इतने ही लाल… और इतने ही अन्तरराष्ट्रीय की आज ज़रूरत है

सम्पादक, बिगुल का आत्‍माराम को जवाब

आत्‍माराम का पत्र जिसके जवाब में ये लेख है, उस इस लिंक से पढ़ें 

प्रिय साथी आत्माराम जी, बिगुल के ”गहरे लाल रंग” से आपकी आँखों को पीड़ा पहुँची और इसके ”ज्‍़यादा ” और ”महज़” अन्तरराष्ट्रीयवादी चरित्र की गन्ध से आपके नथुने सिकुड़ गये। हमें अफ़सोस हुआ! पर हम आपकी शिक़ायत का सबब नहीं जान पाये। माफ़ कीजियेगा! ”इतना गहरा लाल रंग!” आपके ख़याल से इसे कितना हल्का कर दिया जाये? कहीं आप इसे भगवा के क़रीब तो नहीं ले जाना चाहते हैं? हमें अभी पिछले ही दिनों पता चला कि आपके बम्बई में कुछ लोग ऐसा कर रहे हैं। वे भाजपा-शिवसेना को राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधि मानते हैं और साम्राज्यवाद की दलाल कांग्रेस से लड़कर राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति करने के लिए उनके साथ मोर्चा बनाने का ‘कॉल’ दे रहे हैं। उनके सिद्धान्तकार महोदय बाल ठाकरे के अख़बार ‘सामना’ में कॉलम लिखकर ”मा-ले वादियों” को पानी पी-पीकर कोसते रहते हैं और मज़दूर वर्ग को संगठित करने के बजाय भारत के छोटे उद्योगपतियों के संकट से परेशान करवटें बदलते रहते हैं!

साथी, मज़दूरों के सच्चे हरावलों को गहरे लाल रंग से न डरना चाहिए न ही बिदकना चाहिए।

आपके ख़याल से मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद से वफ़ादारी दिखाने का मतलब है भारत के मज़दूर-किसानों से कुछ भी लेना-देना न होना। या यूँ कहें कि मज़दूर-किसानों से यदि कुछ लेना-देना है तो मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद से बेवफ़ाई करनी होगी। आपका यह विलोमानुपाती नियम गले के नीचे उतारना शायद नये नुस्‍ख़ों-नियमों के भूखे किसी प्रोफ़ेसर या अहमक के लिए ही मुमकिन होगा। भारत के मज़दूर-किसानों के प्रति वफ़ादारी का तकाज़ा है कि सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान – मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद के प्रति वफ़ादार रहा जाये। ख़ुद आपकी ही नसीहत है कि ‘नयी समाजवादी क्रान्ति की ज्वाला भड़काने’ (उद्धरण चिह्नों के द्वारा हमारे ”अतिउत्साह” पर व्यंग्य करने की कोशिश की है आपने शायद!) के लिए ”एक सही पार्टी चाहिए और उस पार्टी के नेतृत्व में मज़दूर-किसानों का संगठन होना चाहिए।” मगर जनाब, मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद का ककहरा जानने वाला भी जानता है कि एक सही पार्टी-निर्माण और गठन की दिशा में आगे बढ़ते हुए सर्वोपरि प्रश्न विचारधारा का है। सी.पी.आई.-सी.पी.एम. के संशोधनवाद के दौर ने और उनके अब तक के आचरण ने, वामपन्थी दुस्साहसवादी भटकाव के चलते मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी शिविर के बिखराव ने, देङ सियाओ-पिङ के बाज़ार-समाजवाद ने, रूस और पूर्वी यूरोप में संशोधनवादियों की सत्ता के पतन और नवक्लासिकी पश्चिमी ढंग के खुले पूँजीवाद के आगमन की परिस्थितियों ने और भाँति-भाँति के नववामपन्थियों तथा पश्चिमी कलमघसीटों ने अलग-अलग ढंग से सर्वहारा क्रान्ति की विचारधारा पर जितना धूल और राख फेंका है और व्यापक मज़दूर अवाम को जिस हद तक उसकी विचारधारा से दूर किया है, उसे देखते हुए, हम समझते हैं कि मज़दूर वर्ग के बीच (और किसानों एवं प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समुदाय के बीच भी) मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद की विचारधारा का, विश्व सर्वहारा क्रान्तियों की विस्मृत उपलब्धियों का और राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय वर्ग संघर्षों के भुला दिये गये अनुभवों का व्यापक और घनीभूत प्रचार आज एक सर्वभारतीय पार्टी के पुनर्गठन के उद्यम का एक बुनियादी और अनिवार्यत: महत्वपूर्ण पहलू है। दक्षिणपन्थी और ”वामपन्थी” अवसरवाद से सही मार्क्‍सवाद को अलगाना और क्रान्ति के सच्चे मार्गदर्शक सिद्धान्त से व्यापक मेहनतकश अवाम को परिचित कराना आज का सबसे पहला काम है। ज़ाहिरा तौर पर, यह प्रचार महज़ अख़बार निकालकर और भाषण देकर नहीं हो सकता। इस अख़बार की प्रासंगिकता ही उन व्यावहारिक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के लिए है जो मज़दूरों के बीच काम करते हैं, उनके रोज़मर्रा की लड़ाइयों – आर्थिक संघर्षों और राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्षों में हिस्सा लेते हैं, उनके जन-संगठनों में काम करते हैं। कुछ वाम-नाम बुद्धिजीवियों की धारणा है कि एक सही पार्टी बनाने के लिए सिद्धान्त और विचारधारा पर, ”लाल” और ”अन्तरराष्ट्रीय” भाषा में बहस तो सिर्फ़ क्रान्तिकारी ग्रुपों के नेतृत्वों के बीच और मार्क्‍सवादी बुद्धिजीवियों के बीच होनी चाहिए और अनपढ़-गँवार मज़दूरों के लिए तो सिर्फ़ उनके आर्थिक संघर्षों और जीवन के हालात की रिपोर्टिंग वाले ‘ट्रेडयूनियन मुखपत्र’ निकाले जाने चाहिए। यह एक कूपमण्डूकतापूर्ण, किताबी निठल्ले मार्क्‍सवादी की या एक मेंशेविक की ही धारणा हो सकती है। पार्टी-निर्माण और गठन के लिए मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी विचारधारा के प्रचार और इसके लिए एक मज़दूर अख़बार की ज़रूरत, प्रकृति एवं दायित्व के बारे में लेनिन ने मेंशेविकों के साथ बहस करते हुए काफ़ी साफ़-साफ़ लिखा है। आप जैसे सुधी व्यक्ति को भला मैं कैसे यह राय दूँ कि उसे भी ज़रा पढ़ लें! या हो सकता है आपके लेखे वह सबकुछ आज ‘आउटडेटेड’ हो चुका हो!

अन्तरराष्ट्रीयतावादी होने से न जाने क्यों आपको इतना ग़ुस्सा आता है? ”महज़” जोड़ने से आपका क्या मतलब है? क्या ‘बिगुल’ के तीनों अंकों की सामग्री ”महज़ अन्तरराष्ट्रीयतावादी” है? न जाने आप अन्तरराष्ट्रीयतावाद से क्या समझते हैं? सच तो यह है कि सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद और मज़दूर आन्दोलन में अन्धराष्ट्रवादी भटकावों पर अभी तक हम एक भी लेख नहीं दे पाये जिसका हमें अफ़सोस है। जहाँ तमाम वाम बुद्धिजीवियों की आत्मा डॉ. राम विलास शर्मा की तरह भारत-व्याकुल और अतीत-व्याकुल हो रही हो; जहाँ बहुतेरे मा-ले संगठन मज़दूर वर्ग से (और किसानों से भी) अधिक (बल्कि उसे छोड़कर) राष्ट्रीयता की मुक्ति के बारे में चिन्तित हों (और यहाँ तक कि कुछ तो सिर्फ़ केरल या तमिलनाडु में ही जनवादी क्रान्ति का टास्क तय कर चुके हों!); जहाँ कुछ नामधारी मार्क्‍सवादी क्रान्तिकारी क्रान्ति के मुख्य नेतृत्वकारी वर्ग – सर्वहारा वर्ग को संगठित करने की समस्याओं पर रत्तीभर सोचे या प्रयास किये बिना क्रान्ति के ”मित्र” राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग की तलाश में इतने पगला गये हों कि भाई भरत की तरह भाजपा-शिवसेना की खड़ाऊँ पूजने लगे हों; उस देशकाल में हम तो समझते हैं कि सर्वहारा वर्ग को उसके अन्तरराष्ट्रीयतावादी चरित्र और कार्यभार से परिचित कराना बहुत ज़रूरी है।

मज़दूर क्रान्ति के चरित्र और कार्यभार बताने के लिए छापे गये लेनिन की पुस्तिका के अंश, मई दिवस पर दी गयी सामग्री या जन्मदिन के अवसर पर गोर्की पर छापे गये लेख, पेरू और बोलीविया में संघर्ष की रिपोर्ट या माओ-लेनिन के उद्धरणों से आपको ‘बिगुल’ कुछ ज्‍़यादा ही अन्तरराष्ट्रीय लगने लगा (वैसे ऐसी सामग्री कुल छपी सामग्री के एक चौथाई से भी कम है, तीन चौथाई सामग्री देश की राजनीति और गाँवों-शहरों की मेहनतकश आबादी की ज़िन्दगी जैसे विषयों पर ही केन्द्रित है)! मार्क्‍स, लेनिन, माओ के विचारधारात्मक महत्‍व के लेखों-उद्धरणों को राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय की श्रेणी में बाँटना मूर्खता ही कहलायेगी। दूसरे देशों के मज़दूर आन्दोलनों-संघर्षों पर रपट और मार्क्‍स-लेनिन-माओ के लेखों के बीच फ़र्क़ करना होगा। ”देसीपन” के ऐसे ही कुछ दुराग्रहियों को आज मार्क्‍स-लेनिन के विचार ”यूरोसेण्ट्रिक” लगने लगे हैं। (उनके ख़याल से बुद्ध के विचार भी ‘इण्डोसेण्ट्रिक और माओ के ‘साइनोसेण्ट्रिक’ हों शायद!)

आपने याद दिलाया है कि ”हमारा ज्‍़यादातर मज़दूर-किसान अभी उतना अन्तरराष्ट्रीय नहीं हुआ है।” बिल्कुल सही बात है। अगर हो गया होता तब तो अन्तरराष्ट्रीयतावाद के प्रचार की कोई ज़रूरत नहीं होती। ”उतना अन्तरराष्ट्रीय” नहीं है, तभी तो उसके ”राष्ट्रवादी” भ्रान्तियों-पूर्वाग्रहों से लड़ने की और सर्वहारा वर्ग एवं सर्वहारा क्रान्ति के अन्तरराष्ट्रीयतवादी चरित्र और कार्यभार के ज्‍़यादा से ज्‍़यादा  प्रचार की ज़रूरत है!

‘बिगुल’ का गहरा लाल रंग यदि आपको (चाहे व्यंग्य करने के लिए ही सही!) 1905 से 1917 की रूसी क्रान्ति की याद दिलाता है, तो यह गर्व की बात है हमारे लिए। मगर हमारे इस उद्यम में आपको ”लाल-लाल दिखावा” लगता है तो हम कुछ नहीं कर सकते। हाँ, बिना किसी लाल-लाल दिखावे के आप मज़दूर वर्ग के बीच प्रचार और संगठन की जो भी कार्रवाइयाँ कर रहे हों, उनके अनुभवों से हमें तथा ‘बिगुल’ के पाठकों को अवश्य शिक्षित कीजियेगा। बिना अन्तरराष्ट्रीय और लाल-लाल दिखावे के आप भारतीय जनता को लामबन्द करने के लिए अपने एक-एक लफ़्ज़ का इस्तेमाल कैसे कर रहे हैं और एक सही पार्टी-निर्माण के लिए क्या कुछ कर रहे हैं, अवश्य सूचित कीजियेगा। ‘बिगुल’ पर हम जो ‘द्रव्य और श्रम’ व्यर्थ ख़र्च कर रहे हैं, उसकी चिन्ता के लिए धन्यवाद! सिर्फ़ यह बता देना चाहते हैं कि

(1) गाँवों-शहरों के मज़दूरों के बीच यह सांगठनिक-राजनीतिक कार्यों के एक औज़ार के रूप में निकाला जा रहा है,

(2) इसका वितरण औद्योगिक मज़दूरों के अतिरिक्त खेत मज़दूरों और ग़रीब किसानों में भी होता है,

(3) ‘बिगुल’ लेकर मज़दूरों के बीच जाने वाले साथियों और टोलियों को उनसे सकारात्मक प्रतिक्रिया और ठोस सुझाव बड़े पैमाने पर मिल रहे हैं और,

(4) तीन अंकों में इसकी प्रसार संख्या तीन गुनी हो गयी है।

बेहतर तो यह होता कि ‘बिगुल’ के पीछे निहित जो बोध और धारणा हमने प्रवेशांक के विशेष सम्पादकीय (‘एक नये क्रान्तिकारी मज़दूर अख़बार की ज़रूरत’) में दिया है; और ‘बिगुल’ के जो उद्देश्य घोषित किये हैं, आप सामान्य नसीहतें देने और झाड़ पिलाने के बजाय उसकी आलोचना प्रस्तुत करते और हमारी सोच के भटकावों को रेखांकित करते। आशा है, आप आगे ऐसा करेंगे और हमारी बहस जारी रहेगी।

 

बिगुल, जुलाई-अगस्त 1996


 

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