फासीवादी नारों की हक़ीक़त – हिटलर से मोदी तक

सिमरन

एक बार एक हिटलर था, उसकी एक पार्टी थी जिसका नाम था राष्ट्रवादी समाजवादी पार्टी। 1920 में स्थापना के बाद इस फ़ासीवादी पार्टी ने तमाम तरह के लोकरंजक वायदे किये, लोगों के बीच नस्लवाद पर आधारित घृणा के बीज बोये। दूसरे विश्व युद्ध में 1945 में हिटलर की हार होने तक हिटलर की नाज़ी पार्टी ने मानवता के ख़िलाफ़ ऐसे जघन्य अपराध किये कि हिटलर इतिहास में हमेशा नफ़रत और हैवानियत के लिए जाने जायेगा। हिटलर अपनी तितली कट मूंछों और अपने शुद्ध आर्यन खून पर बड़ा फ़ख़्र करता था और इसी नस्ली श्रेष्ठता के नाम पर पैदा की गयी नफ़रत की आग में जर्मनी में 70 लाख बेकसूर यहूदियों को यातना शिवरों और गैस चैंबरों में मौत के घाट उतार दिया गया।

modi-hitler2हिटलर भी अपने देश को ”विकास” की ऊंचाइयों तक पहुँचाना चाहता था। मगर देश की उसकी परिभाषा में आम जनता नहीं, बल्कि बड़े पूँजीपति और धन्ना सेठ शामिल थे। हिटलर की पार्टी ने कई फ़ासीवादी नारे जनता के बीच प्रचारित किये। इन नारों का मकसद था जनता में अन्धदेशभक्ति की भावना पैदा कर उन्हें अपनी राजनीति से जोड़ने का प्रयास। अक्सर जब फ़ासीवाद के बारे में बात की जाती है तब नर कंकालों, गैस चैंबरों, यातना शिवि‍रों, मिलिट्री यूनिफॉर्म पहने सैनिकों की तस्वीरें दिमाग में घूम जाती हैं, लेकिन फ़ासीवाद हमेशा अपने वीभत्स चेहरे को जनता के सामने नहीं लाता। वह रावण की तरह 10 सि‍र वाले राक्षस के रूप में जनता के बीच मुखौटे लगाकर पहुँचता है। अपने कल्याणकारी नारों और नेक नीयत का बहुत सौम्य प्रदर्शन करते हुए जनता को लुभाने का स्वांग रचता है। खुद हिटलर ने भी किसी ज़माने में घरों में पेंट करने का काम किया था, और वह बार-बार इसकी दुहाई देकर अपने को जनता का आदमी बताता रहता था। शुरुआती दौर में वह खुद को पेंटर कहता था जो जर्मनी की तस्वीर बदलने आया था। लेकिन हक़ीकत में हिटलर ने मजदूरों और मेहनतकशों का बर्बर दमन किया, उनपर निर्मम अत्याचार किये, उनके श्रम की लूट से अपने खज़ाने भरे और उन्हें नरक से भी बदतर ज़िन्दगी जीने पर मजबूर किया। लाखों मासूमों को मौत के घाट उतारा, जनता को संगठित कर रहे क्रान्तिकारि‍यों की हत्याएँ करवायीं।

जर्मन भाषा के मशहूर कवि और नाटककार बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने 1934 में हिटलर के एक फ़ासीवादी नारे ‘सामान्य हित आत्महित से बढ़कर होता है’ की आलोचना करते हुए उसकी फ़ासीवादी राजनीति की असलियत बेनक़ाब कर दी थी। ब्रेष्ट ने इस फ़ासीवादी नारे के बारे में लिखा था: ”सामान्य हित आत्महित से बढ़कर होता है’ — बताया जा रहा है कि यह नारा अब नोटों पर छापा जा रहा है। यह लोगों के बीच उड़ाई जा रही एक अफ़वाह है। कोई भी निश्चित रूप से इसके बारे में नहीं जानता। किसी ने भी ऐसा नोट नहीं देखा है, इसीलिए संभवतः यह एक लोक कथा ही है। हालाँकि अगर यह सच है तो यह इस नारे के लिए बड़े सम्मान की बात है। यह राष्ट्रवादी समाजवाद के सबसे लोकप्रिय नारों में से एक है, कानों में मधुर संगीत की तरह। कुछ लोग इसे सही मायने में एक समाजवादी नारा मानते हैं।

‘‘समाजवादी व्यवस्था में आत्महित और सामान्य हित के बीच कोई द्वन्द्व नहीं होता। इन दोनों हितों के बीच कोई मौलिक फ़र्क नहीं होता। एक समूह के चैन से जीने के लिए बाकी समूहों का बदहाली में जीना ज़रूरी नहीं होता, इसीलिए समूह एक-दूसरे पर छूरी नहीं चलाते। समाजवादी व्यवस्था में आम जनता ऐसी सड़कों का निर्माण नहीं करती जिसपर केवल चंद लोग अपनी गाड़ियाँ चला सकें…। न ही ऐसा कोई दिन आयेगा कि आम लोग इन सड़कों पर टैंकों में सवार होकर चलेंगे ताकि कुछ लोग युद्धों से मुनाफ़ा कमा सकें। समाजवादी व्यवस्था में किसी व्यक्ति का श्रम उसे और आम जनता दोनों को एक साथ लाभ पहुँचाता है, दरअसल वह खुद की मदद करके ही जनता की मदद करता है। यह व्यवस्था बनायी ही इस तरह से जाती है कि इसमें कोई भी व्यक्ति अगर खुद की मदद करता है तो वह जनता की मदद भी कर रहा होता है ताकि आम जनता खुद की मदद प्रत्येक व्यक्ति की मदद करके करती है। वास्तव में यही वो चीज़ है जो इसे एक समाजवादी व्यवस्था बनाती है। समाजवादी व्यवस्था में ‘सामान्य हित आत्महित से बढ़कर होता है’ इस नारे की ज़रूरत ही नहीं होती है , इसकी बजाय ‘आत्महित ही सामान्य हित है’ यह नारा ज़्यादा माने रखता है। इसलिए लोकप्रिय, ईमानदार लगने वाला, अर्थपूर्ण वाक्य ‘सामान्य हित आत्महित से बढ़कर होता है’ धूर्ततापूर्ण है। वह लगातार चिल्ला-चिल्ला कर दुहाई देता है कि यह नेक नीयत से ओतप्रोत है, इसकी जनता के प्रति चिंता रात को इसे चैन से सोने नहीं देती कि आम तौर पर इस पर पर्याप्त तरजीह नहीं दी जाती कि अगर इसी नारे को उच्च वर्ग पर लागू कर दिया जाय तो अन्ततः सबकुछ ठीक हो जायेगा। यह सही है कि उच्च समाज में, समृद्ध तबके के बीच, में इसे लागू नहीं किया गया क्योंकि वे इसे गंभीरता से नहीं लेते। वहाँ यह नारा कोई भूमिका नहीं निभाता, यहाँ तक कि पार्टी के दिग्गजों का भी इससे कोई लेना-देना नहीं होता है। लेकिन अगर इसे वहाँ लागू कर भी दिया जाय तब भी हालात नहीं बदलेंगे। लाखों लोग तब भी गुलाम रहेंगे और अन्ततः उन्हें झुंड में टैंकों में और खंदकों में डाल दिया जायेगा। लोग उनसे कहेंगे, आम जनता को फायदा पहुंचने में सम्भवतः 30,000 साल लग जायेंगे और यह भी नहीं बताया जायेगा कि यह रहस्यमय ‘आम जनता’ आखिर है कौन। प्रत्येक व्यक्ति अपनी तनख़्वाह को देख कर यह समझ जाएगा कि उसे हफ्ते भर की हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद कुछ हासिल नहीं हुआ। जब एक परिवार को संक्षिप्त औपचारिक पत्र से यह पता चलेगा कि उनके पिता या पुत्र जंग में मारे गए तब उन्हें यह मालूम पड़ेगा कि वे न तो खुद की मदद कर पाये और न ही परिवार की, लेकिन लोग फिर भी कहेंगे कि आम जनता को फायदा पहुँचा है। तो फिर यह आम जनता है कौन, जिसे ऐसे व्यक्तियों से लाभ पहुँच रहा है जो कथित तौर पर सार्वजनिक हितों को आत्महित पर प्राथमिकता देते हैं। क्या ये वही मुट्ठी भर लोग तो नहीं हैं जो ‘सामान्य हित आत्महित से बढ़कर होता है’ नारे का प्रचार कर रहे है। जो हर साल 6 हज़ार करोड़ मार्क की राष्ट्रीय आय में से 2 हज़ार करोड़ मार्क हड़प जाते हैं : यानी राष्ट्रवादी समाजवादी पार्टी (नाज़ी पार्टी)?’’

अगर हम आज अपने देश में उछाले जा रहे फ़ासीवादी नारों पर एक नज़र दौड़ाएँ तो हिटलर की इन नाजायज़ औलादों के मंसूबे भी हम अच्छी तरह समझ पाएंगे। ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है’ सड़क पर, चौराहे पर बड़े-बड़े होर्डिंग पर यह नारे आँखों के सामने आ जाते है, रेडियो पर, अखबारों में, टीवी पर, बमबारी की तरह यह नारे हमारी चेतना पर हमला करते हैं। लेकिन जैसा ब्रेष्ट ने पहले ही चेता दिया है और जैसा हम अपनी ज़िन्दगी के हालात से भी समझ सकते है कि आखिर यह ‘सब’ कौन है जिनका विकास हो रहा है और यह कौनसा ‘देश’ है जो आगे बढ़ रहा है। आम जनता की कमर तो 200 रुपये किलो दाल, बढ़ती महंगाई की मार. बेरोज़गारी, भुखमरी, अशिक्षा, कुपोषण तथा बीमारियों ने तोड़ रखी है। तो यह विकास जिसके होने का प्रचार मोदी सरकार हर जगह कर रही है वह किन लोगों के लिए है? हमारी झुग्गियों में तो वो नहीं रहते, न ही फैक्टरियों में काम करते हैं। आम जनता अपनी बदहाली से जूझते हुए किसी तरह जी रही है, मगर मोदी सरकार के विज्ञापनों में तो सभी लोग मुस्कुराते हुए, गीत गाते हुए दिखते है, आखिर ये लोग देश के किस हिस्से से हैं। क्या ये अदानी, अम्बानी, टाटा, बिड़ला और अन्य पूँजीपति घराने तो नहीं जिन्होंने मोदी सरकार को चुनाव लड़ने के लिए खरबों रुपया दिया था, जिसको चुकाने के लिए अब मोदी सरकार दिन-रात काम करते हुए उन्हें टैक्स सब्सिडी और तमाम तरह की सहूलियतें दे रही है? सवाल बहुत अहम है, अगली बार जब कहीं ये नारे सुनें या देखें तो ज़रूर सोचियेगा कि विकास किसका हो रहा है।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments