एक नये क्रान्तिकारी मज़दूर अख़बार की ज़रूरत
विशेष सम्पादकीय
आज एक नये क्रान्तिकारी मज़दूर अख़बार की ज़रूरत है। बेहद, बुनियादी और फौरी ज़रूरत है। बल्कि इस मामले में पहले ही देर हो चुकी है।
बेहतर तो यह होता कि यह अखिल भारतीय पैमाने का, कम से कम साप्ताहिक, अख़बार होता जो सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में एक साथ छपता। मगर आज यह सम्भव नहीं है। देश के अधिकांश या कम कम से कम कुछ क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुपों, संगठनों की संयुक्त शक्ति के बूते पर ही इसे सम्भव बनाया जा सकता है। अभी यह सम्भव नहीं है, क्योंकि क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के बीच तमाम उसूली और अमली मतभेद मौजूद हैं। इसलिए फिलहाल एक मासिक बुलेटिन से हम शुरुआत कर रहे हैं। इसे आगे हर पखवाड़े और फिर हर हफ़्ते निकालने की कोशिश की जायेगी।
•
हम एक ऐतिहासिक तूफ़ानी दौर की चौखट पर खड़े हैं!
(1966-1976) के दौरान माओ त्से-तुङ ने कहा था, ”अब से लेकर अगले पचास से सौ वर्षों तक का युग एक ऐसा महान युग होगा जिसमें दुनिया की सामाजिक व्यवस्था बुनियादी तौर पर बदल जायेगी। वह एक ऐसा भूकम्पकारी युग होगा जिसकी तुलना इतिहास के पिछले किसी भी युग से नहीं की जा सकेगी। एक ऐसे युग में रहते हुए, हमें उन महान संघर्षों में जूझने के लिए तैयार रहना चाहिए जो अपनी विशिष्ट चिन्ताओं में अतीत के तमाम संघर्षों से कई मायने में भिन्न होंगे।”
पूरी दुनिया और अपने देश के हालात को अच्छी तरह देखने-परखने के बाद, हमारा मानना है कि हम एक उथल-पुथल भरे, ज़बरदस्त आँधियों-तूफ़ानों से भरे क्रान्तिकारी बदलाव के ऐतिहासिक दौर की दहलीज पर खड़े हैं। यह तूफ़ान के पहले की शान्ति है, घुटन और उमस से भरी हुई। यह टूटने ही वाली है। हम जिस नये ऐतिहासिक संक्रान्ति काल में प्रवेश करने वाले हैं, उसकी पूरे मन से, पूरी ताक़त से, पूरी लगन से तैयारी ज़रूरी है। क्रान्तिकारी संकट के भावी समय में मेहनतकश अवाम के असन्तोष और ग़ुस्से के विस्फोट थोड़े-थोड़े समय के अन्तर से लगातार होते रहेंगे। यदि सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता – उसकी क्रान्तिकारी पार्टी गठित हो जायेगी, मज़बूत हो जायेगी और तैयारी रहेगी, यदि मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश अवाम के बीच लगातार राजनीतिक प्रचार, संगठन और आन्दोलन का काम करते हुए वह ख़ुद को और आम मेहनतकश आबादी को चाक-चौबन्द रखेगी; तभी आगे क्रान्तिकारी संकट के किसी विस्फोट को क्रान्ति में बदला जा सकेगा या फिर योजनाबद्ध व्यवस्थित तैयारी के बाद वर्तमान पूँजीवादी निजाम का क्रान्ति के द्वारा नाश किया जा सकेगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो ”ऐतिहासिक मोड़ हमें बिना तैयारी की हालत में आ दबोचेंगे” और हम चूक जायेंगे।
हालाँकि आज लेनिन और माओ के देश में भी सर्वहारा वर्ग की सत्ता क़ायम नहीं है और पूँजीवाद फिर से बहाल हो गया है। पर यह क्रान्ति की अन्तिम हार नहीं है। इतिहास में पहले भी ऐसा हुआ है कि पुराने वर्ग पर फैसलाकुन जीत से पहले नया वर्ग कई बार हारा है। मज़दूर वर्ग की लड़ाई तो वैसे भी काफ़ी कठिन है क्योंकि उसे चार हज़ार वर्षों से भी अधिक पुरानी निजी सम्पत्ति की व्यवस्था की हर निशानी को मिटाकर, समाजवादी बदलाव के लम्बे रास्ते से होकर वर्गविहीन, शोषणमुक्त समाज तक जाना है।
हालात बताते हैं कि साम्राज्यवाद और पूँजीवाद को आख़िरी तौर पर क़ब्र में सुलाने वाली नयी समाजवादी क्रान्तियों का जन्म होना ही है। फिलहाल वे संकटपूर्ण हालात की कोख में पल-बढ़ रही हैं। अमेरिका और यूरोप के धनी देशों तक में पूँजीवाद की बीमारियाँ लाइलाज हो चुकी हैं, भारत और एशिया-अफ़्रीका-लैटिन अमेरिका के ग़रीब और पिछड़े पूँजीवादी देशों की तो बात ही क्या है!
विश्व पूँजीवाद को इसकी लाइलाज बीमारियों से सिर्फ़ मौत ही निजात दिला सकती है!
बात न सिर्फ़ इतनी है कि पूँजीवाद का अब तक का इतिहास ग़रीबों-मज़लूमों, किसानों-मज़दूरों की लूट और तबाही का, विनाश और बरबादी का, मारकाट और युद्धों का सिलसिलेवार लेखाजोखा है। बात न सिर्फ़ इतनी है कि पूँजीवादी विकास की गाड़ी बिना धनी-ग़रीब की खाई को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाये, बिना मेहनतकशों को निचोड़े, और बिना लुटेरे पूँजीपतियों की गलाकाटू आपसी होड़ और युद्ध के आगे बढ़ ही नहीं सकती। पूँजीवाद के रास्ते ख़ुशहाली का अर्थ ही है, कमेरों की भारी आबादी की लूट और बदहाली की क़ीमत पर मुट्ठी भर लुटेरों की ख़ुशहाली। इन सच्चाइयों को तो पूँजीवाद के लगभग दो सौ वर्षों के इतिहास ने सिद्ध कर ही दिया है। बीसवीं सदी पूँजीवाद के विकास की चरम अवस्था की सदी – साम्राज्यवाद की सदी रही है जिसने अब यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व पूँजीवाद अब इन्सानियत को कुछ भी अच्छा नहीं दे सकता, और यह भी कि, यह अपने ख़ुद के संकटों से लाख कोशिशों के बावजूद मुक्ति नहीं पा सकता, थोड़ी देर के लिए राहत भले ही पा ले।
पूँजीपति और पूँजीवादी भूस्वामी अपने कारख़ानों और फार्मों में चीज़ें इसलिए नहीं पैदा करते कि समाज उनका उपयोग करे। वे चीज़ें मुनाफ़ा कमाने के लिए, बेचने के लिए, बाज़ार के लिए पैदा करते हैं। उनका एक ही मन्त्र है – ‘सस्ता से सस्ता ख़रीदो, महँगा से महँगा बेचो।’ उनकी एकमात्र चिन्ता यह होती है कि उनकी पूँजी किस तरह लगातार बढ़ती रहे। वे कच्चा माल और मज़दूरों का श्रम सस्ता से सस्ता ख़रीदते हैं। मज़दूर मजबूर होते हैं क्योंकि कारख़ानों और उत्पादन के सभी साधनों के मालिक पूँजीपति ही होते हैं और राज्यसत्ता भी उन्हीं के प्रतिनिधियों के हाथों में होती है। पूँजीपति मज़दूर को सिर्फ़ उतना ही देते हैं जितने में वे अपना पेट पालकर उनके लिए काम करते रह सकें। माल की बिक्री से मिला शेष सारा रुपया वे हड़प जाते हैं। लगातार नयी-नयी मशीनें लाकर वे मज़दूरों से कम से कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा मेहनत करवाते हैं और उनकी मेहनत का ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा लूटते हैं। नयी मशीनें आने पर फाज़िल हो गये मज़दूरों को वे सड़कों पर धकेल देते हैं। फिर भी एक मंज़िल यह आती है कि वे इतना पैदा कर देते हैं कि चीज़ों के ख़रीदार नहीं रह जाते। पूँजीवादी उत्पादन ज़्यादा चीज़ें पैदा करने के साथ ही जनता को ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़कर उसकी आमदनी पर सीमा भी बाँधता चलता है और वह उसके द्वारा तय क़ीमतों पर चीज़ें नहीं ख़रीद पाती। और पूँजीपति दाम नीचे कर नहीं सकता क्योंकि वह कुछ भी कर सकता है पर अपना मुनाफ़ा नहीं छोड़ सकता। भले ही इसके लिए उसे अनाज जलाना और समुद्र में फेंकना पड़े या उत्पादन ही रोकना पड़े।
