कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (तेरहवीं किस्‍त)
मूलभूत अधिकारः दावे और हक़ीक़त

आनंद सिंह

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इस श्रृंखला में अब तक हमने देखा कि किस प्रकार एक निहायत ही ग़ैर-जनवादी तरीक़े से चुनी गयी संविधान सभा ने भारतीय संविधान का निर्माण किया। हमने यह भी देखा कि इस संविधान के लगभग सत्तर फ़ीसदी प्रावधान औपनिवेशिक क़ानून ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया ऐक्ट 1935’ से हूबहू या फिर चन्द मामूली शाब्दिक बदलावों के साथ उठा लिये गये थे। बाकी तीस फ़ीसदी प्रावधान भी विभिन्न देशों के बुर्जुआ संविधानों और परम्पराओं से उधार लिये गये थे। इन प्रावधानों को भी ग़ौर से देखने पर हम पाते हैं कि इनमें स्वाधीनता संघर्ष के दौरान किये गये वायदों और जनता की आकांक्षाओं और भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के बजाय आज़ादी मिलने के बाद सत्तारूढ़ देशी पूँजीपति वर्ग के शासन को मज़बूती प्रदान करने और लोकलुभावन जुमलों का इस्तेमाल करके जनता से अपने शासन के प्रति सहमति लेने की कोशिश ज़्यादा दिखती है। ज़ाहिर है कि देशी शासक वर्ग स्वाधीनता संघर्ष के दौरान किये गये लंबे-चौड़े वायदों से खुले आम वायदाखि़लाफ़ी कर नग्न तानाशाही नहीं क़ायम कर सकता था। इसलिए संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान डाले गये जिनको प्रथमदृष्टया देखने पर लोकतंत्र का वहम हो और जिनकी आड़ में संविधान की जनविरोधी अन्तर्वस्तु छिपायी जा सके। इसकी एक बानगी हमने संविधान की प्रस्तावना की चर्चा के दौरान देखी कि किस प्रकार संविधान की शुरुआत लच्छेदार और मनमोहक शब्दों से होती है। लोकतंत्र का आवरण बनाये रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान संविधान के भाग तीन में मूलभूत अधिकारों के रूप मे मौजूद हैं।

मूलभूत अधिकार वे अधिकार होते हैं जो देश के हर नागरिक को एक नागरिक होने की हैसियत से प्राप्त होते हैं और जिनका हनन होने की सूरत में कोई भी व्यक्ति न्यायालय में गुहार लगा सकता है। भारतीय संविधान में मूलभूत अधिकार अमेरिका के मशहूर ‘बिल ऑफ़ राइट्स’ से प्रेरित हैं। ये अधिकार हैं: समता का अधिकार (अनु. 14-18), स्वातंत्र-अधिकार (अनु. 19-22), शोषण के खि़लाफ़ अधिकार (अनु. 23-24), धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनु- 25-28), संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनु. 28-30) और संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनु. 32-35)। लेकिन जब हम मूलभूत अधिकार सम्बन्धी प्रावधानों की तफ़सीलों में जाते हैं तो ये ऊँची दुकान और फ़ीके पकवान जैसा भाव पैदा करते हैं।

संविधान प्रदत्त मूलभूत अधिकारों का मूल स्वरूप राजनीतिक है। भारतीय संविधान आर्थिक समानता, आर्थिक स्वतंत्रता और आर्थिक शोषण से मुक्ति से सम्बन्धित मूलभूत अधिकारों की कोई गारण्टी नहीं देता। संविधान के मूलभूत अधिकारों से सम्बन्धित भाग तीन में संसाधनों के असमान बँटवारे और उनके निजी हाथों में संकेन्द्रण के विरुद्ध अधिकार, काम का अधिकार, काम की न्यायसंगत और मनोचित दशाओं का अधिकार, स्वास्थ्य और पोषणयुक्त भोजन का अधिकार, श्रमिकों के लिए निर्वाह मज़दूरी का अधिकार, समान श्रम के लिए समान मज़दूरी, निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार, जैसे बेहद बुनियादी अधिकारों का ज़िक्र तक नहीं है। हालाँकि इनमें से कुछ की चलताऊ चर्चा संविधान के चौथे भाग में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में की गयी है, परन्तु ये नीति निर्देशक तत्व राज्य के लिए विधिक रूप से बाध्यताकारी नहीं हैं और नागरिकों को इनका उल्लंघन होने की सूरत में न्यायालय जाने का भी कोई अधिकार नहीं है। ऐसे में ये नीति निर्देशक तत्व जनता के अधिकारों की दृष्टि से भद्दे मज़ाक के समान हैं।

