फासीवादियों का प्रचार तन्त्र
सनी
फासीवाद साम्राज्यवाद के युग में संकट की उपज होता है। संकट कालीन परिस्थिति में बौखलाया पूँजीपति वर्ग फासीवाद को चुनता है। भारत में फासीवाद सत्ता में आने के बाद लगातार बड़ी पूँजी के हितों में मेहनतकश जनता के ऊपर तानाशाहना नीतियों को थोपने में लगा है। फासीवाद अपने ज़बरदस्त विराट प्रचार तन्त्र के ज़रिये इन कुकर्मों को अंजाम देता है। फासीवाद विशिष्ट किस्म का बुर्जुआ वर्ग का प्रतिक्रियावाद होता है जिसे निम्न पूँजीवादी वर्ग, सफ़ेद कॉलर मज़दूर और लम्पट सर्वहारा के प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के रूप में समझा जा सकता है। इसकी जीत को चुनाव में मापना बेवक़ूफ़ी होगी। हमने मज़दूर बिगुल के पन्नों पर बार-बार बात रखते हुए दोहराया था कि फासीवाद को चुनाव के ज़रिये हराया नहीं जा सकता है। परन्तु भारत के तमाम संशोधनवादी और प्रगतिशील दायरे के लोग व जनता का एक हिस्सा अभी भी यह सोचता है कि संविधान व जनवाद के ज़रिये फासीवाद को रोका जा सकता है। ख़ैर इन्हें 2017 में मोदी और उसके फासीवादी गिरोह ने एक बार फिर ग़लत साबित किया है। यूपी के चुनाव में मायावती और अखिलेश पर सट्टा लगाकर बैठे उदारतावादी कलमघसीट और फे़सबुक क्रान्तिकारियों की नींद उड़ गयी है और वे मोदी की जीत के बाद अपनी त्रासदी की जि़म्मेदारी का आरोप जनता के ऊपर मढने लगे हैं कि भारत की जनता का कुछ नहीं हो सकता है। दरअसल ये ‘समझदार’ फासीवाद के उभार की जि़म्मेदारी पूरी तरह से जनता पर डाल देते हैं और फासीवाद को इतिहास में चूक की तरह से पेश करने वालों की फ़ेहरिस्त में शामिल हो जाते हैं जो अपनी निष्क्रियता और फासीवाद की कार्यप्रणाली को न समझ पाने की एेतिहासिक मूर्खता का जि़म्मा जनता के सर पर डाल देते हैं। तो कुछ ऐसे हैं जो मोदी की जीत को स्वीकार ही नहीं कर रहे हैं और इसका इन्होंने भाजपा की जीत का जि़म्मा ईवीएम में घपले पर डाल दिया है। यह भी इस बात को मानने से इंकार कर देते हैं कि इतिहास के ख़ास मोड़ पर फासीवादी आन्दोलन जन्म लेता है और सत्तासीन होता है। ये ‘समझदार’ फासीवाद को पागलपन या बेवक़ूफ़ी कहकर फासीवाद की परिघटना को समझ से परे बना देते हैं। जर्मनी के हिटलर के सत्तासीन होने को भी कई इतिहासकार एक अबुझ परिघटना बनाकर पेश करते थे। लेकिन जैसा हमने बताया कि यह 2004 से चली आ रही कहानी है कि मात्र चुनाव के ज़रिये राजनीति काे मापने वाले लोगों ने 2004 में भाजपा की लोकसभा में हार का मतलब निकालते हुए फासीवाद को हारा हुआ मान लिया था और 2017 तक इनका यही हाल है कि ये लोग इसका ठीकरा या तो इवीएम पर फोड़ देते हैं या ग़रीब जनता की अज्ञानता पर। दोनों ही सूरत में ये अपनी निष्क्रियता और बौद्धिक दिवालियेपन पर और फासीवाद की कार्यनीति और ढाँचे पर सवाल नहीं उठाते हैं। हम यहाँ फिर से यह नहीं बतायेंगे कि फासीवाद क्या है, बल्कि हम यहाँ इस बात के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर अपनी बात को केन्द्रित करेंगे। हमें इस बात को समझना चाहिए कि फासीवादी अपने विराट प्रचार तन्त्र के ज़रिये किस तरह बहुसंख्यक आबादी को अपने पक्ष में कर लेते हैं व इसके भौतिक कारण क्या हैं? हम इस लेख में फासीवाद के विराट प्रचार तन्त्र की तरफ़ ध्यान इंगित करना चाहेंगे जिससे कि यह समझा जा सके कि फासीवाद जनता की अपने पक्ष में किस तरह से सहमती बनाता है क्योंकि फासीवाद की इस प्रचार प्रणाली को मज़दूर वर्ग के हिरावल को चुनौती देनी है। फासीवाद के प्रचार का सबसे बड़ा हिस्सा मिथ्या दुश्मन को खड़ा करना होता है। यह देश की हर समस्या का ठीकरा उस दुश्मन के सर पर फोड़ता है। रेल की पटरी उतरने से लेकर नक़ली नोट छपने और देश में बेरोज़गारी के ज़िम्मेदार कहीं न कहीं से पड़ोसी देश के लोग या देशद्रोही क़रार दिये जाते हैं और इनकी और इनके सहयोगियों की तस्वीर के रूप में मुसलमान, कम्युनिस्ट और सेक्युलर को भरा जाता है। यह सिर्फ़ मोदी की ही नहीं सभी फासीवादियों की नीति रही है। इस प्रचार तन्त्र को समझना होगा जिससे कि यह तस्वीर पेश की जाती है और दूसरा उन कारणों की पड़ताल करनी होगी जिसकी वजह से यह प्रचार लोगों पर असर करता है।
फासीवादियों के प्रचार को तीन हिस्से में बाँटकर समझा जा सकता है – प्रचार की मशीनरी, प्रचार का सारतत्व, प्रचार के उपकरण। इसे तीन हिस्से में इसलिए ही बाँटा है ताकि यह समझा जा सके कि यह किस तरह काम करता है। सबसे पहले हम फासीवादी प्रचार मशीनरी को जाँच लें। प्रचार की मशीनरी का अर्थ है कि जनता के अलग वर्ग संस्तरों के बीच फासीवादी कहाँ-कहाँ मौजूद होते हैं। दरअसल आज फासीवादियों ने सत्ता के हर अंग-उपांग के साथ-साथ जनता की रिहाइश के कोने-कोने तक अपनी पकड़ स्थापित की है। संघ की देश में लग रही करीब 50000 शाखाएँ, भारतीय मज़दूर संघ, सरस्वती शिशु मन्दिर जहाँ बचपन से ही हिन्दू संस्कृति की महानता के बीज बोये जाते हैं, भारतीय किसान संघ, बजरंग दल में संगठित लम्पट तत्व, दुर्गा वाहिनी, विश्व हिन्दू परिषद, विवेकानन्द इण्टरनेशनल फ़ाउण्डेशन जिसमें अजित डोभाल सरीखे ब्यूरोक्रेट और सेना के अधिकारी शामिल हैं, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच आदि वे संगठन हैं जो लगातार फासीवादी विचारों का प्रचार-प्रसार करते हुए जनता के तमाम संस्तरों के बीच मौजूद हैं। ये संस्थाएँ धार्मिक मेलों के ज़रिये त्योहारों पर कार्यक्रम, झुग्गियों बस्तियों में चौकियाँ लगाने के धार्मिक कार्यक्रम साल भर करती हैं। फासीवादी तकनोलोजी का इस्तेमाल करने में भी अव्वल होते हैं, गोएबल्स से सीख लेते हुए आज ये लोग टेलीविजन पर मीडिया के बड़े हिस्से में अपना प्रभुत्व क़ायम करे बैठे हैं। अख़बारों के ज़रिये लगातार मोदी का चेहरा, पेट्रोल पम्पों और बस स्टॉप से लेकर तमाम बसों पर मोदी और भाजपा के नारे सबसे अधिक चमकते हैं। फि़ल्मों में संघ की विचारधारा को घोल कर पेश किया जाता है, ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘ज़ोर लगाकर हईसा’ व तमाम फि़ल्मों में सीधे संघ की तारीफ़ आ जाती है। रेडियो पर ‘मन की बात’ के ज़रिये व्यवस्थित प्रचार करने में भी ये अव्वल हैं। सोशल मीडिया के हर रूप में यानी फे़सबुक, ट्विटर और व्हाट्सप्प के विराट तन्त्र का भी ये इस समय अधिकतम इस्तेमाल कर रहे हैं। अफ़वाह फैलाने में और अपने प्रचार को लगातार इन माध्यमों से लोगों तक संघ के तमाम हिस्सों द्वारा पहुँचाया जा रहा है। इस बीच में मोदी द्वारा किये गये सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबन्दी का प्रचार (जिसके असफल होने पर यह प्रचार नहीं किया गया), देशद्रोहियों के िख़लाफ़ प्रचार जारी रहता है। चुनाव प्रचार में इन माध्यमों के इस्तेमाल के साथ सैकड़ों बाईकों, ट्रकों द्वारा रैलियाँ, बड़ी-बड़ी सभाएँ और रोड शो जिसमें कि अन्य चुनावबाज़ पार्टियों को भाजपा ने पीछे छोड़ दिया है। प्रचार में अगर महज़ खोखले चुनावी वायदों की बात होती तो यहाँ यह बात करने का ज़्यादा मतलब नहीं होता क्योंकि कांग्रेस भी नर्म हिन्दू कार्ड और दंगों की राजनीति करती आयी है, फिर भाजपा के फासीवादी प्रचार और कांग्रेस के प्रचार में अन्तर क्या हुआ? इसके लिए हमें फासीवादी प्रचार को समझना होगा। फासीवादी प्रचार में सबसे प्रमुख बात होती है कि यह हर-हमेशा एक मिथ्या शत्रु को खड़ा करता है जिसे हर मुसीबत के लिए दोषी क़रार दिया जाता है। देश में भुखमरी, ग़रीबी, बेरोज़गारी के लिए इस मिथ्या शत्रु को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। इसके लिए फासीवाद को एक राजनीतिक अन्धभक्ति पैदा करनी होती है जिससे जीवन की कठिन सच्चाइयों पर पर्दा पड़ा रहे। यह अन्धभक्ति जर्मनी में नाजि़यों ने आर्यन नस्ल की श्रेष्ठता और यहूदियों से नफ़रत के रूप में दी तो भारत में यह मुसलमान विरोध और हिन्दू होने के गर्व करने पर दी जाती है। दरअसल फासीवाद की विचारधारा का कोई सैद्धान्तिक आधार नहीं होता है बल्कि यह चरम व्यवहारवाद और चरम अवसरवाद को मानती है। यही कारण है कि इस किस्म का प्रचार अलग-अलग किस्म के सामाजिक असन्तोषों को, जो एक-दूसरे के विरोधी होते हैं, उन्हें अपने अन्दर समेट लेती है। जिस मिथ्या या कल्पना जगत का निर्माण किया जाता है, जिसे ‘अच्छे दिन’ या ‘रामराज्य’ कहा जा सकता है उसमें यह अन्तरविरोध धूमिल हो जाते हैं, वहीं मिथ्या शत्रु पर सारा गुस्सा निकला जा सकता है जिसके कारण सभी समस्याएँ हैं। इस मिथ्या चेतना का निर्माण करना और अन्धभक्ति पैदा करना फासीवादियों के प्रचार की आम नीति होती है। इस आम बात के बाद हम कुछ और विशिष्ट बातें इस प्रचार में देख सकते हैं कि अक्सर फासीवाद प्रचारक अन्धभक्ति को स्थापित करने में सफल कैसे हो पाते हैं। पहली बात तो यह कि मोदी से लेकर हिटलर या किसी भी प्रचारक की बात में अक्सर लोगों की राजनीति से इतर उनकी निजी ज़िन्दगी से जुड़ी बात अधिकतम होती है जिसमें उनकी छोटी-छोटी ज़रूरतों की बात की जाती है और प्रचारक भी अपनी निजी ज़िन्दगी की बातें साझा करता है। मोदी द्वारा अपने बारे में संन्यासी होने, व्यक्तिगत गाड़ी न होने, घरबार सब कुछ छोड़ देने की बात बार-बार भाषणों में और प्रचारों में आती है और वहीं मोदी राजनीतिक भाषण के बड़े हिस्से में घरों में महिलाओं द्वारा रोटी सेंकते वक्त हाथ जल जाने की बात सरीखी निजी बातें करता है। फासीवादी प्रचार में इस किस्म के निजी प्रचार की अहम भूमिका होती है। इससे हर हमेशा फासीवादी रिश्ता स्थापित करता है जिससे कि आगे कि बातों को पेश कर सके। दूसरी बात फासीवादी प्रचार ही लक्ष्य का काम करता है। उदाहरण के तौर पर स्किल इण्डिया, परिवर्तन यात्रा, तिरंगा यात्रा आदि के ज़रिये प्रचार अन्ततः मक़सद बन जाता है। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, स्वच्छ भारत, स्किल इण्डिया से लेकर गंगा की सफ़ाई का अभियान महज़ प्रचारित किया गया और इसमें से कुछ भी ज़मीनी स्तर पर नहीं हुआ। पूँजीपति वर्ग के लिए उठाये क़दमों को भी बिलकुल उलट कर लोगों को अलग आख्यान पेश किया जाता है चाहे यह नोटबन्दी को काला धन रोकने, डिजिटल इण्डिया बनाने के रूप में प्रचारित किया गया। श्रम क़ानूनों में बदलाव को मज़दूरों के लिए सुधार के रूप में पेश किया जाता है और बजट में पूँजीपतियों के लिए खुली नंगी लूट को ग़रीबों का बजट बनाकर पेश किया जाता है। जनता को प्रचार से इस क़दर ढँक दिया जाता है कि उसके अन्त तक यानी ‘रामराज्य’ या ‘अच्छे दिन’ तक जाने की जगह ‘रामराज्य’ को पाने के लिए चलने वाली कवायदें ही असल मक़सद बन जाती है। तीसरी बात पूरे फासीवादी प्रचार में कुछ उपकरण गढे़ जाते हैं जिनका इस्तेमाल नीचे से लेकर ऊपर तक हर प्रचारक अनगिनत बार करता है। यह दोहराव ही मिथ्या को सच्चाई में तब्दील करने की ज़मीन तैयार करता है। देशद्रोही की परिभाषा गढ़ी जाती है जिसमें गाय के हत्यारे, पाकिस्तान के समर्थक, शान्ति के सन्देश देने वाले, भारत के टुकड़े-टुकड़े करने वाले लोगों को तमाम तस्वीरों के ज़रिये, कुछ वीडियो के ज़रिये लगातार जनता के बीच प्रचारित किया जाता है और अपने हर दुश्मन को ऊपर बनाये गये दुश्मन से जोड़ने के प्रयास किये जाते हैं। कैराना को छोटा पाकिस्तान बोलना, जेएनयू को देशद्रोहियों का गढ़ बोलना एक किस्म का ही प्रचार है जिसमें फासीवाद अपने दुश्मनों के बारे में गढ़ता है। साथ ही जब भी इस मिथ्या दुश्मन के बारे में बात की जाती है तो अक्सर उसके सफाए की, ख़ून से भारत माता को पवित्र करने के नारे दिये जाते हैं। इन भाषणों में प्रयोग की गयी भाषा में दुश्मन को उस तरह ही नेस्तनाबूत किया जाता है जैसा सनी देओल अपनी फि़ल्मों में अकेला गुण्डों से लड़ जाता है और इसे देखकर जिस तरह एक मध्य वर्गीय व्यक्तित्व का गुस्सा निकलता है फासीवादियों के भाषण में भी उसका गुस्सा इस रूप में निकलता है। इस प्रचार में ठोस राजनीतिक व आर्थिक कार्यक्रम पूरी तरह गायब रहता है और कोई चाहे भी तो इस प्रचार को तार्किक तरह से जोड़ नहीं सकता है परन्तु फिर भी इसे तार्किक रूप से गढ़ा जाता है। प्रचार तन्त्र के ये अलग अंग हैं जिन्हें यहाँ हमने बेहद संक्षिप्त रूप में पेश किया है। इनकी समझदारी हासिल कर ही हम इस प्रचार की काट कर सकते हैं। लेकिन प्रचार के तन्त्र को जान लेने से यह बात अभी भी अधूरी रह जाती है कि जनता के अलग संस्तरों में लोगों पर क्यों इस प्रचार का असर पड़ता है व जनता क्यों इस प्रचार के पीछे चल पड़ती है। इसका कारण हमें भारत की उत्तर औपनिवेशिक ज़मीन में ढूँढ़ना होगा जहाँ रूढ़ीवाद और पुरातनपन्थ जन मानस पर हावी रहा है। भारत जैसी सांस्कृतिक ज़मीन फासीवाद के इस प्रचार के लिए अनुकूलतम है। फासीवादी प्रचार किस प्रकार भारत की ज़मीन के लिए अनुकूलतम है और कौन से वर्ग इस प्रचार से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं व इसके कारण क्या हैं यह हम अगले अंक में विस्तारपूर्वक लिखेंगे।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2017
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