आप लोग कमज़ोर, छिछले कैरियरवादी बुद्धिजीवी हैं और ‘बिगुल’ हिरावलपन्थी अख़बार है!
पी.पी. आर्य का पत्र
‘बिगुल’ के अप्रैल 1999 अंक में हमने ”’बिगुल’ के लक्ष्य और स्वरूप पर एक बहस और हमारे विचार” शीर्षक से एक सम्पादकीय छापा था।इस सम्पादकीय पर हमें एक पत्र प्राप्त हुआ है। ‘बिगुल’ के पाठकों और वितरक-संवाददाता-सहायक साथियों के समक्ष क्रान्तिकारी राजनीतिक मज़दूर अख़बार के बारे में अपने बोध और धारणा को स्पष्ट करने के लिए यह पत्र और इसका उत्तर छापना हमें बेहद उपयोगी लगा। ‘बिगुल’ से जुड़े साथियों और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शिविर की कतारों से हमारा आग्रह है कि वे इस बहस को ज़रूर पढ़ें और दो लाइनों के संघर्ष में स्वविवेक से सही-ग़लत की पहचान करें। कोई भी साथी, इस बहस में (दोहराव और पिष्टपेषण के बजाय) यदि सार्थक हस्तक्षेप करना चाहता है या मुद्दे-नुक्ते ज़ोड़ना चाहता है, तो हम उसकी भागीदारी आमन्त्रित करते हैं। – सम्पादक
प्रिय साथी,
अप्रैल 1999 के अंक का सम्पादकीय ”’बिगुल’ के लक्ष्य और स्वरूप पर एक बहस और हमारे विचार” तथा सम्पादकीय की बातों को पुष्ट करने के लिए ”मज़दूर अख़बार – किस मज़दूर के लिए?” (लेनिन के 1899 में लिखे लेख रूसी सामाजिक जनवाद में एक प्रतिगामी प्रवृत्ति के एक अंश का अनुवाद) को पढ़ने के बाद बिगुल के लेखकों और पाठकों के लिए यह प्रतिक्रिया भेजी जा रही है। उम्मीद है कि आप इसे बिगुल में छापेंगे और अपने अख़बार के लक्ष्य एवं स्वरूप पर बहस को आगे बढ़ायेंगे।
सम्पादकीय शुरू में ही स्पष्ट कर देता है कि बिगुल किसी ट्रेडयूनियन का मुखपत्र नहीं है और बिगुल का उद्देश्य है मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी विचारधारा को स्थापित करना। सम्पादकीय शुरू में ही इस बात को भी स्पष्ट कर देता है कि विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रचार का काम अख़बार के माध्यम से सीधे-सीधे किया जाना चाहिए और अख़बार को मात्र आर्थिक संघर्षों या जनवादी अधिकार के सवालों पर टीका-टिप्पणी तक सीमित नहीं रहना चाहिए। यह सब कुछ इसलिए ताकि अख़बार, मज़दूर वर्ग को, एक सर्व भारतीय क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठन के निर्माण एवं गठन की दिशा में, प्रेरित और उन्मुख कर सके।
इस घोषित उद्देश्य से हमारी कोई शिक़ायत नहीं है। हम आप से सहमत हैं कि देश के मज़दूर आन्दोलन को ऐसे अख़बार की ज़रूरत है। लेकिन इसके बावजूद हमारा आपसे कहना है कि बिगुल अपने ही घोषित उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहा है। बल्कि बिगुल इस घोषित उद्देश्य के विपरीत काम कर रहा है। यह बात बिगुल के समग्र स्वरूप एवं वर्तमान सम्पादकीय दोनों में साफ़ तौर पर दिखायी देती है। बिगुल की यह आलोचना हम वर्तमान सम्पादकीय से ही शुरू करते हैं। बिगुल का उद्देश्य एक सर्व भारतीय क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठन का निर्माण एवं गठन बताया गया है, परन्तु अभी इस बात पर आने के पहले कि कैसे बिगुल इस ज़िम्मेदारी को पूरा कर रहा है, आप इसके ठीक विपरीत काम करने लगते हैं आप बिना खुले तौर पर नाम लिये कुछ लोगों पर मेंशेविक एवं अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी होने का चिप्पा लगा देते हैं। आपने छूटते ही गाली दी। यह न तो बहादुरी का काम है और न ही अक्लमन्दी का। आप की गालियों से न तो सामने वाले डरेंगे और न ही वे आपके शागिर्द हो जायेंगे। इस तरह के चिप्पे लगा देने से कहीं से भी सर्व भारतीय संगठन के निर्माण में मदद नहीं मिलती है। इसके उल्टे सामने वाले को यह समझ में आने लगता है कि आप कुछ कमज़ोर व छिछले लोग हैं जोकि दूसरों को गालियाँ देकर आत्म-महानता की कुण्ठाओं में जीना पसन्द करते हैं। ऐसी हरकतों से सामने वालों को यही समझ में आता है कि एक सर्व भारतीय क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठन का हिस्सा बनने के लिए जो सामान्य कम्युनिस्ट विनम्रता होनी चाहिए, आप में उसकी भी कमी है। हमारा आपसे अनुरोध है कि इन ग़लत आदतों को सुधारिये, इस छिछलेपन से उभरिये।
चिप्पे जड़ने (या तोहमतें लगा देने) और तीखी आलोचना (या राजनीतिक संघर्ष) में गुणात्मक अन्तर है। तीखी आलोचनाएँ या आर-पार के राजनीतिक संघर्ष स्वागत योग्य हैं, जबकि चिप्पेबाज़ी निन्दनीय है। इस मामले में हमें, लेनिन से सीखना चाहिए। लेनिन अपनी तीखी आलोचनाओं के लिए मशहूर रहे हैं। लेकिन लेनिन चिप्पेबाज़ नहीं थे। लेनिन, सामने वाले की ग़लतियों को (उसके लेखन एवं कर्म से) पहले चिह्नित करते थे, उनका विश्लेषण करते थे और तब ही वे सामने वाले की ग़लत प्रवृत्ति का सूत्रीकरण करते थे। रूसी सामाजिक जनवाद में एक प्रतिगामी प्रवृत्ति लेनिन के लेख को अगर पूरा-पूरा पढ़ा जाये तो लेनिन की यह धैर्यपूर्ण कार्यशैली साफ़ समझ में आती है, लेनिन की कार्यशैली की यह ख़ासियत है कि वे एकता क़ायम करने की नीयत से धैर्यपूर्ण लम्बे संघर्षों में विश्वास रखते थे, इसके लिए वे मशक्कत करते थे। मात्र चिप्पा लगाकर पल्ला झाड़ लेने में लेनिन यक़ीन नहीं रखते थे। यही वजह है कि वे सर्वहारा की क्रान्तिकारी पार्टी बनाने में सफल रहे। हमारी आपसे विनती है कि लेनिनवादी होने का डंका पीटने के बजाय, अगर आप लेनिन की इस कार्यशैली का अनुसरण करेंगे तो कहीं बेहतर होगा।
एक अन्य जगह पर, सम्पादकीय में ही, आपने कुछ बिरादर संगठनों पर अल्पज्ञान-सन्तोष और अहम्मन्यता के शिकार होने और मेंशेविक विचारों से बुरी तरह ग्रसित होने के आरोप जड़े हैं। उक्त आरोप आपने किस आधार पर लगाये इसका खुलासा करने की जहमत तो आप उठाते नहीं हैं। परन्तु आप आगे यह फरमाते हैं कि इन संगठनों ने अपने पत्रों में लेखकों का नाम न देने की (”व्यक्तिवाद-विरोध” के नाम पर) जो मुहिम चला रखी है, वह कूपमण्डूकतापूर्ण है। ऐसे लोगों को आपने अधकचरे मौलिक सिद्धान्तकार बताया है और कहा है कि यह नायाब क़दम तो लेनिन, स्तालिन और माओ की पार्टियों को भी नहीं सूझा था।
जनाब, अपने अल्पज्ञान से पैदा होने वाली सीमाओं को स्वीकारते हुए (लेकिन अल्पज्ञान-सन्तोष और अहम्मन्यता के शिकार होने से इन्कार करते हुए), हम यह अर्ज़ करना चाहते हैं कि आप ग़लत तथ्य पेश कर रहे हैं और ग़लत आलोचना कर रहे हैं। रूस और चीन के क्रान्तिकारी आन्दोलन में, गुमनाम रहकर क्रान्ति के लिए कर्म करने की स्वस्थ परम्पराएँ रही हैं। गुमनाम रहकर आन्दोलन के लिए लिखते रहना भी इन परम्पराओं में शामिल था। अपने जीवनकाल में व्यक्तिगत तौर पर लेनिन, स्तालिन और माओ ने भी जनता के लिए गुमनाम लेखन या छद्म नाम से लेखन कार्य किया है। ऐसी परम्पराएँ ग़लत नहीं, वांछनीय हैं। रहा सवाल हमारे हिन्दुस्तान के वर्तमान क्रान्तिकारी आन्दोलन का तो हमें ऐसी चीज़ों की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है क्योंकि आन्दोलन के टूटन व बिखराव के वर्तमान दौर में आज निकृष्ट कोटि का व्यक्तिवाद पनप रहा है। यह देखने में आ रहा है कि क्रान्तिकारी नेता एवं उनके परिवारजन अपने नामों से छपास का कोई भी मौक़ा हाथ से निकलने नहीं देते। इससे मिलने वाली व्यक्तिगत शोहरत के लिए वे संगठन के प्रकाशन गृहों (और संगठन से जुड़े प्रकाशन गृहों) का खुलकर इस्तेमाल करने से भी नहीं लजाते। अगर किसी आन्दोलन में ऐसी निकृष्ट कोटि का व्यक्तिवाद पनप रहा हो, तो उस आन्दोलन में थोड़ा आदर्शवादी हो जाना, थोड़ा वाम हो जाना ग़लत नहीं है। ऐसी स्थितियों में हमें यही तय करना चाहिए कि हम दसियों वर्षों तक जनता के लिए गुमनाम लेखन करते रहेंगे और हम अपने नामों का हवाला संगठनों में लाइन के गम्भीर सवालों पर होने वाली आन्तरिक बहसों तक ही सीमित रखेंगे (यहाँ नामों का उल्लेख करना मजबूरी हो जाता है)। बहरहाल इतने के बाद भी अगर आप अपनी अवस्थिति पर अड़े रहना चाहते हैं, तो शौक़ से अड़े रहिये, व्यक्तिगत नामों से लेखन करके शोहरत पाते रहिये, परन्तु जो लोग इन संस्कारों के शिकार नहीं होना चाहते, उन्हें इस दलदल में खींचने की कोशिश भी मत कीजिये। हाँ, इस सवाल पर अन्त में यह कह देना ज़रूरी समझते हैं कि कम्युनिज़्म सामूहिकता का दर्शन है, विशिष्ट व्यक्तियों की महानता का नहीं, अत: अगर साथी कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के प्रति गम्भीर हैं तो उन्हें विशिष्ट व्यक्तियों की तुलना में समूह को ज़्यादा तरजीह देना सीखना चाहिए। लेनिन की मशहूर किताब ‘एक क़दम आगे, दो क़दम पीछे’ में एक जगह (प्रगति प्रकाशन, 1985 संस्करण, पृष्ठ 177-78) में लेनिन ने काउत्स्की को उद्धृत किया है। हमारे ख़याल से हमें इसी आदर्श का पालन करना चाहिए। उस लम्बे उद्धरण का एक अंश हम आपके लिए यहाँ दोहरा रहे हैं – ”सर्वहारा एक अलग-थलग व्यक्ति के रूप में कुछ भी नहीं है। उसकी शक्ति, उसकी प्रगति, उसकी आशाओं और आकांक्षाओं का एकमात्र स्रोत संगठन होता है, और केवल अपने साथियों के साथ मिलकर काम करने से ही उसे ये सब चीज़ें मिलती हैं। जब वह एक बड़े और मज़बूत अवयव का भाग होता है तब वह ख़ुद भी अपने को बड़ा और मज़बूत महसूस करता है। अवयव ही उसके लिए मुख्य होता है, इसकी तुलना में अलग-थलग व्यक्ति का महत्व बहुत कम होता है। एक गुमनाम समूह के कण के रूप में सर्वहारा बड़े आत्मत्याग के साथ लड़ता है, उसे व्यक्तिगत लाभ या व्यक्तिगत ख्याति की कोई आशा नहीं होती, उसे जहाँ भी लगा दिया जाता है वह अपना कर्तव्य वहीं पर स्वैच्छिक अनुशासन के साथ पूरा करता है, जो उसकी समस्त भावनाओं और विचारों में कूट-कूटकर भरा होता है।”
बुद्धिजीवी की बात बिल्कुल दूसरी है। उसका निजी ज्ञान, उसकी निजी योग्यता और उसके निजी विश्वास ही बुद्धिजीवी के अस्त्र होते हैं। वह किसी स्थान तक केवल अपने व्यक्तिगत गुणों के सहारे ही पहुँच सकता है। इसलिए इसे लगता है कि अपने कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए पहली शर्त उसके व्यक्तित्व की स्वतन्त्रतम अभिव्यक्ति है। बहुत मुश्क़िल से ही वह एक सम्पूर्ण इकाई का भाग बनने के लिए तैयार होता है और वह भी आवश्यकता से विवश होकर, अपनी इच्छा से नहीं। वह केवल जनसमूह के लिए ही अनुशासन की आवश्यकता स्वीकार करता है, चुनी हुई प्रतिभाओं के लिए नहीं और ज़ाहिर है कि वह अपने को चुनी हुई प्रतिभाओं में गिनता है।
…बुद्धिजीवी का वास्तविक जीवन-दर्शन नीत्शे का दर्शन है जो असाधारण शक्ति रखने वाले मानव की पूजा करता है, जिसके लिए अपने व्यक्तित्व का स्वच्छन्द विकास ही सबकुछ होता है और जो अपने व्यक्तित्व को एक महान सामाजिक उद्देश्य के अधीन बना देना भद्दी ही नहीं बल्कि उतनी ही घृणित बात भी समझता है। और यह जीवन दर्शन बुद्धिजीवी को सर्वहारा के वर्ग-संघर्ष में भाग लेने के सर्वथा अयोग्य बना देता है।
बिगुल के वर्तमान स्वरूप को सही ठहराने के लिए आपने लेनिन से गवाही दिलायी है। हम लेनिन की इज्ज़त करते हैं और लेनिन की जिन बातों का आपने हवाला दिया है, उन्हें भी ठीक मानते हैं। लेकिन हमारा कहना यह है कि आप लेनिन की बातों का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं। अपनी आलोचना के इस हिस्से की शुरुआत हम आपके द्वारा लेनिन के अनुवादित लेख के एक महत्वपूर्ण वाक्य से कहते हैं – ”जो अख़बार सभी रूसी सामाजिक-जनवादियों (कम्युनिस्टों) का मुखपत्र बनना चाहता है। उसे इन अग्रणी मज़दूरों के स्तर का ही होना चाहिए, उसे न केवल कृत्रिम ढंग से अपना स्तर नीचा करना नहीं चाहिए, बल्कि उल्टे उसे विश्व सामाजिक जनवाद (यानी विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन) के सभी रणकौशलात्मक, राजनीतिक और सैद्धान्तिक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए।” हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि लेनिन की यह बात तो अपनी जगह ठीक है ही पर क्या आप बिगुल को भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों (या उनके एक ग्रुप) का मुखपत्र मानते हैं? यदि आप इस सवाल का जवाब हाँ में देते हैं, तो हमारा कहना है कि तब किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह कहे कि बिगुल का स्तर उसके पाठकों से बहुत ऊँचा है, क्योंकि बिगुल में ऐसी कोई बात ही नहीं लिखी जाती जो भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को समझ में न आये। तब हमारा यह कहना है कि यह निहायत कमज़ोर और निम्न स्तर का मुखपत्र है। यह भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को कुछ सार्थक देता ही नहीं है। देश के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन की चेतना का विकास करने में इसकी कोई भूमिका नहीं है। इस मायने में यह काग़ज़ और स्याही की बरबादी है।
यदि आप ऊपर उठाये गये सवाल का जवाब ”नहीं” में देते हैं और स्वीकार करते हैं कि बिगुल मज़दूर वर्ग का एक आम अख़बार (Mass Politial Paper) है, तब हम आपसे पहली बात यह कहेंगे कि आप लेनिन की बातों का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं। आप लेनिन की बातों का दो तरह से ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं। एक यह कि लेनिन की बातें सामाजिक-जनवादियों के मुखपत्र (इस्क्रा जैसे अख़बारों) के लिए है। मज़दूर वर्ग के एक आम अख़बार, ”प्रावदा” जैसे अख़बार पर ये बातें लागू नहीं होती हैं। मज़दूर वर्ग के एक आम अख़बार (जिसे मज़दूर वर्ग को क्रान्तिकारी चेतना से लैस करना है) में वैज्ञानिक समाजवादी दृष्टिकोण से शोषण के वर्गीय स्वरूप, राजसत्ता की वर्गीय पक्षधरता, देश-समाज की घटनाओं का वर्गीय विश्लेषण होना चाहिए। यह भण्डाफोड़ लेखों (Exposure Articles) से भरा हुआ होना चाहिए। इस मामले में भी लेनिन हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। 1901 में लेनिन द्वारा लिखे गये लेख ”मारो – मगर मृत्यु तक नहीं” या ”वस्तुगत आँकड़े” या ”फ़ैक्टरी न्यायालय” या फिर 1895 में लिखा गया लेख ”फ़ैक्टरी मज़दूरों पर जुर्माना लागू करने के क़ानून की व्याख्या” उल्लेखनीय है। लब्बे लुवाब यह कि जब बिगुल कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का मुखपत्र नहीं है और वह मज़दूर वर्ग के लिए (समाजवाद को समर्पित) एक आम अख़बार है तो उसके लेख ऐसे होने चाहिए जो मज़दूरों के एक बड़े घेरे के लिए बोधगम्य हों। हम यहाँ आपसे यह माँग नहीं कर रहे हैं कि बिगुल निम्न चेतना वाले हर मज़दूर को पूरा का पूरा समझ में आना चाहिए। हम यहाँ यह अर्ज़ कर रहे हैं कि बिगुल की अधिकांश सामग्री औसत चेतना (या औसत चेतना से ऊपर) वाले मज़दूरों के लिए दिलचस्प पर बोधगम्य होनी चाहिए। चूँकि बिगुल का मौजूदा स्वरूप ऐसा भी नहीं है इसलिए बिगुल के पाठकों को बिगुल की आलोचना करने का पूरा अधिकार है।
लेनिन की बातों का ग़लत इस्तेमाल आप इस तरह से भी कर रहे हैं कि आप 1899 के रूसी मज़दूर आन्दोलन की ज़रूरतों और 1999 के हिन्दुस्तानी मज़दूर आन्दोलन की ज़रूरतों में कोई अन्तर नहीं कर रहे हैं। दोनों स्थितियाँ एक-दूसरे से नितान्त अलग-अलग हैं। इसी कारण से मज़दूर आन्दोलन की व्यावहारिक ज़रूरतें भी बिल्कुल अलग-अलग हैं। 1899 में रूसी मज़दूर आन्दोलन आगे बढ़ रहा था। उन दिनों रूस में मज़दूरों के स्वत:स्फूर्त आन्दोलन और समाजवादी आन्दोलन का एक-दूसरे में संगम हो रहा था – मज़दूरों में समाजवाद की बातों को लेकर एक भारी उत्साह तथा आकर्षण था (यह बात ”रूसी सामाजिक जनवाद में एक प्रतिगामी प्रवृत्ति” को पूरा पढ़ने पर भी स्पष्ट हो जाती है)। उन दिनों मज़दूर आन्दोलन इतना ऊपर उठ चुका था कि 1903 की ब्रसेल्स कान्फ़्रेंस के 43 प्रतिनिधियों में से 3 प्रतिनिधि मज़दूर थे। इसी एक तथ्य से अन्दाज़ा लगता है कि पूरे रूस के सामाजिक जनवादियों में मज़दूर किस भारी गिनती में रहे होंगे। ऐसी स्थिति में समाजवाद के सीधे-सीधे प्रचार की गुंजाइश बहुत बढ़ जाती है, क्योंकि मज़दूर आन्दोलन में समाजवादी बातों की ग्राह्यता (Receptivity) बहुत अधिक होती है। लेकिन 1999 में भारत के मज़दूर आन्दोलन की स्थिति बिल्कुल उल्टी है, आज भारत का मज़दूर आन्दोलन आगे नहीं बढ़ रहा है बल्कि पीछे हट रहा है। आज समाज में और मज़दूर आन्दोलन में समाजवाद के प्रति आकर्षण नहीं पैदा हो रहा है, बल्कि उल्टे समाजवाद विरोधी प्रतिक्रियावादी विचारों का माहौल है। आज देश की सबसे बड़ी मज़दूर यूनियनों के झण्डों का रंग लाल नहीं केसरिया हुआ पड़ा है। ऐसी स्थिति में हमें अपनी ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करना पड़ेगा और भारत के मज़दूर आन्दोलन के वर्तमान हालात के अनुरूप अपना प्रचार एवं अन्य कार्रवाइयाँ करनी होंगी। हम जड़सूत्रवादियों की तरह 1899-1905 के दौर की व्यावहारिक बातें (उसूली बातें नहीं) दोहराते नहीं रह सकते। अगर हम सफल होना चाहते हैं तो हमें स्थान-काल के भेद का ख़याल रखना होगा। स्थान-काल भेद के सम्बन्ध में लेनिन 1905 में रूसी आन्दोलन के अनुभव लिखते हैं (नये काम और नयी शक्तियाँ, जनता के बीच पार्टी का काम, इण्डिया पब्लिशर्स, 1982, पृष्ठ संख्या 23) – ”आन्दोलन की प्रारम्भिक अवस्थाओं में सामाजिक जनवादियों को बहुत सा ऐसा काम करना पड़ता था जो एक प्रकार से सांस्कृतिक कार्य होता था, अथवा उन्हें लगभग केवल आर्थिक आन्दोलन में ही जुटे रहना पड़ता था। अब एक के बाद एक ये ज़िम्मेदारियाँ नयी शक्तियों के हाथों में, उन व्यापक हिस्सों के हाथों में पहुँचती जा रही हैं जो अधिकाधिक मात्रा में आन्दोलन में शामिल हो रहे हैं। इसलिए, क्रान्तिकारी संगठनों ने वास्तविक राजनीतिक नेतृत्व के कार्य को पूरा करने की दिशा में, मज़दूरों तथा आम जनता के विरोध आन्दोलनों से सामाजिक जनवादी नतीजे निकालने की दिशा में, अधिकाधिक ध्यान केन्द्रित करना शुरू किया है। शुरू-शुरू में मज़दूरों को शाब्दिक और लाक्षणिक दोनों ही अर्थों में हमें एकदम ककहरा सिखलाना पड़ता था। अब राजनीतिक साक्षरता का स्तर विराट रूप से इतना ऊँचा हो गया है कि अपनी कोशिशों को पूरी तौर से अब हम अधिक प्रत्यक्ष उन सामाजिक-जनवादी लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में लगा सकते हैं, जिनका उद्देश्य क्रान्तिकारी धारा को एक संगठित दिशा में ले जाना है।” स्थान-काल को अनदेखा करके भी आप लेनिन की बातों का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं।
लेनिन की बातों का ग़लत इस्तेमाल करते हुए आप ऐसे पाठक को तो झाँसा दे सकते हैं जो एकाग्रता से न पढ़ता हो, जो दो पैरा पहले पढ़ी हुई बातें भूल जाता हो, और जिसके दिमाग़ में उन बातों की केवल एक धुँधली सी तस्वीर ही बची रहती हो। परन्तु आप मेहनत करने वाले चौकन्ने पाठक को झाँसा नहीं दे सकते। आप भी औसत संस्तर के मज़दूर की बात करते हैं, और लेनिन भी इस श्रेणी की बात करते हैं। लेनिन और आपमें फ़र्क़ यह है कि लेनिन स्पष्टत: इन औसत मज़दूरों की चेतना को परिभाषित करते हैं। लेकिन आप 1999 के भारत के औसत मज़दूरों की चेतना को परिभाषित नहीं करते। यहाँ आप सीधे-सीधे चालबाज़ी कर रहे हैं। आप पाठक को यह झाँसा देना चाहते हैं कि लेनिन ने औसत के लिए जो किया, ‘बिगुल’ औसत के लिए वही कर रहा है। लेनिन वस्तुनिष्ठता (objectivity) में विश्वास रखते थे। अगर आप भी वस्तुनिष्ठ होते और 1999 के औसत मज़दूर को परिभाषित करने की जहमत उठाते तो पाठकों के लिए स्थान-काल का भेद एकदम साफ़ हो जाता और उन्हें साफ़ दिखायी देने लगता कि बिगुल ज़माने की ज़रूरतों के हिसाब से क़तई नहीं लिख रहा है। आपके ही द्वारा अनुवादित लेख में 1899 के औसत स्तर के मज़दूर की चेतना की जो वस्तुनिष्ठ तस्वीर लेनिन पेश करते हैं उनके हिसाब से वे ऐसे लोग हैं जो समाजवादी की उत्कट इच्छा रखते हैं, मज़दूर अध्ययन मण्डलों में भाग लेते हैं, समाजवादी अख़बार और किताबें पढ़ते हैं, आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में भाग लेते हैं, और उपरोक्त संस्तर से (उन्नत चेतना वाले संस्तर से)सिर्फ़ इसी बात में अलग होते हैं कि वे सामाजिक जनवादी मज़दूर आन्दोलन के पूरी तरह स्वतन्त्र नेता नहीं बन सकते।जिस अख़बार को पार्टी का मुखपत्र होना है, उसके कुछ लेखों को औसत मज़दूर नहीं समझ पायेगा। जटिल सैद्धान्तिक या व्यावहारिक समस्या को, पूरी तरह समझ पाने में वह सक्षम नहीं होगा।” अब 1899 के रूस के इस औसत की तुलना आज 1999 के भारत के औसत से ज़रा करके बताइये – 1999 का औसत मज़दूर अध्ययन मण्डलों में भाग लेना, समाजवादी अख़बारों और किताबें पढ़ना, प्रचार-कार्य में भाग लेना इत्यादि तो बहुत दूर की बात है, 1999 के भारत का औसत मज़दूर बामुश्क़िल एक आम हड़ताली की चेतना रखता है। वह 1899 के निम्न स्तर के रूसी मज़दूर की चेतना के आस-पास खड़ा है और किन्हीं मामलों में उनसे भी पिछड़ा हुआ है। ऐसी चेतना के मज़दूरों के लिए क्या किया जाना चाहिए? इनके लिए लेनिन उसी लेख में लिखते हैं – ”बहुत मुमकिन है कि एक समाजवादी अख़बार पूरी तरह या तक़रीबन पूरी तरह उनकी समझ से परे हो ऐसे संस्तरों पर राजनीतिक प्रचार और आन्दोलनात्मक प्रचार के दूसरे साधनों से प्रभाव डालना चाहिए – अधिक लोकप्रिय भाषा में लिखी गयी पुस्तिकाओं, मौखिक प्रचार तथा मुख्यत: स्थानीय घटनाओं पर तैयार किये गये पर्चों द्वारा। सामाजिक जनवादियों को यहीं तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बहुत सम्भव है कि मज़दूरों के निम्नतर संस्तरों की चेतना जगाने के पहले क़दम क़ानूनी शैक्षिक गतिविधियों के रूप में अंजाम दिये जायें। अपने सम्पादकीय में आपने ‘चना ज़ोर गरम’ कहकर कई नेकनीयत और देशकाल के हिसाब से प्रचार करने वालों की खिल्ली उड़ाई है। हमारा कहना है कि ‘चना ज़ोर गरम’ शैली से तो शायद वे देश के मज़दूर आन्दोलन के स्तर को ऊपर उठाने में कोई सार्थक भूमिका अदा कर लें, परन्तु आपकी कन्फ्यूशियसवादी शैली से तो अनर्थ ही होगा।
मज़दूर आन्दोलन की ठोस परिस्थितियों का सही विश्लेषण न करने की वजह से आपका आन्दोलन की ज़रूरतों के बारे में बोध ही ग़लत है। आप मज़दूर आन्दोलन की वर्तमान कमज़ोर स्थिति, आन्दोलन के भीतर राजनीतिक चेतना की गिरावट का ठीक-ठीक अन्दाज़ा ही नहीं लगा पा रहे हैं। ऐसे में होता यह है कि आप अपने अख़बार के माध्यम से मज़दूर आन्दोलन पर ऐसी बहुत सारी सामग्री लादने की कोशिश करते रहते हैं जो आन्दोलन की आवश्यकताओं से मेल नहीं खाती हैं। नतीजा यह निकलता है कि ढेर सारे नेकनीयत लोग आप से इसकी शिक़ायत करते हैं, परन्तु अपने को सही ठहराने के चक्कर में आप उनके ऊपर अपने तर्कों का जाल तथा लेनिन-स्तालिन की किताबों की गदा लेकर टूट पड़ते हैं। दोस्तो, बेहतर होगा कि अगर बिगुल का प्रचार जीवन से मेल नहीं खा रहा है तो ज़िन्दगी को कुचलने की कोशिश करने के बजाय प्रचार के सम्बन्ध में अपनी सोच ठीक की जाये। दोस्तो, आज हालात यह है कि कुछ जगह पर मज़दूरों की एकता इतनी कमज़ोर हुई पड़ी है, उनकी वर्गीय चेतना इतनी भोथरी हो चुकी है कि मालिक उन्हें मई दिवस की बेहद सामान्य सभाएँ भी नहीं करने दे रहे हैं। ये वही जगहें हैं जहाँ अतीत में शानदार मज़दूर संघर्ष लड़े गये हैं। अगर हम इस यथार्थ को नहीं स्वीकारेंगे, तो हमारे प्रचार एवं हमारी अन्य जनकार्रवाइयाँ हिरावलवादी (Vanguardist) होंगी। बिगुल के साथ ऐसा ही हो रहा है। यह जनदिशा (Massline) का निषेध है। हिरावलवाद और जनदिशा के निषेध के सम्बन्ध में हम यहाँ आपके लिए माओ को दोहरा दे रहे हैं – ”जन समुदाय के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हमें जन समुदाय की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुसार काम करना चाहिए। जन समुदाय के लिए किये जाने वाले तमाम कार्यों का आरम्भ उसकी आवश्यकताओं के आधार पर होना चाहिए न कि किसी व्यक्ति की सदिच्छाओं के आधार पर। ऐसा अक्सर देखने में आता है कि वस्तुगत रूप में तो जन समुदाय के लिए किसी परिवर्तन की आवश्यकता है, लेकिन मनोगत रूप से वह इस आवश्यकता के प्रति अधिक जागरूक नहीं हो पाया, इस परिवर्तन को करने के लिए अभी तैयार अथवा संकल्पबद्ध नहीं हो पाया। ऐसी स्थिति में हमें धीरज के साथ इन्तज़ार करना चाहिए। हमें यह परिवर्तन तब तक नहीं लाना चाहिए जब तक हमारे कार्य के ज़रिये जन समुदाय का अधिकांश भाग उक्त आवश्यकताओं के प्रति जागरूक न हो जाये तथा वह उसे कार्यान्वित करने के लिए तैयार और संकल्पबद्ध न हो जाये। अन्यथा हम जन समुदाय से अलग हो जायेंगे। जब तक जन समुदाय जागरूक और तैयार नहीं हो जाता तब तक कोई ऐसा काम जिसमें उसके शामिल होने की ज़रूरत है, महज़ एक ख़ानापूरी के समान होगा तथा वह असफल हो जायेगा। …यहाँ दो उसूल हैं : पहला उसूल है जन समुदाय की वास्तविक आवश्यकताओं को देखना न कि कल्पना के आधार पर उसकी आवश्यकताओं का निर्णय कर देना। और दूसरा उसूल है जन समुदाय की आकांक्षा। जन समुदाय को अपना संकल्प ख़ुद ही करना चाहिए, बजाय इसके कि हम उस पर अपना संकल्प लाद दें।” (माओ, ”सांस्कृतिक कार्य में संयुक्त मोर्चा”, संकलित रचनाएँ (अंग्रेज़ी संस्करण), ग्रन्थ 3, पृष्ठ 236-237)।
अपने सम्पादकीय में आपने इस तथ्य को रखा है कि बिगुल की 75 प्रतिशत से ज़्यादा बिक्री मज़दूरों के बीच हो रही है। इस तथ्य पर हम अभी प्रश्न चिह्न नहीं लगा रहे हैं। इसे हम जस का तस लेकर यह कह रहे हैं कि यह किसी भी मज़दूर अख़बार के लिए अच्छी बात है। लेकिन तब भी इसकी बधाई हम बिगुल के सम्पादक और लेखकों को देने के बजाय, यह बधाई हम बिगुल के वितरकों को देना पसन्द करेंगे। हमारा मानना है कि यह वितरक साथियों की मेहनत-मशक्कत की बदौलत हो रहा है, बिगुल के लेखों की अन्तर्वस्तु की बदौलत नहीं।
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,
आपका साथी
पी.पी. आर्य
(05-06-99)
बिगुल, जून-जुलाई 1999
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन