़बारों और टीवी चैनलों की सुर्खियों से बाहर हो चुकी है। दरअसल उच्च मध्य और खाते-पीते मध्य वर्ग की आमदनी में पिछले कुछ समय से लगातार जो बढ़ोत्तरी हो रही है उसके कारण उन पर इस महँगाई का ज़्यादा असर नहीं होता। दूसरे, इस वर्ग की आमदनी का एक छोटा-सा हिस्सा ही खाने-पीने की चीज़ों पर खर्च होता है। इसकी आमदनी का बड़ा हिस्सा मनोरंजन, कपड़ों, कार-बाइक, टीवी-ओवन-फ्रिज़ जैसे सामानों आदि पर खर्च होता है। मगर इस महँगाई ने ग़रीबों के लिए तो जीना दूभर बना दिया है।

इस महँगाई ने देश की भारी आबादी के लिए हालात कितने मुश्किल कर दिये हैं इसका अन्दाज़ा लगाने के लिए बस इस तथ्य को याद कर लेना ज़रूरी है कि देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी प्रति व्यक्ति सिर्फ़ 30 से 40 रुपये रोज़ाना पर गुज़ारा करती है। देश के करीब 50 करोड़ असंगठित मज़दूरों पर महँगाई की मार सबसे बुरी तरह पड़ रही है। शहरों में करोड़ों मज़दूर उद्योगों में 10-10, 12-12 घण्टे काम करके 6000 से 8000 रुपये महीना कमा पाते हैं। इसमें से भी मालिक बात-बात पर पैसे काट लेता है। लगभग एक तिहाई से लेकर आधी मज़दूरी मकान के किराये, बिजली, बस भाड़े आदि में चली जाती है। बाकी लगभग सारी कमाई किसी तरह अपने और परिवार का पेट भरने में चली जा रही है। दालें तो ग़रीबों के भोजन से पहले ही ग़ायब हो चुकी थीं अब आलू-प्याज़-टमाटर-साग जैसी सब्ज़ियाँ भी खा पाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है।

कुछ वर्ष पहले गुजरात के पाँच ज़िलों में ग़रीबों के परिवारों के बीच एक संस्था के सर्वेक्षण में पाया गया था कि महँगाई के कारण परिवार की आमदनी का 74 प्रतिशत खाने-पीने पर खर्च हो जाता है। पहले जो परिवार सुबह नाश्ता, फिर दिन और रात का खाना खाते थे उनमें से 60 प्रतिशत अब दिन में सिर्फ दो बार खाते हैं। 57 प्रतिशत लोग बहुत ज़रूरी होने पर ही डॉक्टर के पास जाते हैं। 40 प्रतिशत परिवारों में चाय के लिए दूध का इस्तेमाल बन्द हो गया है। महँगाई के कारण बहुत से लोग बस आदि के बजाय कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर काम पर जाते हैं। आज ऐसी हालत देश के लगभग सभी राज्यों में है। नोटबन्दी और उसके बाद हुई छँटनी ने देश के करोड़ों मेहनतकशों पर मुसीबतों का पहाड़ और भी वज़नी बना दिया है।

ऐसी भीषण महँगाई के पहले ही हालत यह थी कि देश की तीन-चौथाई आबादी के भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे ज़रूरी पौष्टिक तत्व लगातार कम होते जा रहे थे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने एक अध्ययन में बताया है कि देश में प्रति व्यक्ति औसत खाद्य उपलब्धता बंगाल में 1942-43 में आये भीषण अकाल के दिनों के बराबर पहुँच चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुतेरे परिवारों को दोनों वक्त या सप्ताह के सातों दिन भरपेट खाना नहीं मिलता। मनमोहन सिंह सरकार ने स्वीकार किया था कि रोज़ लगभग दस हज़ार बच्चे कुपोषण और उससे होने वाली बीमारियों के कारण मर जाते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार वास्तविक संख्या इससे बहुत अधिक है।

2012 के न्यूट्रीशन ब्यूरो के ग्रामीण भारत के आखिरी सर्वे के अनुसार 1979 के मुकाबले औसतन हर ग्रामीण को 550 कैलोरी ऊर्जा, 13 ग्राम प्रोटीन, 5 मिग्रा आइरन, 250 मिग्रा कैल्सियम और 500 मिग्रा विटामिन ए प्रतिदिन कम मिल रहा है। इसी तरह 3 वर्ष से कम की उम्र के बच्चों को 300 मिलीलीटर प्रतिदिन की आवश्यकता के मुकाबले औसतन 80 मिली दूध ही प्रतिदिन मिल पा रहा है। सर्वे यह भी बताता है कि जहाँ 1979 में औसतन दैनिक ज़रूरत के लायक प्रोटीन, ऊर्जा, कैल्शियम तथा आइरन उपलब्ध था, वहीं 2012 आते-आते सिर्फ़ कैल्शियम ही ज़रूरी मात्रा में मिल पा रहा है जबकि प्रोटीन दैनिक ज़रूरत का 85%, ऊर्जा 75% तथा आइरन मात्र 50% ही उपलब्ध है। सिर्फ़ विटामिन ए ही एक ऐसा पोषक तत्व है जिसकी मात्रा 1979 के 40% से 1997 में बढकर 55% हुई थी लेकिन वह भी 2012 में घटकर दैनिक ज़रूरत का 50% ही रह गयी। इसी का नतीजा है कि सर्वे के अनुसार 35% ग्रामीण स्त्री-पुरुष कुपोषित हैं और 42% बच्चे मानक स्तर से कम वज़न वाले हैं। और यह तो पूरी आबादी का औसत आँकड़ा है, जनसंख्या के ग़रीब हिस्से में तो हालात और भी बेहद ख़राब हैं। आजीविका ब्यूरो नाम के संगठन द्वारा दक्षिण राजस्थान के गाँवों में किये गये एक सर्वे के अनुसार आधी माँओं को दाल नसीब नहीं हुई थी तथा एक तिहाई को सब्ज़ी। नतीजा, आधी माँएँ और उनके बच्चे कुपोषित थे।

दिल्ली और मुम्बई सहित शहरों की झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाली एक चौथाई अर्थात 10 करोड़ अत्यन्त ग़रीब लोग भी भूख और कुपोषण का उतना ही शिकार हैं। और जैसे-जैसे हम भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने की चर्चा सुनते हैं भूख पीड़ित लोगों की तादाद घटने के बजाय बढ़ती जाती है। यूनीसेफ के अनुसार भारत में हर साल 5 वर्ष से कम आयु के 10 लाख बच्चे कुपोषण सम्बन्धी कारणों से मृत्यु का शिकार होते हैं। सामान्य से कम वज़न वाले 5 साल तक के बच्चों की संख्या का विवरण देखें तो पता लगेगा कि विकसित देशों को तो भूल ही जाइये, ब्राजील, चीन, दक्षिण अफ्रीका जैसे तीसरी दुनिया के देश भी छोड़िये, शहरी बच्चों के कुपोषण के मामले में हम बांग्लादेश-पाकिस्तान से भी गये गुजरे हैं! भारत में यह तादाद जहाँ 34% है वहीं बांग्लादेश में 28%, पाकिस्तान में 25%, दक्षिण अफ्रीका में 12%, ब्राजील में 2% और चीन में 1% है!

भारत की राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले मुम्बई की स्थिति को थोड़ा और विस्तार से जानते हैं क्योंकि यहाँ के बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध है। इससे बाकी शहरों की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। इन दोनों की कुल जनसंख्या के आधे और करीब 2.40 करोड़ लोग स्लम या झोंपड़पट्टी में रहते हैं जो भारी भीड़, ग़रीबी और कुपोषण के केन्द्र हैं।

अधिकांश मज़दूर परिवारों में बच्चों के लिए भी दूध नहीं नसीब होता। मज़दूर औरतें जाकर अपने बच्चे के ‘बॉडी मास इंडेक्स’ की जाँच तो नहीं करा सकती हैं, लेकिन देखकर ही जाना जा सकता है कि ये बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं। सरकारी पैमाने से औद्योगिक मज़दूर को प्रतिदिन कम से कम 2700 कैलोरी भोजन मिलना चाहिए। भारी काम करने वालों को कम से कम 3000 कैलोरी मिलना चाहिए। लेकिन वास्तव में अधिकतर मज़दूर रोज़-रोज़ जो खाना खाते हैं उससे पेट भले ही भर जाये, मगर दिन भर काम करने के लिए ज़रूरी सन्तुलित और पौष्टिक भोजन वह नहीं होता। ऊपर से, इन मज़दूरों को कभी भी पूरा आराम नहीं मिलता। ज्यादातर मज़दूर रोज़ 12-13 घण्टे काम करते हैं, और अक्सर हफ्ते में सातों दिन बिना छुट्टी के काम करते हैं। ऐसे में शरीर अन्दर ही अन्दर कमज़ोर होता जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के पैमाने से अगर किसी इलाक़े की 60 प्रतिशत आबादी कुपोषण की शिकार है, तो उस इलाक़े को ”अकालग्रस्त” घोषित करके राहत के विशेष उपाय करने चाहिए। इस पैमाने के हिसाब से तो देश की राजधानी दिल्ली की आधी से ज्यादा आबादी को तत्काल “अकालग्रस्त” घोषित किया जाना चाहिए! निश्चित ही, भारत सरकार ऐसा नहीं करेगी। क्योंकि ऐसा करने का मतलब होगा यह स्वीकार करना कि तथाकथित विकास की उसकी नीतियाँ ऊपर की 15 प्रतिशत आबादी के लिए ख़ुशहाली का स्वर्ग और बाकी जनता के लिए बदहाली का नर्क पैदा कर रही हैं। देश के करीब 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से ग्रस्त हैं और 5 साल से कम उम्र के बच्चों के मौत के 50 फीसदी मामलों का कारण कुपोषण होता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 63 फीसदी भारतीय बच्चे अक्सर भूखे सोते हैं और 60 फीसदी कुपोषण ग्रस्त हैं। दिल्ली में अन्धाधुन्ध “विकास” के साथ-साथ झुग्गियों या कच्ची बस्तियों में रहने वालों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है और लगभग 70 लाख तक पहुँच चुकी है। इन बस्तियों में न तो साफ पीने का पानी है और न शौचालय और सीवर की उचित व्यवस्था है। जगह-जगह गन्दा पानी और कचरा इकट्ठा होकर सड़ता रहता है, और पहले से ही कमज़ोर लोगों के शरीर अनेक बीमारियों का शिकार होते रहते हैं।

दरअसल कीमतें बढ़ने के लिए पूँजीवादी नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं। महँगाई की असली वजह यह है कि खेती की उपज के कारोबार पर बड़े व्यापारियों, सटोरियों और कालाबाज़ारियों का कब्ज़ा है। ये ही जिन्सों (चीज़ों) के दाम तय करते हैं और जानबूझकर बाज़ार में कमी पैदा करके चीज़ों के दाम बढ़ाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कृषि उपज और खुदरा कारोबार के क्षेत्र को बड़ी कम्पनियों के लिए खोल देने के सरकार के फैसले से स्थिति और बिगड़ गयी है। अपनी भारी पूँजी और ताक़त के बल पर ये कम्पनियाँ बाज़ार पर पूरा नियन्त्रण कायम कर सकती हैं और मनमानी कीमतें तय कर सकती हैं। मोदी सरकार आने के बाद दालों की कीमतें आसमान पर पहुँच जाने का बड़ा कारण मोदी के चहेते पूँजीपति अडानी की कम्पनी द्वारा किया गया करीब ढाई लाख करोड़ का घोटाला था।

अदानी ने सिंगापुर की विलमार कम्पनी के साथ एक संयुक्त उद्यम की शुरुआत की जिसका मकसद था भारत में खाद्य पदार्थों की बिक्री करना। इसका नाम अदानी-विलमार रखा गया जो भारत में ‘फार्च्यून’ के नाम से खाद्य पदार्थों की बिक्री करती है। अदानी ने पूरे भारत में कृषि प्रधान राज्यों के कृषि उत्पादों की भारी मात्रा जमाखोरी की ताकि बाद में महँगे दाम में बेच सके।  मगर समस्या यह थी कि एक तय सीमा से अधिक खाद्य पदार्थों को इकठ्ठा करके नहीं रखा जा सकता। तब उनके चहेते मोदी काम आये और मोदी सरकार ने अरहर, मूँग और उरद की दाल के भण्डारण की मात्रा पर से सीमा एक सरकारी कानून के तहत हटाकर अदानी की मुश्किल आसान कर दी। उसके बाद अदानी की कम्पनी ने प्रतिदिन 300 टन दाल मात्र 30 रुपये प्रति किलो के दाम से इकठ्ठा करना शुरू किया। कम्पनी ने 100 लाख टन से ज़्यादा दालों से अपने गोदामों को भर दिया। अब जब बाज़ार में दाल की किल्लत हो गयी तो अदानी ने 30 रुपये में खरीदी हुई दाल 150 से 200 रुपये में बेचकर हज़ारों करोड़ रुपये बना लिये। ये तो महज़ एक उदाहरण है।

पूँजीवादी नीतियों के कारण अनाजों के उत्पादन में कमी आती जा रही है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आज खेती संकट में है। पूँजीवाद में उद्योग के मुकाबले खेती का पिछड़ना तो लाज़िमी ही होता है लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। अमीर देशों की सरकारें अपने फार्मरों को भारी सब्सिडी देकर खेती को मुनाफे़ का सौदा बनाये हुए हैं। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में सरकारी उपेक्षा और पूँजी की मार ने छोटे और मझोले किसानों की कमर तोड़ दी है। साम्राज्यवादी देशों की एग्रीबिज़नेस कम्पनियों और देशी उद्योगपतियों की मुनाफ़ाख़ोरी से खेती की लागतें लगातार बढ़ रही हैं और बहुत बड़ी किसान आबादी के लिए खेती करके जी पाना मुश्किल होता जा रहा है। इसका सीधा असर उन देशों में खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है।

मेहनतकश जनता की मज़दूरी में लगातार आ रही गिरावट के कारण उसकी खरीदने की शक्ति कम होती जा रही है। दिहाड़ी पर काम करने वाली लगभग 50 करोड़ आबादी आज से 10 साल पहले जितना कमाती थी आज भी बमुश्किल उतना ही कमा पाती है जबकि कीमतें दोगुनी-तीन गुनी हो चुकी हैं। इससे ज़्यादा मानवद्रोही बात और क्या हो सकती है कि जिस देश में आज भी करोड़ों बच्चे रोज़ रात को भूखे सोते हैं वहाँ 35 से 40 प्रतिशत अनाज गोदामों और रखरखाव की कमी के कारण सड़ जाता है। एक्सप्रेस-वे, अत्याधुनिक हवाईअड्डों, स्टेडियमों आदि पर लाखों करोड़ रुपये खर्च करने वाली सरकारें आज तक इतने गोदाम नहीं बनवा सकीं कि लोगों का पेट भरने के लिए अनाज को सड़ने से बचाया जा सके।

महँगाई पूँजीवादी समाज में खत्म हो ही नहीं सकती। जब तक चीज़ों का उत्पादन और वितरण मुनाफा कमाने के लिए होता रहेगा तब तक महँगाई दूर नहीं हो सकती। कामगारों की मज़दूरी और चीज़ों के दामों में हमेशा दूरी बनी रहेगी। मज़दूर वर्ग सिर्फ अपनी मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के लिए लड़कर कुछ नहीं हासिल कर सकता। वह लड़कर पूँजीपति से थोड़ी मज़दूरी बढ़वाने में कामयाब भी हो जाता है तो पूँजीपति चीज़ों के दाम बढ़ाकर फिर उसे लूट लेता है। यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। मज़दूर की हालत वहीं की वहीं बनी रहती है। इसलिए मज़दूरों को मज़दूरी बढ़ाने के लिए लड़ने के साथ-साथ मज़दूरी की पूरी व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए भी लड़ना होगा।

 

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2017


 

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