इस तरह बाज़ार में मन्दी आ जाती है। इस स्थिति से बचने के लिए पूँजीपति लुटेरों ने अपने लूट का तन्त्र पूरी दुनिया में फैला दिया। पहले एशिया, अफ़्रीका, लैटिन अमेरिका के देशों को हथियारों के ज़ोर पर ग़ुलाम बनाकर वे पहले से ही लूट रहे थे।
बीसवीं सदी में यह लूट और गहरी और व्यापक हो गयी। यह एकाधिकारी पूँजी के दुनिया भर में फैलाव और कूपन काटकर लूटने का नया साम्राज्यवादी युग था। फिर उपनिवेशों की जनता की आज़ादी की लड़ाई के नतीजे के तौर पर साम्राज्यवादी लुटेरे ग़ुलाम देशों को राजनीतिक आज़ादी देने के लिए मजबूर हो गये। पर जिन पिछड़े देशों को राजनीतिक आज़ादी मिली उनमें से ज़्यादातर देशों में हुक़ूमत देशी पूँजीपतियों के हाथों में ही आयी। अब उन्होंने अपने देश की जनता को लूटना शुरू किया। साथ ही, उन्होंने साम्राज्यवादियों की पूँजी भी देश में लगी रहने दी और उन्हें भी लूटने का मौक़ा दिया। बल्कि नये-नये उद्योगों में भी विदेशी पूँजी को वे न्यौता देते रहे। कारण कि नयी मशीनों और मशीनी हुनर के लिए तथा पूँजी के लिए वे अमीर देशों के पूँजीपतियों पर आश्रित थे। नतीजतन, साम्राज्यवादियों से थोड़ी बहुत आज़ादी लेकर कुछ दिनों तक पूँजीवादी विकास के रास्ते पर चलने के बाद ग़रीब देशों के पूँजीपति शासकों ने आख़िरकार विदेशी पूँजी के लिए देश के दरवाज़ों को पूरी तरह खोल दिया। यह उनकी मजबूरी भी थी और ज़रूरत भी। साम्राज्यवादी देशों का इसके लिए दबाव भी था क्योंकि वे इतिहास की सबसे गम्भीर मन्दी के शिकार थे और नये-नये बाज़ार की तलाश के लिए बेताब थे।
मगर लगाने के लिए उनके पास पूँजी का अम्बार इतना अधिक था कि एशिया, अफ़्रीका, लैटिन अमेरिका के देशों में इसके खपने की गुंजाइश ही नहीं थी। साम्राज्यावादी देश ग़रीब देशों के मेहनतकशों का श्रम और इनका कच्चा माल मिट्टी के मोल तो ख़रीद सकते थे (और ख़रीद ही रहे हैं) पर सदियों की लूट से तबाह इन देशों में उनके मालों के लिए बाज़ार एक हद तक ही बन सकता था। नतीजतन यह समस्या फिर भी बनी रहती कि पूँजी के अम्बार को कहाँ लगायें। इसी समस्या को हल करने का एक नया रास्ता पूँजीपतियों ने इधर यह निकाला है कि बड़े पैमाने पर उन्होंने सट्टा बाज़ार, विज्ञापन, बीमा, ज़मीन-जायदाद आदि में पूँजी लगायी है जहाँ वास्तव में किसी चीज़ का उत्पादन नहीं होता, पर पूँजी ऐसे बढ़ती है जैसे हवा से फूलता गुब्बारा। आज पूरी दुनिया के पैमाने पर दूसरे देशों में यदि 70 डॉलर पूँजी लग रही है तो उसमें से सिर्फ़ एक डॉलर वास्तविक उत्पादन में लग रहा है।
दुनिया के मेहनतकशों की लूट में साम्राज्यवादियों के छोटे साझीदार – ग़रीब देशों के शासक पूँजीपति
यह है आज पूरी दुनिया के पैमाने पर पूँजीवाद का चेहरा! यह है उसका अति परजीवी चरित्र! पिछले बीस वर्षों के दौरान पूरी दुनिया के पैमाने पर पूँजी ने पहले हमेशा के मुकाबले तेज़ रफ्तार से दौड़ते हुए, देशों की सीमाओं को लाँघते हुए एक भूमण्डलीय बाज़ार का, पहले हमेशा से अधिक एकीकृत विश्व बाज़ार का निर्माण किया है। बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों के उत्पादन पर पूरी दुनिया के पैमाने पर मुट्ठीभर दैत्याकार एकाधिकारी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्ज़ा है। इसके अलावा सबसे बड़ी इजारेदार कम्पनियाँ और पूँजी का बड़ा हिस्सा बीमा, विज्ञापन, बैंक, रेडियो-टी.वी. आदि-आदि में लगा हुआ है। फिर भी दुनिया भर के साम्राज्यवादी डाकुओं का संकट यह है कि वे अपनी पूँजी का अम्बार कहाँ लगायें! जब वे पूँजी कहीं लगाते हैं तो अतिलाभ निचोड़ते हैं और नतीजतन पूँजी का अम्बार और बढ़ जाता है। समाधान की हर कोशिश लौटकर संकट को और गहरा कर जाती है। साम्राज्यवादी लुटेरे पूरी दुनिया के बाज़ार की बन्दरबाँट के लिए कुत्तों की तरह लड़ रहे हैं।
भारत और ऐसे तमाम ग़रीब देशों के पूँजीपतियों ने आज देश की अर्थव्यवस्था के दरवाज़ों को साम्राज्यवादी लुटेरों के लिए पूरी तरह खोल दिया है। विदेशी लुटेरों और देशी लुटेरों ने अपनी-अपनी मजबूरियों और ज़रूरतों के चलते आपस में गाँठ जोड़ ली है। मुनाफ़े के बँटवारे के लिए वे आपस में लड़ते-झगड़ते हैं, खींचा-तानी करते हैं पर आम मेहनतकश आबादी के ख़िलाफ़ वे पूरी तरह एक हैं।
साम्राज्यवादियों के साथ आज लुटेरी जमात में टाटा-बिड़ला-अम्बानी जैसे बड़े पूँजीपतियों से लेकर छोटे पूँजीपति तक शामिल हैं। साथ ही धनी किसान, पूँजीवादी भूस्वामी, फ़ार्मर आदि भी इनके छोटे हिस्सेदार हैं। बड़े व्यापारी-ठेकेदार-अफ़सर-नेता आदि तथा मध्यम वर्ग के ख़ुशहाल तबक़े भी इन्हीं लुटेरों के लग्गू-भग्गू हैं, इन्हीं के टुकड़ख़ोर और मज़दूरों, छोटे व ग़रीब किसानों तथा आम मध्यम वर्ग के लोगों के दुश्मन हैं।
सभी चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियाँ इन्हीं लुटेरों के अलग-अलग हिस्सों की, और कुल मिलाकर इस पूरी लुटेरी जमात की सेवा करती हैं। चुनावबाज़ वामपन्थी दल भी इन्हीं लुटेरों के निज़ाम की हिफ़ाज़त में तैनात हैं और इन्हें फिलहाल आम मेहनतकश आबादी को चुनावी राजनीति के दायरे में क़ैद रखने तथा सिर्फ़ दुअन्नी-चवन्नी के लिए लड़ने की भूल-भुलैया में फँसाये रखने के लिए तैनात किया गया है।
नयी आर्थिक नीति का ख़ूनी चेहरा
पिछले चार वर्षों से नरसिंह राव की सरकार साम्राज्यवादी सूदख़ोरों-लुटेरों और विश्व बैंक-अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी उनकी एजेंसियों द्वारा सुझाये गये नुस्ख़ों के आधार पर नयी आर्थिक नीतियों को लागू कर रही है। वह दावा कर रही है कि इन नीतियों के अमल से देश ख़ुशहाली के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। नक़ली समाजवाद के नेहरू के ज़माने वाले झण्डे को उतारकर खुले पूँजीवाद का झण्डा लहरा दिया गया है। सरकारी कल-कारख़ाने, सड़क, रेल, डाक-तार आदि को धीरे-धीरे देशी पूँजीपतियों और विदेशी कम्पनियों को सौंपा जाने लगा है। सरकार दावा कर रही है कि संकट अब लगभग दूर हो चुका है और ख़ुशहाली का दौर शुरू हो रहा है।
ज़रा इस ख़ुशहाली के दौर की बानगी तो देखिये! उद्योगों के नवीनीकरण के नाम पर पिछले चार वर्षों में हर वर्ष लगभग 40-50 लाख मज़दूरों का रोज़गार छिना है। नयी भर्तियाँ बन्द हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़े एकाधिकारी घरानों के अजगरी शिकंजे में अब तक क़रीब चार लाख छोटे और घरेलू उद्योग-धन्धे तबाह हो चुके हैं। साथ ही, बम्बई, कलकत्ता, कानपुर, अहमदाबाद आदि पुराने औद्योगिक शहरों के जूट, कपड़ा आदि के कारख़ानों और पुरानी चीनी मिलों पर ताले लटक चुके हैं। बेरोज़गारों की संख्या पूरे देश में 20 करोड़ के आसपास जा पहुँची है जो इस सदी के अन्त तक दूनी हो जायेगी। छोटे और मँझोले किसान पूँजी की मार से तबाह अपनी जगह-ज़मीन से और तेज़ी से उजड़ते जा रहे हैं और उनकी एक भारी आबादी जानवरों सी ज़िन्दगी बसर करके भी पेट पालने के लिए शहरों की ओर भाग रही है।
देशी-विदेशी लुटेरे जो नये उद्योग लगा रहे हैं, उनमें ज़्यादातर काम कैज़ुअल, टेम्परेरी मज़दूरों से या ठेके पर काम करा रहे हैं। स्थायी नौकरियाँ नाममात्र की होती हैं। इस तरह पहले ये डाकू बेकारों की भीड़ खड़ी कर रहे हैं और फिर उनकी मेहनत मिट्टी के मोल ख़रीदकर अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं।
यह सरकार जब बनी थी तो देश पर 11 खरब रुपये का विदेशी कर्ज़ था जो अब बढ़कर 40 खरब रुपये हो गया है। देश का हर व्यक्ति विदेशी कर्ज़ के ब्याज और मूल की किश्तों के रूप में सात सौ रुपये का भुगतान करता है। देश के बजट का चालीस फ़ीसदी हिस्सा विदेशी कर्ज़ की किश्तें और ब्याज चुकाने में ही चला जाता है।
पर नरसिंह राव भी सही ही कह रहे हैं। ख़ुशहाली आयी है। अब यह बात दीगर है कि वह सिर्फ़ ऊपर के बीस फ़ीसदी लोगों के लिए आयी है। और नीचे की तथा बीच की अस्सी फ़ीसदी आबादी की तबाही-बरबादी की क़ीमत पर आयी है। दुनिया की ज़्यादा तर महँगी कारें, तरह-तरह की मोटरसाइकिलें और स्कूटर, फ़्रिज-एयरकण्डीशनर, रंगीन टी.वी., कपड़े धोने-झाडू लगाने की मशीनें, पेप्सी, कोक और डिब्बाबन्द खाने की महँगी चीज़ों वग़ैरह से बाज़ार पट चुके हैं। मेहनतकशों के भारत और चोट्टों के भारत के बीच का बँटवारा पहले कभी भी इतना साफ़ नहीं था। तबाही-बरबादी के समन्दर में ऐय्याशी और विलासिता की इतनी ऊँची-ऊँची मीनारें कभी नहीं थीं।
यह नयी समाजवादी क्रान्ति की तैयारी का दौर है!
वैसे कहने को तो सभी ग़ैर-कांग्रेसी, विरोधी चुनावी पार्टियाँ नरसिंह राव सरकार की नयी आर्थिक नीति का विरोध करती हैं, पर उनका विरोध एकदम फर्ज़ी है, सिर्फ़ जनता से वोट लेने के लिए है। जिन राज्यों में जनता दल, भाजपा, वामपन्थी दलों, सपा-बसपा आदि की सरकारें रही हैं और आज भी हैं वे सबकी सब निजीकरण और विदेशी कम्पनियों को लूट की खुली छूट की नीति लागू करने में केन्द्र की सरकार से एक क़दम भी पीछे नहीं रही हैं। इन सभी पार्टियों का भाँडा तो भारतीय पूँजीपतियों के संगठन सी.आई.आई. के अधयक्ष राजीव कौल ने पिछले दिनों ख़ुद ही यह कहकर फोड़ दिया कि चुनाव में चाहे कोई भी दल जीते, आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया जारी रहेगी। (जनसत्ता : 5 मार्च ’96, नयी दिल्ली)
कम से कम इस मामले में हम भी पूँजीपतियों के इस सरगना के विचारों से सहमत हैं कि अब भारतीय पूँजीवाद इस राह को उलट या बदल नहीं सकता। लेकिन इसमें हम यह भी जोड़ देना चाहते हैं कि यह राह इतिहास के उस क़ब्रिस्तान तक जाती है जहाँ अतीत के सभी शासक वर्ग और जालिम व्यवस्थाएँ दफन हैं। और यह भी अब इस सफ़र की मंज़िल बहुत दूर नहीं है।
राज-काज, समाज और उत्पादन की कोई भी व्यवस्था आज तक अमर नहीं रही है। लूट और दमन का कोई भी तन्त्र हमेशा के लिए क़ायम नहीं रहा। पूँजीवाद भी अमर नहीं है – न तो पूरी दुनिया के पैमाने पर, न ही हमारे देश में। यह ज़ोरो-ज़ुल्म, इतनी तबाही जनता हमेशा के लिए बर्दाश्त नहीं कर सकती। चोरों-लुटेरों का शासन जारी नहीं रह सकता। सिर्फ़ गत पाँच वर्षों के कांग्रेसी शासन के दौरान लगभग 9 खरब रुपये के घोटाले हुए हैं। जो नेता और अफ़सर पूँजीपति डाकू-लुटेरों के राजनीतिक नुमाइन्दे हैं, वे ख़ुद भी चोरी-पॉकेटमारी भला क्यों न करें? अब कुछ मुकदमे चलाकर और कुछ प्यादे पिटवाकर इस व्यवस्था के दामन को साफ़ दिखलाने की चाहे जितनी भी कोशिश की जाये, असलियत दिन के उजाले के मानिन्द साफ़ है।
साम्राज्यवाद का यह नया दौर आर्थिक नव-उपनिवेशवाद का दौर है। यह विश्व पूँजीवाद के असाध्य, ढाँचागत और अन्तकालिक रोगों-बीमारियों का दौर है। यह मज़दूर क्रान्तियों के अधिक उन्नत, अधिक सबल और अधिक सम्भावना सम्पन्न रूपों के पैदा होने का दौर है। यह भारत और ऐसे तमाम पिछड़े देशों में, जो विश्व पूँजीवादी तन्त्र की कमज़ोर कड़ियाँ हैं, साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद विरोधी नयी क्रान्तियों का दौर है। यह नयी समाजवादी क्रान्तियों का दौर है। एकदम फौरी तौर पर, यह इन नयी क्रान्तियों की तैयारी का समय है। एक नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन का समय है।
सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के बिना क्रान्ति असम्भव है!
इतिहास गवाह है कोई भी सामाजिक व्यवस्था चाहे जितनी भी जर्जर हो, वह तब तक समाप्त नहीं होती जब तक समाज की विकासमान शक्तियाँ संगठित होकर उसे नष्ट करके नयी व्यवस्था का निर्माण नहीं करती। पूँजीवाद का नाश करके निजी सम्पत्ति की पूरी व्यवस्था को समाप्त करने का सिलसिला शुरू करने का ऐतिहासिक मिशन दुनिया भर के मज़दूर वर्ग का ही है। यह अटल सत्य है।
भारत में भी नयी क्रान्ति की अगुवाई यहाँ का मज़दूर वर्ग ही करेगा – सबसे आगे औद्योगिक सर्वहारा वर्ग की कतारें और फिर ग्रामीण सर्वहारा वर्ग की कतारें। सर्वहारा वर्ग ही पूरी आम मेहनतकश आबादी – मध्यम एवं ग़रीब किसानों तथा सभी तबाहहाल मध्यम वर्गों को पूँजी के जुए से मुक्ति के संघर्ष में नेतृत्व देगा।
पर इतिहास का एक ज़रूरी सबक़ यह भी है कि पूरे देश स्तर पर, वैज्ञानिक समाजवादी विचारधारा के आधार पर – आज के सन्दर्भों में मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन और माओ के विचारों के आधार पर और क्रान्ति के एक सही कार्यक्रम के आधार पर, एक क्रान्तिकारी पार्टी संगठित किये बिना सर्वहारा वर्ग क्रान्ति सम्पन्न नहीं कर सकता, उसकी अगुवाई नहीं कर सकता।
भारत के मज़दूर वर्ग के सामने आज यह सबसे ज़रूरी, सबसे पहला काम है। उसे सोचना है कि मज़दूर वर्ग की अखिल भारतीय स्तर की क्रान्तिकारी पार्टी – एक सच्चे बोल्शेविक ढंग की पार्टी कैसे गठित हो?
हमारी समझ है कि ठहराव को तोड़कर सच्चे अर्थों में, सिद्धान्त और व्यवहार में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुपों को एकजुट करने के लिए और नये सिरे से इन्क़लाबी पार्टी बनाने की कोशिशों को तेज़ करने के लिए मज़दूर वर्ग के एक नये, इन्क़लाबी अख़बार की ज़रूरत है।‘बिगुल’ का प्रकाशन इसी ज़रूरत और ज़िम्मेदारी के अहसास से शुरू किया गया है।
क्रान्तिकारी पार्टी खड़ी करने के लिए एक क्रान्तिकारी राजनीतिक अख़बार ज़रूरी है
इधर एक लम्बे समय से देखने में यह आ रहा है कि देश के क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के छोटे-छोटे ग्रुप सिर्फ़ क्रान्तिकारी प्रचार और आम आह्वान की कार्रवाइयों तक ही सिमट गये हैं। विचारधारा और क्रान्ति के कार्यक्रम आदि पर उनका तमाम साहित्य कार्यकर्ताओं तक और मध्यमवर्ग के क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों तक ही पहुँच पाता है। सन्तुलन क़ायम करने के लिए वे किसानों या मज़दूरों के संगठन या यूनियन बनाते हैं और कुछ रस्मी कार्रवाइयों-रुटीन आन्दोलनों तक सीमित रह जाते हैं। व्यावहारिक ठोस काम के नाम पर, अलग यूनियनें खड़ी करके भी कुछ क्रान्तिकारी वास्तव में थोड़ा अधिक रैडिकल या गरम क़िस्म का अर्थवाद ही करते हैं। भाँति-भाँति के अर्थवादियों और ट्रेडयूनियनवादियों से ऊबा हुआ मज़दूर वर्ग उन्हें एक क्रान्तिकारी विकल्प के रूप में क़तई नहीं देख पाता। दूसरी ओर, कुछ क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट अभी भी बुनियादी वर्गों के व्यापक जन संगठन बनाने के बजाय अति वामपन्थी दुस्साहसवादी लाइन लागू कर रहे हैं।
हम समझते हैं कि व्यावहारिक ठोस कामों के नाम पर सिर्फ़ आर्थिक माँगों तक सीमित रहना, या फिर इन्हें एकदम ही छोड़ देना दोनों ग़लत है। मज़दूर वर्ग को आर्थिक माँगों के साथ ही उसके राजनीतिक अधिकारों के लिए भी लड़ने की शिक्षा देनी होगी तथा साथ ही उनके बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई को तेज़ करना होगा। इस तरह विभिन्न कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुपों की सोच प्रयोगों में उतरेगी, उनके बीच का ठहराव टूटेगा और आपसी बहस-विचार को नयी गति मिलेगी।
हम ‘बिगुल’ को इसका साधन बनाना चाहते हैं। हम इसके माध्यम से सभी सर्वहारा क्रान्तिकारियों को भारतीय क्रान्ति की समस्याओं पर खुली बहस का न्यौता देते हैं। यह अच्छा रहेगा। इससे मेहनतकश आबादी की राजनीतिक शिक्षा का काम भी तेज़ होगा और भविष्य में बनने वाली क्रान्तिकारी पार्टी का उनमें व्यापक आधार तैयार होगा।
‘बिगुल’ का स्वरूप, उद्देश्य और ज़िम्मेदारियाँ
(1.) ‘बिगुल’ व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षक और प्रचारक का काम करेगा। यह मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी वैज्ञानिक विचारधारा का प्रचार करेगा और सच्ची सर्वहारा संस्कृति का प्रचार करेगा। यह दुनिया की क्रान्तियों के इतिहास और शिक्षाओं से, अपने देश के वर्ग संघर्षों और मज़दूर आन्दोलन के इतिहास और सबक़ से मज़दूर वर्ग को परिचित करायेगा तथा तमाम पूँजीवादी अफ़वाहों-कुप्रचारों का भण्डाफोड़ करेगा।
(2.) ‘बिगुल’ देश और दुनिया की राजनीतिक घटनाओं और आर्थिक स्थितियों के सही विश्लेषण से मज़दूर वर्ग को शिक्षित करने का काम करेगा।
(3.) ‘बिगुल’ भारतीय क्रान्ति के स्वरूप, रास्ते और समस्याओं के बारे में क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के बीच जारी बहसों को नियमित रूप से छापेगा और स्वयं ऐसी बहसें लगातार चलायेगा ताकि मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा हो तथा वे सही लाइन की सोच-समझ से लैस होकर क्रान्तिकारी पार्टी के बनने की प्रक्रिया में शामिल हो सकें और व्यवहार में सही लाइन के सत्यापन का आधार तैयार हो।
(4.) ‘बिगुल’ मज़दूर वर्ग के बीच लगातार राजनीतिक प्रचार और शिक्षा की कार्रवाई चलाते हुए सर्वहारा क्रान्ति के ऐतिहासिक मिशन से उसे परिचित करायेगा, उसे आर्थिक संघर्षों के साथ ही राजनीतिक अधिकारों के लिए भी लड़ना सिखायेगा, दुअन्नी-चवन्नीवादी भूजाछोर (कम्युनिस्टों) और पूँजीवादी पार्टियों के दुमछल्ले या व्यक्तिवादी-अराजकतावादी ट्रेडयूनियनबाज़ों से आगाह करते हुए उसे हर तरह के अर्थवाद और सुधारवाद से लड़ना सिखायेगा तथा उसे सच्ची क्रान्तिकारी चेतना से लैस करेगा। यह सर्वहारा की कतारों से क्रान्तिकारी भर्ती के काम में सहयोगी बनेगा।
(5.) ‘बिगुल’ मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी शिक्षक, प्रचारक और आह्वानकर्ता के अतिरिक्त क्रान्तिकारी संगठनकर्ता और आन्दोलनकर्ता की भी भूमिका निभायेगा।
इन संकल्पों के साथ हम यह एक शुरुआत कर रहे हैं जैसेकि सैकड़ों मील लम्बी यात्रा की शुरुआत भी एक छोटे से क़दम से ही होती है।
बिगुल प्रवेशांक, अप्रैल 1996
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन