अपनी जान जोखिम में डालकर पूँजीवादी समाज का इलेक्ट्रॉनिक कचरा साफ़ करते मज़दूर
दिल्ली के सीलमपुर के ई-कचरा मज़दूरों की ज़िन्दगी की ख़ौफ़नाक तस्वीर
आनन्द सिंह
खाये-पीये-अघाये मध्यवर्ग के लोग भारत में पूँजीवादी विकास के फ़ायदों को गिनाते नहीं थकते। इस पूँजीवादी विकास के पक्ष में दलील देते समय वे अक्सर मोबाइल फ़ोन, स्मार्ट फ़ोन, कम्प्यूटर, लैपटॉप, टैबलेट और भाँति-भाँति के इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के इस्तेमाल में आयी अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी को विकास का पैमाना बताकर अपने राष्ट्र की प्रगति पर खुशी से फूले नहीं समाते। पूँजीवादी समाज में प्रचलित माल-अन्धभक्ति (कमोडिटी फ़ेटेशिज़्म) से ग्रसित लोगों के जे़हन में यह बात आती ही नहीं कि जिन मालों का वे उपयोग कर रहे हैं, उनके बनने की प्रक्रिया क्या है। वे यह नहीं देख पाते कि जिन इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स पर वे इतना इतराते हैं उनके बनने की पूरी प्रक्रिया मज़दूरों के निर्मम शोषण व उत्पीड़न पर टिकी होती है। यही नहीं जब वे अपने पुराने इलेक्ट्रॉनिक गैजेट के बदले नये मॉडल के गैजेट लेते हैं तो उनके दिमाग़ में यह विचार ही नहीं आता कि जिन पुराने गैजेट्स को उन्होंने रद्दी में फेंक दिया है उनका क्या होता है। अगर कोई ईमानदारी से इस पूरी प्रक्रिया के बारे में जानने की कोशिश करे तो वह पायेगा कि इन गैजेट्स के बनने की पूरी प्रक्रिया से लेकर उनके कचरों के निस्तारण तक के हर चरण में इंसानी ज़िन्दगी को तबाह करने की अनकही दास्तान है, चाहे वह कांगो जैसे देशों में इन गैजेट्स में लगने वाले टिन व टेंटेलम जैसे खनिजों की खुदाई में लगे मज़दूर हों, या चीन में फॉक्सकॉन जैसी कम्पनियों की फैक्ट्रियों में इन गैजेट्स के उत्पादन में लगे मज़दूरों की ज़िन्दगी हो, या फिर उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सीलमपुर इलाक़े में इलेक्ट्रॉनिक कचरे के निस्तारण में लगे ई-कचरा मज़दूर हों, मुनाफ़े की अन्धी हवस में धरती के इस कोने से उस कोने तक विचरण करती पूँजी मुनाफ़ा तो कमाती है, लेकिन इन सभी मज़दूरों की ज़िन्दगी को तहस-नहस करने के बाद। इस लेख में हम दिल्ली के सीलमपुर ई-कचरा केन्द्र में काम करने वाले मज़दूरों पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।
पिछले दो दशकों में भारत में तथाकथित सूचना क्रान्ति की चमक-दमक के पीछे सीलमपुर जैसे ई-कचरा केन्द्रों में काम कर रहे मज़दूरों की अँधेरी ज़िन्दगी मानो छिप सी जाती है। जहाँ भारत इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की खपत के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में शामिल है, वहीं दूसरी ओर इन गैजेट्स से पैदा होने वाले ई-कचरे के मामले में यह विकसित देशों को भी मात दे रहा है। लेकिन विकसित देशों में ई-कचरे के निस्तारण के सख़्त क़ानून हैं और उन देशों में पर्यावरण सुरक्षा के साथ-साथ मज़दूरों के लिए आवश्यक सुरक्षा उपकरणों के इस्तेमाल के प्रावधानों को सख़्ती से लागू किया जाता है, जबकि भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में एक तो सख़्त क़ानून ही नहीं हैं, और जो क़ानून हैं भी उनका पालन भी नहीं किया जाता। नतीजतन भारत में हर साल पैदा होने वाले लगभग तीस लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरे के टुकड़े-टुकड़े करने और उनको रीसाइकल करने (फिर किसी काम लायक बनाने) के काम का 90 फ़ीसदी अनौपचारिक क्षेत्र में होता है। यही नहीं भारत के लचीले क़ानून और उनका पालन करने वाली संस्थाओं के लचर रवैये का लाभ उठाकर तमाम विदेशी कम्पनियाँ भी अपने इलेक्ट्रॉनिक कचरे को भारत में ही लाकर पटक देती हैं। भारत में हर साल मुम्बई और गुजरात के बन्दरगाहों के ज़रिये क़रीब 50,000 टन विदेशी इलेक्ट्रॅानिक कचरा यहाँ पहले से ही एकत्र इलेक्ट्रॉनिक कचरे के पहाड़ को और बड़ा बना देता है। ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ में छपी एक ख़बर के मुताबिक भारत में ई-कचरा उद्योग लगभग 8,000 करोड़ रुपये का से भी अधिक का है, जिसमें आधे से से ज़्यादा ई-कचरे का कारोबार दिल्ली के सीलमपुर, मायापुरी, पुणे, चेन्नई, मुरादाबाद, बेंगलूरू जैसे बड़े ई-कचरा केंद्रों में होता है।
भारत में सबसे बड़े पैमाने पर ई-कचरा को तोड़ने का काम दिल्ली में किया जाता है। दिल्ली के उत्तर-पूर्व स्थित सीलमपुर में रोज़ाना लगभग एक टन ई-कचरा इलाक़े की लगभग 300 छोटी-छोटी फैक्ट्रियों में तोड़ा जाता है। इन फैक्ट्रियों में बड़ी संख्या में बच्चे और महिलाएँ भी काम करते हैं। ज़हरीले हालात में 10-12 घंटे काम करने के बाद इन मज़दूरों की दैनिक आय 200 रुपये से भी कम की होती है। ये ई-कचरा मज़दूर बिना किसी मास्क या सुरक्षा उपकरण के ही काम करते हैं। वे मदर-बोर्ड या सर्किट बोर्ड को आग की लपटों से पिघलाकर या एसिड में डुबोकर उनमें से लेड (सीसा), मरकरी (पारा), कैडमियम, क्रोमियम जैसे ख़तरनाक पदार्थ और कॉपर, सोना, चाँदी जैसी क़ीमती धातुएँ अलग करते हैं। इस प्रक्रिया में जो ज़हरीला धुआँ निकलता है उसके ज़रिये सीसा और पारा जैसे ख़तरनाक तत्व उनके शरीर में भी चले जाते हैं जो उनके स्नायु तंत्र, उनके फेफड़ों और गुर्दे पर बहुत नुक्सानदेह असर डालते हैं। बच्चों पर ख़ास तौर से इसका बहुत बुरा असर होता है क्योंकि उनकी बीमारियों से लड़ने की क्षमता बहुत कम हो जाती है। पूँजीपतियों की संस्था एसोचैम (एसोसिएशन ऑफ इण्डियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज़) के ख़ुद के सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के 76 प्रतिशत ई-कचरा मज़दूर दमा, ब्रोंकाइटिस जैसी साँस की बीमारी से ग्रसित हैं। यही नहीं इन मज़दूरों में कैंसर जैसी प्राणघातक बीमारियों की सम्भावना बढ़ जाती है। वर्ष 2010 में दिल्ली के ही मायापुरी कबाड़ी बाज़ार की घटना एक ख़तरे की घण्टी थी जब कोबाल्ट-60 नामक रेडियोधर्मी पदार्थ के विकिरण के असर से एक व्यक्ति की मौत हो गयी थी, जबकि 7 अन्य ज़ख़्मी हो गये थे। इसके बावजूद सीलमपुर, मायापुरी, शास्त्री पार्क, तुर्कमान गेट, मुस्तफ़ाबाद, लोनी, मुंडका, मंडोली जैसी जगहों पर इलेक्ट्रॉनिक कचरे और मेटल-वर्क रिकवरी द्वारा मज़दूरों की ज़िन्दगी में लगातार ज़हर घोलना बदस्तूर जारी है। सीलमपुर जैसे इलाक़ों के नालों में और वहाँ की पूरी आबोहवा में इस कचरे की भयावहता का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है।
ई-कचरा मज़दूरों की ज़िन्दगी में ज़हर घोलने के अलावा इलेक्ट्रॉनिक कचरे में मौजूद सीसा, पारा, कैडमियम जैसे तत्व पर्यावरण को भी जबर्दस्त नुक़सान पहुँचाते हैं। ये तत्व ज़मीन का उपजाऊपन नष्ट करते हैं, जलाये जाने पर हवा को प्रदूषित करते हैं और भूजल में मिलकर पीने के पानी को भी ज़हरीला बना देते हैं। ज़ाहिर है कि पर्यावरण के विनाश का असर आम ग़रीब आबादी को ही सबसे ज़्यादा झेलना पड़ता है। इस प्रकार इलेक्ट्रॉनिक कचरा न सिर्फ़ ई-कचरा मज़दूरों को बल्कि मज़दूरों की आने वाली पीढ़ियों की ज़िन्दगी में भी ज़हर घोलने की सम्भावना रखता है।
सवाल यह उठता है कि इस ख़तरनाक ई-कचरे और उससे मज़दूरों की ज़िन्दगी में ज़हर घोलने के लिए कौन ज़िम्मेदार है? सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी इलेक्ट्रॉनिक सामान जैसे कि मोबाइल, कम्प्यूटर, चार्जर, हेडफोन, सीडी, एलसीडी/प्लाज़्मा टीवी, रेफ्रिजरेटर, एसी आदि बनाने वाली कम्पनियों की है। ये दैत्याकार कम्पनियाँ अपने-अपने ब्राण्डों की मार्केटिंग, विज्ञापन और नये-नये मॉडल के लिए शोध-अनुसंधान में तो खूब पैसा ख़र्च करती हैं क्योंकि इसके ज़रिये वे अपने ग्राहक बनाकर अकूत मुनाफ़ा कमाती हैं। लेकिन इस मुनाफ़े के धन्धे के अन्त में जो इलेक्ट्रॉनिक कचरा बनता है उनका निस्तारण करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती क्योंकि उस पर ध्यान देने से उनके मुनाफ़े में गिरावट आ जायेगी। विकसित देशों में पर्यावरण क़ानूनों के सख़्ती से लागू होने की वजह से इन कम्पनियों को मजबूरन ई-कचरे के निस्तारण की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है, लेकिन भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में वही कम्पनियाँ ई-कचरे के निस्तारण को लेकर पूरी तरह उदासीन रहती हैं। यही नहीं ये कम्पनियाँ अकूत मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए इलेक्ट्रॉनिक्स गैजेट्स के नित-नये मॉडल बाज़ार में लाती हैं और विज्ञापनों के ज़रिये लोगों में माल अन्धभक्ति की संस्कृति व मानसिकता पैदा की जाती है जिसका असर यह होता है कि लोग पुराने मॉडलों को ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करने की बजाय उनके बदले नये-नये मॉडल ख़रीदते रहते हैं और इस प्रकार पुराने मॉडल ई-कचरा में तब्दील होते रहते हैं। पूँजीवादी समाज में इन इलेक्ट्रॉनिक्स कॅम्पनियों के अस्तित्व में बने रहने की शर्त ही यही है कि वे लगातार इलेक्ट्रॉनिक सामान और इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा करती रहें। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ये कम्पनियाँ पूरे समाज में जो ज़हर घोलती हैं उसकी ज़िम्मेदारी उनपर न आये इसके लिए नेताओं और उच्च अधिकारियों की जेबें ग़रम करती हैं।
ऐसे में यह सवाल लाज़िमी है कि इस समस्या का समाधान क्या हो। निश्चित रूप से इस माँग पर जनमत बनाया जाना चाहिए कि इलेक्ट्रॉनिक कम्पनियों द्वारा ई-कचरे के निस्तारण की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए नये क़ानून बनें और उन्हें सख़्ती से लागू किया जाये। साथ ही ई-कचरा निस्तारण उद्योग में लगे मज़दूरों को सुरक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैय्या करानी चाहिए। लेकिन ई-कचरे की समस्या के जड़मूल समाधान के बारे में सोचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इस समस्या के लिए समाज का पूँजीवादी ढाँचा ही ज़िम्मेदार है, जिसमें चीज़ें लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि समाज के मुट्ठीभर लोगों की मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए पैदा की जाती हैं, जहाँ ज़रूरतें कृत्रिम तौर पर विज्ञापनों और मार्केटिंग के ज़रिये पैदा की जाती हैं। यह सामाजिक-आर्थिक ढाँचा खदानों से खनिज निकालने से लेकर कारख़ानों में चीज़ों के उत्पादन से होते हुए उन चीज़ों से पैदा होने वाले कचरे के निस्तारण तक की पूरी प्रक्रिया के हर चरण पर मेहनतकश आबादी को तबाह-बरबाद करने के साथ ही समूचे पर्यावरण का विनाश करने पर आमादा है। ऐसे में जो लोग वास्तव में ई-कचरे जैसी समस्या के बारे में चिन्तित हैं उन्हें उत्पादन की प्रक्रिया के एक विशेष क्षेत्र पर ही अपना ध्यान सीमित करने के बजाय समूची उत्पादन प्रणाली और उन उत्पादन सम्बन्धों के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए जिसमें ई-कचरे जैसी समस्या पैदा होती ही रहेगी। यानी इस समस्या को जड़ से तभी ख़त्म किया जा सकता है जब ऐसा सामाजिक-आर्थिक ढाँचा बनाया जाये जो लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हो न कि मुनाफ़ा कमाने के लिए। केवल ऐसी ही व्यवस्था में ई-कचरा निकलने को भी नियंत्रित किया जा सकेगा और मेहनतकश आबादी की ज़िन्दगी में ज़हर घोले बगैर ई-कचरे के निस्तारण का उचित प्रबन्ध भी सम्भव हो सकेगा।
मज़दूर बिगुल, जून 2016
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