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भारतीय नागरिकों को प्रदत्त मूलभूत अधिकार न सिर्फ़ नाकाफ़ी हैं बल्कि जो चन्द राजनीतिक अधिकार संविधान द्वारा दिये भी गये हैं उनको भी तमाम शर्तों और पाबन्दियों भरे प्रावधानों से परिसीमित किया गया है। उनको पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो संविधान निर्माताओं ने अपनी सारी विद्वता और क़ानूनी ज्ञान जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाज़त करने के बजाय एक मज़बूत राज्यसत्ता की स्थापना करने में में झोंक दिया  हो। इन शर्तों और पाबन्दियों की बदौलत आलम यह है कि भारतीय राज्य को जनता के मूलभूत अधिकारों का हनन करने के लिए संविधान का उल्लंघन करने की ज़रूरत ही नहीं है। इसके अतिरिक्त संविधान में एक विशेष हिस्सा (भाग 18) आपातकाल सम्बन्धी प्रावधानों का है जो राज्य को आपातकाल घोषित करने का अधिकार देता है। आपातकाल की घोषणा होने के बाद नागरिकों के औपचारिक अधिकार भी निरस्त हो जाते हैं और राज्य सत्ता को लोकतंत्र का लबादा ओढ़ने की भी ज़रूरत नहीं रहती। ग़ौरतलब है कि आज़ादी के बाद से अब तक कुल चार बार आपातकाल घोषित किया जा चुका है (तीन बार बाध्‍य कारणों से और एक बार आन्तरिक कारण से)। 1975 में इन्दिरा गाँधी सरकार द्वारा घोषित आन्तरिक आपातकाल नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के धड़ल्ले से हनन के लिए कुख्यात है जब 19 महीनों तक संविधानसम्मत तरीके से वस्तुतः तानाशाही क़ायम थी जिसका ज़िक्र आने पर इस संविधान के प्रबल से प्रबल समर्थक भी शर्म से बगलें झाँकने लगतेे हैं।

आज़ादी के 65 सालों में भारतीय बुर्जुआ राज्य के आचरण पर निगाह डालने से यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ नज़र आती है कि यह राज्य जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाज़त तो दूर अपने काले क़ानूनों और काली करतूतों से इन अधिकारों का खुलेआम हनन करता आया है। भारतीय राज्य जनान्दोलनों के बर्बर दमन, नौकरशाही, पुलिस तंत्र और पफ़ौज के घोर जनविरोधी आचरण, कश्मीर और पूर्वोत्तर की परिधि की राष्ट्रीयताओं के उत्पीड़न और हाल में नक्सलवाद के नाम पर देश की सबसे ग़रीब और बदहाल आदिवासी आबादी के खि़लाफ़ अघोषित युद्ध छेड़ने के लिए पूरी दुनिया में कुख्यात है। इससे भी बड़ी विडम्बना तो यह है कि भारतीय राज्य ने इन काले कारनामों को अंजाम देने के लिए संविधान में ही मौजूद प्रावधानों का इस्तेमाल किया है। यानी कि भारतीय संविधान इस मामले में अनूठा है कि इसके आधार पर निर्मित राज्यसत्ता को ग़ैर-लोकतांत्रिक हरकतें करने और नागरिकों के जनवादी अधिकारों का हरण करने की तरक़ीबें संविधान में ही मौजूद हैं। इस प्रकार भारतीय संविधान लोकतंत्र के आवरण में एक निरंकुश राज्य सत्ता स्थापित करने के मामले में एक मील के पत्थर के समान है। यही वजह है कि तीसरी दुनिया के उत्तर-औपनिवेशिक देशों का बुर्जुआ शासक वर्ग इस संविधान को एक ‘रोल-मॉडल’ के रूप में देखता है।

मूलभूत अधिकार और उनका माखौल उड़ाती शर्तों और पाबन्दियों की तफ़सीलवार चर्चा हम आगे करेंगे। परन्तु उससे भी बुनियादी पहलू यह है कि जिस प्रकार से भारतीय समाज में पूँजीवादी विकास हुआ है और हो रहा है उसको देखते हुए यह कहना अनुचित न होगा कि अगर ये शर्तें और पाबन्दियाँ संविधान में मौजूद नहीं भी होतीं तो भी नागरिकों के जनवादी अधिकार एक हद तक ही सुरक्षित रह पाते। एक ऐसे समाज में जिसकी सामाजिक-आर्थिक संरचना में ग़ैर-बराबरी, शोषण और उत्पीड़न के तत्च अन्तर्निहित हों उसमें यदि क़ानूनी और संवैधानिक रूप से बराबरी और स्वतंत्रता घोषित भी कर दी जाये तो यह महज़ विधिक बराबरी और स्वतंत्रता होगी। दूसरे शब्दों में, क़ागज़ पर तो सभी नागरिक बराबर और स्वतंत्र होंगे परन्तु हक़ीक़त में लोगों में ग़ैर-बराबरी और स्वामित्व-अधीनता का सम्बन्ध बरकरार रहेगा।

संविधान और क़ानून की किताबों में तो दुनिया के सबसे बड़े धन्नासेठों में एक मुकेश अम्बानी और एक रिक्शा चलाने वाला दोनों बराबर हैं क्योंकि दोनों को समान रूप से मूलभूत अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन असल ज़िन्दगी में तो कोई मूर्ख या हद दर्जे का भोला और अज्ञानी व्यक्ति ही इस बात पर यकीन करेगा। अम्बानी जैसे पूँजीपतियों की खि़दमत में राजनेता से लेकर नौकरशाह तक उनके आगे-पीछे घूमते हैं और वकील से लेकर न्यायाधीश तक उनकी जेबों में होते हैं। दूसरी ओर रिक्शे वाले के अधिकारों का हनन रोज़ाना घण्टे-दर-घण्टे इस व्यवस्था की नुमाइन्दगी करने वाले ही करते हैं। सड़क और चौराहे पर एक कांस्टेबल भी उसके साथ जानवरों सरीखा बर्ताव करता है और वह उसके खि़लाफ़ कुछ भी नहीं कर पाता है। अव्वलन तो उसे मूलभूत अधिकार जैसी किसी चीज़ के बारे में कुछ पता ही नहीं होता और यदि किसी को अपवादस्वरूप पता भी हो तो उसकी हिफ़ाज़त करने की कुव्वत उसके पास नहीं होती। कमोबेश यह बात देश की अधिकांश मेहनतकश जनता पर लागू होती है।

जिस देश में एक ओर 77 फ़ीसदी आबादी 20 रुपये प्रतिदिन पर गुज़ारा करती हो और दूसरी ओर अरबपतियों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक रफ़्तार से बढ़ रही हो वहाँ समानता और स्वतंत्रता जैसे मूलभूत राजनीतिक अधिकार अन्तिम विश्लेषण में बेमानी ही साबित होंगे, भले ही वे क़ानून और संविधान में मोटे अक्षरों में लिखे हों। जिस देश में संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी बच्चों की लगभग आधी आबादी और महिलाओं की आधी से ज़्यादा आबादी भूख और कुपोषण की शिकार हो, जहाँ जातिगत और जेंडर आधारित उत्पीड़न के नये नये घिनौने रूप सामने आ रहे हों वहाँ जब कोई संविधान में मौजूद शोषण से मुक्ति के अधिकार का गुणगान करता है तो वह देश की बहुसंख्यक आम मेहनतकश आबादी के अपमान से अधिक कुछ नहीं लगता है।

भारतीय संविधान के उत्साही समर्थक इस बात का ज़ोर-शोर से बख़ान करते नहीं थकते हैं कि संविधान में संवैधानिक उपचार भी एक मूलभूत अधिकार है। इस प्रावधान के अनुसार हर नागरिक को यह मूलभूत अधिकार है कि यदि राज्य या कोई व्यक्ति उसके मूलभूत अधिकारों का हनन करता है तो वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगा सकता है। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त तो यह है कि न सिर्फ़ भौगोलिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी उच्चतम न्यायालय भारत के आम नागरिक की पहुँच से काफी दूर है। न्याय की प्रक्रिया बेहद लम्बी और बेहिसाब ख़र्चीली होने की सूरत में संवैधानिक उपचार का अधिकार भी महज़ औपचारिक ही है जिसका संविधान का ढिंढोरा पीटने वाले कितना भी इस्तेमाल करें, परन्तु भारत की आम बहुसंख्यक जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाजत करने में यह प्रावधान निहायत ही निकम्मा साबित हुआ है। यही नहीं भारतीय राज्य ने नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने की ज़िम्मेदारी निभाना भी ज़रूरी नहीं समझा है। यही वजह है कि अनपढ़ और ग़रीब आबादी तो दूर पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि के अधिकांश लोग भी अपने मूलभूत अधिकारों के प्रति सर्वथा अनभिज्ञ पाये जाते हैं।

इस प्रकार हम पाते हैं कि भारतीय संविधान में मौजूद मूलभूत अधिकार बेहद सीमित हैं और जनता को जो कुछ अधिकार दिये भी गये हैं उनको भी तमाम शर्तों, पाबन्दियों और कानूनी शब्दाडम्बरों के मायाजाल से जकड़ कर प्रभावहीन बना दिया गया है। अगले अंक में हम इन शर्तों और पाबन्दियों और मूलभूत अधिकारों की अन्य सीमाओं की विस्तृत चर्चा करेंगे।

(अगले अंक में जारी)

 

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2012

 


 

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