छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के ख़िलाफ़ सरकार का आतंकी युद्ध एक नये आक्रामक चरण में
जनपक्षधर आवाज़ों को बर्बरता से कुचलने की क़वायद तेज़
शिशिर
इस वर्ष उस घटना के 50 साल हो गये जब 1966 में इंदिरा गाँधी की सरकार ने मिज़ोरम राज्य (जोकि तब असम का ही हिस्सा था) की राजधानी आइज़ोल में कई दिनों तक भारतीय वायु सेना की मदद से अपने ही नागरिकों के ऊपर बम गिराये थे। नक्सलवाद यानि वामपंथी उग्रवाद से निपटने के नाम पर कुछ ऐसी ही तैयारी मोदी सरकार भी कर रही है। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संस्थान (इसरो) की मदद से सीधे हवाई हमले की तैयारियाँ की जा रही हैं। और सब कुछ बिना किसी प्रतिरोध के निपटाने के लिए वहाँ वस्तुपरक रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों, आदिवासियों की क़ानूनी मदद करने वाले वकीलों एवं तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को लगातार प्रताड़ित किया जा रहा है। इस राज्य प्रायोजित आतंकी दमन को अनौपचारिक रूप से “मिशन 2016” का नाम दिया गया है।
वर्ष 2004 में ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को भारत की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताया था। छत्तीसगढ़ का आदिवासी तबका तबसे लेकर अब तक सलवा जुडूम और ऑपरेशन ग्रीनहंट जैसे राज्य प्रायोजित आतंकवाद को झेलता रहा है। दमन की इसी नीति को आगे बढ़ाते हुए मोदी सरकार इसे बिल्कुल नये चरण में ले जाने की तैयारी में है। हाल की कुछ घटनाओं पर एक सरसरी निगाह डालने से दमन की भयावहता स्पष्ट हो जाती है।
पत्रकार संतोष यादव जो आदिवासियों की समस्याओं को राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मीडिया तक सफलतापूर्वक ले जाते रहे हैं, उन्हें पिछले साल नग्न करके उनके साथ मारपीट की गयी। ऐसे ही एक आदिवासी पत्रकार सोमारू नाग को लगातार तीन दिनों तक ग़ैरक़ानूनी ढंग से हिरासत में रखकर प्रताड़ित किया गया। ऑनलाइन समाचार पोर्टल ‘स्क्रॉल’ के लिए लिखने वाली मालिनी सुब्रमण्यम के घर पर हमला करके उन्हें धमकियाँ दी गईं और अन्तत: उन्हें जगदलपुर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। आदिवासियों की क़ानूनी मदद करने वाले ‘जगदलपुर लीगल एड ग्रुप’ से सम्बद्ध वकीलों को भी ‘बाहरी’ होने के नाम पर लगातार स्थानीय प्रशासन और स्थानीय वकीलों द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है और अब इस समूह के कई वकीलों को वहाँ से भागना पड़ रहा है। मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी यही हालत है। प्रसिद्ध कार्यकर्ता बेला भाटिया के ख़िलाफ़ ‘विदेशी नक्सल दलाल’ कहते हुए पर्चे निकाले गये और आदिवासियों के लिए निर्भीकता से लड़ने वाली सोनी सोरी को चुप कराने के लिए उनके चेहरे पर तेज़ाबी रासायनिक पदार्थ तक पोता गया।
तमाम मुखर आवाज़ों के बर्बर दमन के अलावा राज्यसत्ता सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिबन्धित किये गये सलवा जुडूम को ही दूसरे नामों से फिर से शुरू करने की कोशिश में है। सलवा जुडूम की ही तर्ज़ पर वहाँ ‘बस्तर विकास संघर्ष समिति’, ‘महिला एकता मंच’ और ‘सामाजिक एकता मंच’ जैसे कई नये समूह उभर कर आ रहे हैं। देश की सबसे भ्रष्ट राज्य सरकारों में से एक, छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ”माओवाद” से लड़ने के नाम पर अपने तमाम कुकर्मों पर पर्दा डालने में लगी है।
सर्वविदित है कि छत्तीसगढ़ के जिन इलाक़ों को सरकार नक्सल-प्रभावित बता रही है वहाँ कोयला, लौह अयस्क, बॉक्साइट जैसे खनिज प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं। इन्हीं खनिजों पर देशी-विदेशी पूँजीवादी गिद्धों की नज़रें गड़ी हुई हैं और इसीलिए वहाँ के आदिवासियों को उनके जल-जंगल-ज़मीन से बेदखल करना पूँजीवाद की ज़रूरत है। आदिवासी वहाँ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और ”माओवादी” भी उनके पक्ष से राज्यसत्ता के ज़मीन हड़पो अभियान का प्रतिरोध कर रहे हैं। मनमोहन सिंह या मोदी को देश के एक छोटे-से इलाक़े में सिमटा आन्दोलन इसीलिए ”सबसे बड़ा ख़तरा” नज़र आता है क्योंकि इसके कारण उनके लुटेरे मालिकों की हवस पूरी नहीं पा रही है। देशभर में साम्प्रदायिकता की आग लगा रहे संगठनों से उन्हें आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा नज़र नहीं आता। आज छत्तीसगढ़ में जिस तरह से हर तरह की जनपक्षधर आवाज़ को दबाया जा रहा है, वायु सेना तक के प्रयोग की तैयारियाँ चल रही हैं, उससे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राज्यसत्ता की रणनीति है इन इलाक़ों को एक अँधेरे कैदख़ाने में तब्दील कर देने की, जिसकी कोई ख़बर बाहर मुख्यधारा में आ ही ना सके, और बर्बर दमन को बिना किसी अवरोध के अंजाम दिया जा सके। इराक़, सीरिया जैसे देशों की हालत पर एक सरसरी निगाह डालने से स्पष्ट हो जाता है कि हवाई हमलों में सबसे ज़्यादा अन्तत: आम जनता ही मारी जाती है और बेघर होती है। कहने को तो वायुसेना का दावा है कि वो बस “जवाबी कार्रवाई” या “आत्म-रक्षा” में माओवादियों के ख़िलाफ़ हमले करेगी पर हक़ीक़त में तो आम आदिवासी विकलांग होंगे, आम आदिवासियों के घर जलेंगे, आम आदिवासियों के बच्चे मरेंगे और अनाथ होंगे! अभी भी आये दिन पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों द्वारा किये जाने वाले फ़र्ज़ी एनकाउंटर, अपहरण, हत्या और सामूहिक बलात्कारों का शिकार आम आदिवासी हो रहे हैं। अभी तक इनमें से जो छिटपुट घटनाएँ मीडिया में आ जाती थीं अब उन्हें भी पूरी तरह से ख़ामोश किया जा रहा है। आने वाले दिनों में दमनात्मक कार्रवाइयों की भयावहता की केवल कल्पना ही की जा सकती है।
विचारधारात्मक रूप से जहाँ भाजपा और संघ के लिए अपने हिन्दुत्व के एजेंडे को बढ़ाने के लिए ‘रेड ज़ोन’ को ख़त्म करने की कवायदें स्वाभाविक हैं, वहीं निर्मम तानाशाही आज विश्वव्यापी मन्दी की मार झेल रहे पूँजीवाद की सख़्त ज़रूरत भी है। ऐसे में दंगों की सीढ़ियाँ चढ़कर सीएम से पीएम बनने वाले नरेन्द्र मोदी यदि भारतीय पूँजीपति वर्ग के सबसे चहेते चेहरे हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। गहराते आर्थिक संकट के दौर में पूँजीपति वर्ग अपनी परियोजनाओं में किसी भी किस्म के अवरोध झेल पाने की क्षमता नहीं रखता, और इसलिए मुनाफ़े की गिरती दर को रोकने के लिए अपनी राज्यसत्ता द्वारा आम जनता का दमन करने के अलावा उसके पास और कोई रास्ता नहीं है। असल में यही है पूँजीवाद का असली चेहरा, यही है तथाकथित देशभक्ति के मायने जिसमें पूँजीपति वर्ग के नफ़े-नुकसान के हिसाब से ही ‘राष्ट्र’ के हित और अहित निर्धारित किये जाते हैं और जिसमें ज़रूरत पड़ने पर अपनी ही जनता के ख़िलाफ़ युद्ध करना और उस पर बमबारी करना भी ‘राष्ट्रहित’ में होता है।
मज़दूर बिगुल, जून 2016
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