पूँजीवादी व्यवस्था  का गहराता संकट और मेहनतकश जनता पर टूटता कहर
लुभावने जुमलों से कुछ न मिलेगा, हक़ पाने हैं तो लड़ना होगा!

सम्‍पादक मण्‍डल

पिछले कुछ वर्षों से भारत ही नहीं दुनियाभर में मेहनतकश लोग बार-बार सड़कों पर उतर रहे हैं और सत्ता के दमन का सामना कर रहे हैं। बंगलादेश, पाकिस्तारन, नेपाल, ब्राज़ील, मेक्सिको, इंडोनेशिया जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में ही नहीं, बल्कि फ्रांस, स्पेन, इटली, इंग्लैंड, अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी मज़दूर, कर्मचारी, छात्र और नौजवान लगातार अपने छीने जाते अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रहे हैं। सभी जगह उन्हें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी का काम कर रही सरकारों से लाठी-गोली और जेल का ही तोहफ़ा मिल रहा है। इतना ही नहीं, जनता के बढ़ते असन्तोष को भटकाने और उनकी आपसी एकता को तोड़ने के लिए तमाम तरह के झूठे मुद्दे उभारे जा रहे हैं और आने वाले दिनों में विरोध से और भी कड़ाई से निपटने के लिए फासिस्ट  या अर्द्ध-फासिस्ट किस्म की शक्तियों को सत्ता में पहुँचाने की तैयारी चल रही है या उसका डर दिखाया जा रहा है।

अपने देश में एक ओर छात्रों-युवाओं, मज़दूरों, दलितों, अल्पसंख्यकों का जिस तरह दमन किया जा रहा है और दूसरी ओर गोरक्षा से लेकर लव जिहाद तक जिस तरह से उन्माद भड़काया जा रहा है वह भी इसी तस्वीर का एक हिस्सा है। पूँजीवादी व्यदवस्था का संकट दिनोंदिन गहरा रहा है और जनता की उम्मीदों को पूरा करने में दुनियाभर की पूँजीवादी सरकारें नाकाम हो रही हैं। पूँजीपतियों के घटते मुनाफ़े और बढ़ते घाटे को पूरा करने के लिए मेहनतकशों की रोटी छीनी जा रही है, उनके बच्चों से स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार छीने जा रहे हैं, लड़कर हासिल की गयी सु‍विधाओं में एक-एक कर कटौती की जा रही है। इतना ही नहीं, जनता से वसूले गये टैक्सों से पूँजीपतियों को भारी छूटें और तमाम तरह के दूसरे फ़ायदे दिये जा रहे हैं ताकि उनकी ऐयाशियों में कोई कमी न आये। आम ग़रीब लोग जीवन की छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी करने के लिए लिये गये कर्ज़ों के बोझ तले दबते जा रहे हैं, मगर पूँजीपति सरकारी बैंकों में जमा जनता के पैसों  से  दिये  गये लाखों करोड़ रुपये के कर्ज़े डकार कर बैठे हैं। 9000 करोड़ रुपये लेकर भाग जाने वाला विजय माल्या तो महज़ एक झांकी है, रिलायंस, वेदान्ता, अदानी, जेपी जैसे सबसे बड़े औद्योगिक घराने लाखों करोड़ की रकम दबाये बैठे हैं।

दो साल पहले मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार सत्ता में आने पर जनता को और खासकर नौजवानों को बड़े-बड़े सपने दिखाये गये थे। देश का विकास छलांगें मारकर आगे बढ़ेगा, हर वर्ष दो करोड़ नौजवानों को रोज़गार मिलेगा, चारों ओर से अच्छे दिनों की बहार आ जायेगी। मगर इन दो वर्षों में आम लोगों को क्या हासिल हुआ? सकल घरेलू उत्पाद और विकास के झूठे आँकड़ों की पोल तो जल्दी ही खुल गयी और पूरी दुनिया में छीछालेदर भी हो गयी। मगर आम लोग आँकड़ों से नहीं, अपने अनुभवों से जान रहे हैं कि उनकी ज़ि‍न्दगी किस तरह से बदतर होती जा रही है। खाने-पीने की चीज़ों, दवा-इलाज, पानी-बिजली, यात्रा-भाड़ा, शिक्षा आदि हर चीज़ लगातार महँगी होती जा रही है, रोज़गार मिल नहीं रहा, मनरेगा जैसी योजनाओं के बजट में कटौती से गांव के ग़रीबों की स्थिति और भी बदतर होती जा रही है, कारख़ानेदार मन्दी का सारा बोझ मज़दूरों पर डाल रहे हैं, छंटनी और ठेकाकरण बेलगाम जारी है। मोदी सरकार ने अमीरों को प्रत्यक्ष करों के बोझ से भारी छूट दी है। पूँजीपतियों को विभिन्न करों, शुल्कों आदि से पहले ही भारी छूट मिली हुई है। दूसरी ओर आम मेहनतकश लोगों की मेहनत की लूट को बढ़ाने में अप्रत्यक्ष करों में भारी बढ़ोत्तरी कर मोदी सरकार ने पूँजीपति वर्ग की भारी मदद की है। महँगाई बढ़ने के तमाम कारणों में से एक अप्रत्यक्ष करों में लगातार की जा रही बढ़ोत्तरी भी है। इन कदमों से देश में पैदा हो रही सम्पदा को लगातार अमीरों की तिजोरियों में स्थानान्तरित किया जा रहा है जबकि ग़रीबों की जेब काटने का काम हो रहा है।

चुनाव से पहले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआई) को पानी पी-पीकर कोसने वाले भाजपाइयों की सरकार ने 15 म‍हत्वपूर्ण क्षेत्रों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल दिया है। इसमें बैंकिंग, सिंगल ब्राण्ड रीटेल, रक्षा, निर्माण, ब्रॉडकास्टिंग, नागरिक उड्डयन, फार्मास्यूटिकल जैसे रणनीतिक आर्थिक क्षेत्र शामिल हैं। फार्मास्यूटिकल और खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से लम्बे दौर में महँगाई में और बढ़ोत्तरी होगी। हर वर्ष नये रोज़गार सृजन की दर कम हो रही है और अर्थव्यवस्था के आठ सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाले उद्योगों में वर्ष 2015 में केवल 1.35 लाख नये रोज़गार ही सृजित हुए। पिछले 8 वर्षों में यह सबसे कम था। अगर सरकारी लेबर ब्यूरो के आँकड़ों को ध्यान से देखें तो वास्तव में अप्रैल-जून और अक्टूबर-दिसम्बर 2015 में क्रमशः 0.43 व 0.20 लाख रोज़गार कम हो गये! रोज़गार की हालत तो यह हो चुकी है कि अब तो आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोज़गारी की आशंका सताने लगी है। मोदी के उछाले जुमलों ‘स्टार्टअप इंडिया’, ‘स्टैंडअप इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’ सिर्फ़ भद्दा मज़ाक बनकर रह गये हैं। ‘फ्लिपकार्ट’, ‘एल एण्ड टी’, इन्फोटेक’ जैसी कम्पनियों ने हज़ारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफर दिये थे वे कागज के टुकड़े मात्र रह गये हैं क्योंकि अब उन्हें ‘ज्वाइन’ नहीं कराया जा रहा है। मन्दी के कारण बड़ी-बड़ी कम्पनियों की हालत पस्त  है।

आज देश में जो नफ़रत का गुबार उठाया जा रहा है, उसे इन चीज़ों से काटकर नहीं समझा जा सकता। आर्थिक हालात देश को जिधर ले जा रहे हैं ऐसे में आने वाले दिनों में जनता का असन्तोष फूटकर सड़कों पर उबल पड़ना लाज़ि‍मी है। और इसकी सबसे कारगर काट है जाति-धर्म और अन्धराष्ट्रवाद के नाम पर लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बांट देने की राजनीति। वैसे तो सभी चुनावी पार्टियां यही खेल खेलती रही हैं लेकिन आज इस काम को सबसे बख़ूबी अंजाम देने का काम संघ परिवार और भाजपा कर रहे हैं जिनकी पूरी सोच ही ग़रीबों, दलितों, अल्प‍संख्यकों, महिलाओं और क्रान्तिकारियों के प्रति गहरी घृणा से भरी हुई है।

ये हालात सिर्फ़ अपने देश के नहीं हैं।  पिछले अप्रैल में विश्व के सबसे बड़े पूँजीवादी देशों के गुट जी-20 की एक बैठक में विश्व पूँजीवाद के प्रमुख नेताओं ने यह माना कि आर्थिक संकट से अभी निजात नहीं मिली है, बल्कि यदि जल्द ही कुछ न किया गया तो आने वाले समय के अन्दर एक और मन्दी सामने खड़ी है। इस बैठक से कुछ दिन पहले ही अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) ने वैश्विक आर्थिक दर की वृद्धि के बारे में अपने पहले के अनुमानों को घटा दिया है। इससे पहले फरवरी 2015 में भी  वैश्विक व्यापार के आँकड़ों में दिखाया गया था कि तो साल 2015 में विश्व व्यापार में 13.9% तक कमी आयी है। आर्थिक संकट का कारण पूँजी की कमी नहीं है, बल्कि वजह यह है कि बाज़ार पहले के उत्पादन से ही मालों से पटे हुए हैं। पहले पुराना माल बिकेगा तभी नये के लिए जगह बन पायेगी। मन्दी का सारा बोझ झेल रहे आम लोगों की हालत इतनी तंग है कि वे जैसे-तैसे गुज़ारा कर रहे हैं, नयी-नयी चीज़ें कैसे ख़रीदें? नतीजतन, उत्पादन घट रहा है, कारख़ानों में छंटनी हो रही है या बन्द हो रहे हैं, बेरोज़गारी बढ़ रही है और इसके परिणामस्वरूप लोगों की ख़रीदने की क्षमता और भी कम हो रही है। पूँजीवाद के संकट का यह चक्र यूं तो लगातार ही जारी है लेकिन बीच-बीच में और भी प्रचण्ड होकर अपना असर दिखाने लगता है। एक बार फिर वैसी ही स्थिति बन रही है।

सन 2008 के वित्तीय संकट से पैदा हुई विश्वव्यापी मन्दी से पहले भारत ने विश्व अर्थव्यवस्था में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की थी। पर तब से अब तक हालत बहुत बदल चुकी है। भारत में उद्योग और कृषि क्षेत्र में मन्दी का असर दिखने लग गया है और इसी के साथ ही बैंकिंग सेक्टर में ख़राब ऋणों में जबरदस्त बढ़ोत्तरी की समस्या भी उभर आयी है। भारतीय बैंकों (सरकारी और प्राइवेट) का कुल एन.पी.ए. (यानी ऐसे ऋण जो चुकाये नहीं जा रहे हैं) सितम्बर 2008 में रु. 53,917 करोड़ से बढ़कर सितम्बर 2015 तक रु. 3,41,641 करोड़ तक पहुँच चुका है। अब बैंकों के घाटे की भरपाई के लिए सरकार उनको पूँजी मुहैया करा रही है, जो ज़ाहिर है कि मोदी या जेटली की जेब से नहीं बल्कि हमारी-आपकी जेबों से निकाली जायेगी। आने वाले दिनों में मौजूदा बैंकिंग संकट पहले से ही पूँजीवादी जुवे तले कराह रही आम मेहनतकश आबादी पर बोझ को और भी बढ़ाने वाला है। जिन परजीवी पूँजीपतियों की वजह से यह संकट इस मुकाम तक पहुँचा है उनमें से अधिकांश की नरेन्द्र मोदी से क़रीबी है। मोदी नीत एनडीए सरकार को पूँजीपति वर्ग ने राज्यसत्ता की कमान इसीलिए सौंपी है ताकि उनको लूट की खुली छूट मिल सके। इसलिए इस सरकार से यह उम्मीद करना बेमानी होगा कि वह इन पूँजीपतियों पर नकेल कसेगी।

असल में देखें तो निजी सम्पत्ति और मुनाफे पर आधारित पूरी पूँजीवादी व्यवस्था ही असाध्य बीमारी की शिकार हो चुकी है। निजी मुनाफे के लिए सामाजिक उत्पादन को हस्तपगत करने वाली यह व्यवस्था आज उत्पादन का और विस्तार नहीं कर सकती। कुल मिलाकर हम पूँजीवादी व्यवस्था के क्लासिक ‘अति-उत्पादन’ के संकट को देख रहे हैं। इस अति-उत्पादन का अर्थ समाज की आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं है बल्कि वास्तविकता यह है कि एक तरफ 90 प्रतिशत जनता अपनी ज़रूरतें पूरी न होने से तबाह है, दूसरी ओर आवश्यकता होते हुए भी क्रय-शक्ति के अभाव में ज़रूरत का सामान खरीदने में असमर्थ है। इसलिए बाज़ार में माँग नहीं है, उद्योग स्थापित क्षमता से काफ़ी कम (लगभग दो तिहाई) पर ही उत्पादन कर रहे हैं। अतः न पूँजीपति निवेश कर रहे हैं और न ही रोज़गार निर्माण हो रहा है। बल्कि पूँजीपति मालिक अपना मुनाफा बढ़ाने के लिये और भी कम मज़दूरों से और भी कम मज़दूरी में ज़्यादा से ज़्यादा काम और उत्पादन कराना चाहते हैं। इसलिये पिछले कुछ समय में देखिये तो आम श्रमिकों के ही नहीं अपने को ‘व्हाइट कॉलर’ मानने वाले अभिजात कर्मचारियों के भी काम के घण्टों मे लगातार वृद्धि हो रही है।

इस संकट से निकलने का कोई तरीका न पिछली मनमोहन सरकार के पास था न अबकी मोदी-जेटली की जोड़ी के पास और न ही बहुत से लोगों की उम्मीद ‘आईएमएफ’ वाले रघुराम राजन के पास क्योंकि आखिर इन सबकी नीतियाँ एक ही हैं – पूँजीपति वर्ग की सेवा! आने वाले दिनों में और भी बदतर हालात से बचने के लिए किसी ‘शार्ट कट’ समाधान की गुंजाइश नहीं है। रास्ता केवल एक ही है, पूँजीवादी व्यवस्था। के विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई की तैयारी। संघ-भाजपा की नफ़रत की राजनीति के ख़ि‍लाफ़ लड़ाई इस लम्बी लड़ाई का एक ज़रूरी और तात्कालिक हिस्सा है।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

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