पूँजीवादी विकास की क्रूर सच्चाई
लाखों खाली पड़े घर और करोड़ों बेघर लोग

आनन्द सिंह

खाये-पीये-अघाये लोग ज़ि‍न्दगी की हक़ीक़त से इतना कटे रहते हैं कि महानगरों के भूदृश्य में उन्हें बस गगनचुंबी इमारतें ही नज़र आती हैं और चारों ओर विकास का गुलाबी नज़ारा ही दिखायी देता है। लेकिन एक आम मेहनतकश की नज़र से महानगरों के भूदृश्य पर नज़र डालने पर हमें झुग्गी-झोपड़ि‍यों और नरक जैसे रिहायशी इलाकों के समुद्र के बीच कुछ गगनचुंबी इमारतें विलासिता के टापुओं के समान नज़र आती हैं। विलासिता के इन टापुओं पर थोड़ा और क़रीबी से नज़र दौड़ाने पर हमें इस अजीबोगरीब सच्चाई का भी एहसास होता है कि झुग्गियों के समुद्र के बीच के इन तमाम टापुओं में ऐसे टापुओं की कमी नहीं है जो वीरान पड़े रहते हैं, यानी उनमें कोई रहने वाला ही नहीं होता।

PeoplelessHomelessहिन्दुस्तान के महानगरों की गगनचुंबी इमारतों में खाली पड़े अनबिके फ्लैटों की समस्या ने पिछले कुछ सालों में इतना विकराल रूप ले लिया है कि अब पूँजीपतियों के थिंक टैंकों के माथे पर भी शिकन नज़र आ रही है। अभी हाल ही में पूँजीपतियों की शीर्ष संस्था एसोचैम (एसोसिएशन और इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़) के अध्ययन ने यह दिखाया है कि पिछले एक साल में क़ीमतों में गिरावट और ब्याज दरों में कमी के बावजूद अनबिके आवासीय और व्यावसायिक परिसरों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है। इस अध्ययन के मुताबिक सबसे बुरी स्थिति राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की है जहाँ पिछले एक साल में आवासीय परिसरों की माँग में  25 से 30 प्रतिशत एवं व्यावसाय‍िक परिसरों की माँग में 35 से 40 प्रतिशत की गिरावट आयी है। एनसीआर के इलाके में खाली पड़े आवासीय परिसरों की संख्या 2.5 लाख बतायी गयी है। दिल्ली के बाद दूसरा नंबर मुंबई का है जहाँ 27.5 प्रतिशत (98,000) मकान खाली पड़े हैं। बेंगलूरू में यह अनुपात 25 प्रतिशत (66,000), चेन्नई में 22.5 प्रतिशत (60,000) एवं अहमदाबाद में 20 प्रतिशत है।

इन आँकड़ों से यह साफ़ है कि पिछले दो दशकों से तमाम विज्ञापनों और मार्केटिंग के ज़रिये भारत के मध्यवर्ग को अपना आशियाना पाने का जो सपना दिखाया गया था, वह तेज़ी से दु:स्वप्न में तब्दील होता जा रहा है। वैसे भी जिन लोगों को यह सपना पूरा हुआ प्रतीत होता है, वह भी वास्तविक नहीं बल्कि आभासी ही होता है क्योंकि यह सपना बैंकों के क़र्ज़ लेकर पूरा किया जाता है, जिसका नतीजा यह होता है कि ऐसे लोग अपना शेष जीवन ईएमआई भरने में ही निकाल देने को मजबूर हो जाते हैं। रियल एस्टेट बाज़ार में सट्टेबाजी और माफ़‍ियागिरी की वजह से जो आवासीय बुलबुला लगातार फूलता जा रहा है उसका फटना अब बस समय की बात है। देश के प्रमुख महानगरीय केन्द्रों में अनबिके आवासीय और व्यावसायिक परिसरों की माँग में कमी इसका स्पष्ट संकेत दे रही है।

जिस मुल्क में 17 करोड़ से ज़्यादा लोग नारकीय हालातों में झुग्गियों में रहने को मजबूर हों, जहाँ 7.8 करोड़ से भी ज़्यादा बेघर लोगों को रात फुटपाथों पर, फ्लाइओवरों के नीचे, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर सोते हों वहाँ यह सवाल उठना ही है कि इतनी बड़ी संख्या में खाली पड़े घरों की वजह क्या है। क्या यह अन्तर्विरोध महज़ कुछ नीतियों का नतीजा है, या ऐसा कुछ बिल्डरों के लालच की वजह से हो रहा है, या फि‍र इसके लिए ढाँचागत कारण जिम्मेदार हैं?

इस अन्तर्विरोध के कारणों की तलाश करने पर हम पाते हैं कि इसकी जड़ें पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में निहित हैं। पूँजीवाद में अन्य सभी मालों की ही तरह आवास भी एक माल है जो समाज की ज़रूरतों के लिए नहीं, बल्कि पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के लिए बनाया जाता है। दुनिया में हर जगह यह देखने में आया है कि पूँजीवादी विकास के होने के साथ ही महानगरों के प्रमुख इलाकों की ज़मीन के दाम और मकान का भाड़ा दोनो बढ़ने लगते हैं और उन मुख्य इलाकों से आम मेहनतकश लोग शहरों की बाहरी परिधि की ओर विस्थापित होने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं। कई मामलों में तो ऐसा जबरन किया जाता है, जैसे दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों के समय लाखों मेहनतकशों को दिल्ली के बाहरी इलाकों की ओर जबरन विस्थापित कर दिया गया था। शहरों में ज़मीन हथिया कर नए अपार्टमेंट और शॉपिंग मॉल बनाना तथा पुराने मकान तोड़कर नयी गगनचुंबी इमारतें बनाना अपने आप में एक उद्योग का रूप ले लेता है जिसे रियल एस्टेट का नाम दिया जाता है। ज़मीन के माल के विशिष्‍ट चरित्र और रियल एस्टेट बाज़ार में सट्टेबाज़ी और माफ़‍िया बिल्डरों का बोलबाले की वजह से मकानों की क़ीमतें आसमान छूने लगती हैं।

लेकिन बिल्डरों को मुनाफ़ा तभी होता है जब लोग इन मकानों को ख़रीदें। इसके लिए विज्ञापनों और मार्केटिंग अभियानों के ज़रि‍ये लोगों को अपना घर होने के सब्ज़बाग दिखाये जाते हैं। लेकिन चूँकि पूँजीवाद मुनाफ़े पर‍ टिका होता है और ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की मूल शर्त ही यह होती है कि मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ा जाए और उनकी मज़दूरी को बस इतना रखा जाए कि वे एक मज़दूर के रूप में ज़ि‍न्दा रह सकें और मज़दूरों की भावी पीढ़ी को पैदा कर सकें, इसलिए समाज के सबसे बड़े वर्ग यानी मज़दूर वर्ग के अधिकांश लोग अपना घर ख़रीदने के बारे में सोच भी नहीं सकते। यही वजह है कि अपना घर होने का सपना मुख्य रूप से मध्यवर्ग को दिखाया जाता है। लेकिन मध्यवर्ग में भी अधिकांश लोगों की कूवत इतनी नहीं होती है कि वे इतने महँगे घरों को ख़रीद सकें। ऐसे में पूँजीपति वर्ग का एक तबका मध्यवर्ग के अपना घर होने की इस हसरत और महँगे घरों को न खरीद पाने की बेबसी का इस्तेमाल भी मुनाफ़ा कमाने के लिए करता है और वह मध्यवर्ग को बैंकों के ज़रिये होम लोन लेने का प्रलोभन देता है। मध्यवर्ग के तमाम लोग अपनी छत के नीचे रहने का ”सुख” भोगने के लालच में बैंकों से क़र्ज़ लेते हैं और अपनी बाकी की उम्र उस क़र्ज़ को पूरा करने की क़वायद में गुज़ार देते हैं।

लेकिन पिछले कुछ सालों में यह देखने में आया है महानगरों में मकानों की क़ीमतें इतनी बढ़ गयी हैं कि मध्यवर्ग बैंकों से क़र्ज़ लेकर भी उनको खरीदने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है। जिन लोगों ने हिम्मत करके क़र्ज़ लिया भी उनमें से तमाम लोगों को बिल्डरों ने चूना लगाया क्योंकि बिल्डर आमतौर पर प्रोजेक्ट समय पर पूरा नहीं करते और घर के खरीदारों से पैसा ऐंठकर दूसरे प्रोजेक्ट में लगा देते हैं। इस तरह अपनी छत के नीचे रहने का मध्यवर्ग का सपना अधर में लटक जाता है। इस वजह से मध्यवर्ग भी मकान में निवेश करने से हिचक रहा है। तमाम लोग मकानों की क़ीमतें और कम होने का इंतज़ार कर रहे हैं। इस वजह से महानगरों के आवासीय परिसरों की माँग में कमी आयी है। इसके अतिरिक्त 2007-2008 से जारी विश्वव्यापी मंदी की वजह से व्यावसायिक परिसरों के ख़रीदार मिलने भी मुश्किल हो रहे हैं क्योंकि निवेशक भी निवेश करने से कतरा रहे हैं। यही वजह है‍ कि पिछले एक साल में दिल्ली-एनसीआर जैसे इलाकों में व्यावसायिक परिसरों की माँग में 35-40 प्रतिशत की गिरावट देखने में आयी है।

स्पष्ट है कि आवास का संकट पूँजीवाद के व्यापक संकट से जुड़ा हुआ है। दुनिया के तमाम पूँजीवादी मुल्‍कों में आवास का बुलबुला फूट रहा है। ग़ौरतलब है कि 2007-8 की मंदी की शुरुआत भी अमेरिका में आवासीय बुलबुले के फूटने के साथ ही हुई थी। इसके अलावा चीन में वहाँ की सरकार ने हालाँकि मंदी से निपटने के लिए नये शहर बसाने और रियल स्टेट में खूब मुद्रा झोंकी, लेकिन वहाँ के कई शहरों में तमाम अपार्टमेंट खाली पड़े हैं क्योंकि उन्हें लेने वाला कोई ख़रीदार नहीं मिल रहा है। इस वजह से उन्हें भुतहा शहर (घोस्ट सिटी) भी कहा जाने लगा है। भारत के शासक भी ‘स्मार्ट सिटी’ का जुमला उछालकर उसी नक़्शे-क़दम पर चल रहे हैं और इसे देख पाना मुश्किल नहीं है कि भारत में इन स्मार्ट शहरों का चीन जैसा ही हश्र होगा। लेकिन पूँजीवाद के हर संकट की तरह इस संकट का कहर भी मुख्य रूप से मेहनतकश आबादी को ही झेलना पड़ेगा। रियल एस्टेट सेक्टर के संकट का असर अभी से देश के तीन करोड़ निर्माण मज़दूरों पर दिखना शुरू हो गया है। यह पूँजीवाद जनित त्रासदी नहीं तो और क्या है कि जो लोग दूसरों के आशियाने बनाते हैं उनके खुद के आशियाने का कोई ठिकाना नहीं होता। जो अस्थायी ठिकाना उन्हें निर्माणाधीन आवासीय और वाणिज्यिक परिसरों के आसपास मिलता है उसका भी भविष्य अनिश्चित नज़र आ रहा है। ज़ाहिर है कि पूँजीवादी संकट के बढ़ने के साथ ही साथ बेकारी भी बढ़ती जायेगी और बेघरों तथा झुग्गियों में रहने वालों की तादाद भी। पूँजीवाद के इस अन्तर्विरोध को कम करने के जो नीम-हकीमी नुस्खे सुझाये जाते हैं — मसलन होम लोन की ब्याज दरें कम करना, सस्ते घर उपलब्ध कराना आदि-आदि — वे इस संकट को दूर कर ही नहीं सकते क्योंकि वे समस्या की जड़ की शिनाख़्त नहीं करते। समस्या की जड़ तो पूँजीवाद है और इसलिए पूँजीवाद के ख़ात्मे के बगैर यह समस्या हल हो ही नहीं सकती। तमाम अन्य समस्याओं की ही तरह आवास की समस्या का समाधान भी एक ऐसे समाज में ही हो सकता है जिसमें आवास को मुनाफ़ा कमाने के लिए बाज़ार के माल की तरह नहीं बल्कि इंसान की नैसर्गिक ज़रूरत के रूप में देखा जाय और इसी मक़सद से इमारतों का निर्माण हो। सबके लिए आवास तभी उपलब्‍ध कराया जा सकता है जब उत्पादन के साधनों पर मेहनत करने वालों का मालिकाना हक़ हो, न कि मुठ्ठी भर परजीवियों का।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

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