सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता बनने की बजाय उसका पिछवाड़ा निहारने की ज़िद
पी.पी. आर्य का पत्र : कूपमण्डूकी आर्तनाद और शेखीबाज़ी भरे धर्मोपदेश का पिटारा

”बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप पर एक बहस और हमारे विचार” शीर्षक अप्रैल 1999 के सम्पादकीय में साथी पी.पी. आर्य का पत्र हमने जून-जुलाई 1999 अंक में छापा था और उसका उत्तर भी दिया था। पी.पी. आर्य के पत्र पर ही हम इस अंक में साथी विश्वनाथ मिश्र और अरविन्द सिंह की दो टिप्पणियाँ दे रहे हैं। हम एक बार फिर इस बहस में क्रान्तिकारी वामपन्थी शिविर के साथियों की भागीदारी आमन्त्रित करते हैं। – सम्पादक

 

विश्वनाथ मिश्र

नागरिक पी.पी. आर्य अपने पत्र में बोल्शेविक नीति और आम कार्यनीति को सिर के बल खड़ा करते हुए यह धर्मोपदेश देते हैं कि मज़दूर आन्दोलन में समाजवादी राजनीति का प्रचार तभी किया जा सकता है, जब वह उठान पर होता है और समाजवादी बातों की ग्राह्यता बहुत अधिक होती है। जब मज़दूर आन्दोलन पीछे हट रहा हो और उसमें प्रतिक्रियावाद का माहौल हो, तब ऐसा करना ग़लत होगा। यह हिरावलपन्थ होगा।

लेनिन का एक उद्धरण चेंपते हुए वह बताते हैं कि आन्दोलन के प्रारम्भिक दौरों में कम्युनिस्टों को सिर्फ़ सांस्कृतिक या आर्थिक कार्य ही करते रहना पड़ता है। पी.पी. आर्य यह नहीं समझते कि मज़दूर आन्दोलन में हार और उलटाव का अर्थ प्रारम्भिक दौर में वापस चले जाना नहीं होता। भारतीय मज़दूर आन्दोलन में वामपन्थी प्रभाव का इतिहास ही अस्सी साल पुराना है। उसे शून्य समझना पराजयवाद है (या फिर शायद ऐसे लोग वहीं से शुरुआत मानते हों जहाँ से राजनीति में उनका जन्म हुआ हो)। केवल आर्थिक कार्य करने वालों को तो मज़दूर वर्ग, बरसों से देख ही रहा है और उनसे पक चुका है। अब उसके सामने क्रान्तिकारी जनकार्य का सही मॉडल प्रस्तुत करने की ज़रूरत है। पराजय भी एक अर्थ में मज़दूरों की चेतना को उन्नत बनाती है। मज़दूर वर्ग में समाजवादी विचारों की ग्राह्यता है या नहीं, यह निर्णय वैज्ञानिक समाजवादी विचारों के प्रचार-कार्य को हाथ में लिये बिना तो वैसे भी नहीं किया जा सकता।

वामपन्थी क्रान्तिकारी आन्दोलन में साथी पी.पी. आर्य जैसे लोगों की अच्छी ख़ासी तादाद है जो आज की प्रतिकूल परिस्थितियों में सही कार्यनीति अपनाने के बजाय रोते-कलपते-बिसूरते हुए सर्वहारा वर्ग के बीच सर्वोपरि प्राथमिकता देकर किये जाने वाले राजनीतिक कामों का ही परित्याग कर देते हैं। और यह स्वाभाविक है क्योंकि उनका मानना है कि भारत के लगातार पीछे हटते मज़दूर आन्दोलन में उन्नत चेतना वाले मज़दूर रह ही नहीं गये हैं। इसीलिए उनका मानना है कि राजनीतिक शिक्षा और प्रचार तथा मज़दूर वर्ग के बीच पार्टी-निर्माण के काम को छोड़कर अपने को सिर्फ़ आर्थिक कार्यों और निम्न स्तर की सुधार की कार्रवाइयों तक ही सीमित रहना चाहिए।

यह कूपमण्डूकी ”आर्तनाद” सर्वहारा क्रान्तियों के इतिहास में कठिन स्थितियों में पहले भी उठता रहा है। ”कठिनाइयों और ग़लतियों से हतोत्साहित होना भीरुता है; यह कूपमण्डूकों का ”आर्तनाद” है, जबकि हमें दरकार धीर, सतत और अनवरत सर्वहारा प्रयास की है” (लेनिन : ‘बोल्शेविज़्म का विद्रूप’, ‘अराजकतावाद और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद’ शीर्षक संकलन, पृ. 230, प्रगति प्रकाशन, 1984)।

भारतीय क्रान्तिकारी वामपन्थी आन्दोलन में अर्थवादी और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी प्रवृत्तियों के उद्भव और विकास को समझने में रूसी क्रान्ति के इतिहास से हमें काफ़ी मदद मिलती है। ट्रेडयूनियनों के प्रति पार्टी के रवैये के बारे में वोइनोव (ए.वी. लुनाचार्स्की) की पुस्तिका की भूमिका में लेनिन ने लिखा था, ”पश्चिमी यूरोप के बहुतेरे देशों में क्रान्तिकारी संघाधिपत्यवादी अवसरवाद, सुधारवाद और संसदीय जड़वामनवाद का एक प्रत्यक्ष और अपरिहार्य परिणाम था। हमारे देश में भी ”दूमा कार्रवाई” के पहले क़दमों ने अवसरवाद को अपार विस्तार प्रदान किया ओर मेंशेविकों को कैडेटों के जी-हजूरियों में तब्दील कर दिया। मिसाल के तौर पर, प्लेख़ानोव, अपने दैनन्दिन राजनीतिक कार्य में वस्तुत: प्रोकोपोविच और कुस्कोवा महाशयों के साथ घुल-मिल गये। 1900 में उन्होंने बर्नस्टीनवाद के लिए, रूसी सर्वहारा के सिर्फ़ ”चूतड़” ही निहारने के लिए, उनकी भर्त्सना की थी (‘राबोचेये देलो’ के सम्पादक मण्डल के लिए Vademecum,  जेनेवा, 1900)। पर 1906-07 में पहले ही मतपत्रों ने प्लेख़ानोव को इन सज्जनों की बाँहों में धकेल दिया जो अब रूसी उदारतावाद का ”चूतड़” निहार रहे हैं। संघाधिपत्यवाद रूस की ज़मीन पर ”प्रतिष्ठित” सामाजिक जनवादियों के इस लज्जास्पद आचरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया की तरह उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकता।” (लेनिन : कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 13, पृ. 166)A

लेनिन के इस तर्क को हम अपने देश के मज़दूर आन्दोलन के इतिहास पर भी लागू कर सकते हैं। तेलंगाना संघर्ष की पराजय के बाद लगभग पन्द्रह वर्षों के संशोधनवादी घटाटोप की प्रतिक्रिया के तौर पर ही चारु मजूमदार का वामपन्थी दुस्साहसवादी भटकाव पैदा हुआ। सही ढंग से और साहसपूर्ण ढंग से इस भटकाव का समाहार करने के बजाय पैबन्द लगाकर और इंच-इंच खिसककर ग़लती को ठीक कर लेने की ग़लत पहुँच (अप्रोच) के कारण सत्तर और ख़ासकर अस्सी के दशक में कई वामपन्थी क्रान्तिकारी संगठन अलग-अलग रूपों में अर्थवाद, सुधारवाद, संसदवाद या अकादमिकवाद के गङ्ढे में जा गिरे। इसकी एक प्रतिक्रिया यदि वामपन्थी दुस्साहसवाद की धारा की निरन्तरता के रूप में हो रही है तो दूसरी प्रतिक्रिया अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के रूप में सामने आ रही है।

पी.पी. आर्य जैसे लोगों की धारा एक मिली-जुली धारा है जो मिली-जुली स्थिति की प्रतिक्रिया और परिणाम है।

वामपन्थी क्रान्तिकारी धारा में राजनीतिक कार्यों के सामाजिक जनवादी, अकादमिक और ‘पैस्सिव रैडिकल’ स्वरूप और उसकी परिणतियों के प्रतिक्रियास्वरूप ऐसे लोग राजनीतिक कार्यों की सर्वोपरिता और नेतृत्वकारी भूमिका को ही खारिज़ करने लगे हैं और बुनियादी आर्थिक कार्यों को ही आज की एकमात्र ज़रूरत बताने लगे हैं। ऐसा करते हुए वे और आगे बढ़कर, प्रकारान्तर से, पार्टी-निर्माण के पहलू की ही उपेक्षा करने लगते हैं और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी पोज़ीशन अपना लेते हैं। दूसरी तरफ, जब वे उन्नत चेतना वाले मज़दूरों को राजनीतिक शिक्षा व नेतृत्व देने तथा उनके बीच से पार्टी-भर्ती के काम की महत्ता को नकारते हुए मज़दूरों के व्यापक, औसत और निम्न चेतना के संस्तरों तक पहुँचने की बात करते हैं तो स्पष्टत: गाड़ी के पीछे घोड़ा जोतने लगते हैं और भारतीय सर्वहारा वर्ग के नेता, शिक्षक, संगठनकर्ता की भूमिका निभाने की बजाय उसका ”चूतड़” निहारने लगते हैं।

पी.पी. आर्य जैसे लोग कूपमण्डूकीय ”आर्तनाद” करते हुए बताते हैं कि मज़दूर वर्ग में भी अभी सीधे राजनीति और विचारधारा के प्रचार की कार्रवाई नहीं की जा सकती, क्योंकि आज भारत का मज़दूर आन्दोलन लगातार पीछे हट रहा है। उनका मानना है कि आज हमें आर्थिक कार्य और निम्न स्तर के सांस्कृतिक कार्य तक सीमित रहना चाहिए। आपने इसका सही उत्तर दिया है कि ऐसी स्थिति में तो राजनीतिक कार्य की नेतृत्वकारी भूमिका और महत्ता और अधिक होनी चाहिए। जो लोग यह सोचते हैं कि मज़दूर वर्ग को आर्थिक संघर्ष की शिक्षा देते-देते राजनीतिक संघर्ष की शिक्षा देने की मंज़िल तक पहुँचाया जाता है (या वह ख़ुद ही अपने को शिक्षित कर लेता है) वे मेंशेविक ही तो हैं।

रूस में जिस समय 1905-07 की प्रथम क्रान्ति पराजय के कठिन दौर में प्रवेश कर रही थी, उस समय भी लेनिन ने ट्रेडयूनियनों में क्रान्तिकारी कार्य की सर्वोपरिता को ही ज़ोर देकर रेखांकित किया था। लेनिन की ऊपर उद्धत रचना के ही इस अंश पर ग़ौर कीजिये, जो उन्होंने नवम्बर 1907 में लिखी थी :

”कॉमरेड वोइनोव का रूसी सामाजिक जनवादियों (यानी कम्युनिस्टों – अनु.) से अवसरवाद के उदाहरण से और संघाधिपत्यवाद के उदाहरण से सीखने का आह्वान करने की लाइन अपनाना सही ही है। ट्रेडयूनियनों में क्रान्तिकारी कार्य, संसदीय तिकड़म के बजाय सर्वहारा वर्ग की शिक्षा पर ज़ोर देना, शुद्ध वर्ग संगठनों को गोलबन्द करना, संसद के बाहर संघर्ष, रूसी क्रान्ति में आम हड़ताल और ”संघर्ष के दिसम्बरी रूपों” के उपयोग की क्षमता विकसित करना (और जनता को इनके सफल इस्तेमाल की सम्भावना के लिए तैयार करना) – यह सब बोल्शेविक प्रवृत्ति के कार्यभार के रूप में बहुत अधिक अहमियत हासिल कर लेता है” (पूर्वोद्धृत, पृ. 167)।

नागरिक पी.पी. आर्य के पत्र से आम कार्यनीति की जो अधकचरी समझ टपक रही है, उसका दिवाला पिटने में देर नहीं लगेगी। इस राजनीति पर ‘जेनुइन’ मार्क्‍सवादी संगठनकर्ताओं-कार्यकर्ताओं को बहुत दिनों तक एकजुट नहीं रखा जा सकता, चाहे विरोधी संगठनों के बारे में जितना भी गाली-गलौज, कुत्सा-प्रचार किया जाये। जो मार्क्‍सवाद की छीछालेदर करने की कोशिश करते हैं, मार्क्‍सवाद उनकी अत्यन्त दुर्गतिपूर्ण छीछालेदर कर देता है।


बिगुल, अगस्त 1999


 

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