मज़दूरों के लिए गुजरात मॉडल की असलियत 

राजेश, असंगठित स्वतंत्र मज़दूर, कलायत, कैथल, हरियाणा

मेरा नाम राजेश है। मेरी उम्र 36 वर्ष है। मैं हरियाणा के जिला कैथल के एक कस्बे कलायत का रहने वाला हूँ। मैं एक ग़रीब दलित मज़दूर परिवार से ताल्लुक रखता हूँ। मेरे पिताजी लकड़ी काटने का काम करते थे। ग़रीबी के चलते मेरी पढ़ाई भी ज़्यादा नहीं हो पायी यानि मुझे केवल अक्षर ज्ञान तक की ही जानकारी है। मैं अपने पिताजी के साथ काम पर जाता था परन्तु लकड़ी काटने की नयी-नयी मशीनें आने के कारण लकड़ी काटने और चीरने का काम काफ़ी सीमित हो गया। दिहाड़ीदारों के लिए अब काम नाममात्र ही रह गया है और वह भी ठेकेदारों के हाथों में ही सिमटा है। काम कभी मिलने कभी न मिलने के कारण घर का खर्च भी नहीं चल पाता था। बेरोज़गारी, ग़रीबी और महँगाई के चलते मैं परेशान रहने लगा। इनसे दुःखी होकर मैंने नशों का सहारा लेना शुरू कर दिया और शराब भी पीने लगा। मेरी गृहस्ती बिगड़ गयी, दिक्कतें बढ़ती गयी और घर पर हर समय टेंशन रहने लगा। इसी बीच एक आदमी ने मुझे गुजरात में काम दिलवाने की बात कही।

गुजरात में मुझे 10,000 रुपये महीना तनख्वाह, घर आने-जाने का खर्च, खाने-पीने और रहने की व्यवस्था मिलना तय हुआ। मुझसे कहा गया कि तुम्हारी तनख्वाह पूरी की पूरी तो बच ही जायेगी! मैं बेरोज़गारी, नशों और घर-बाहर के तानों से परेशान हो चुका था। मैं अपने अन्दर सुधार लाना चाहता था क्योंकि बड़ी दिक्कतों के बाद मेरी पत्नी मेरी लड़कियों के साथ वापस घर आयी थी जोकि पहले झगड़ों के कारण मायके चली गयी थी।

दलाल की बातों का भरोसा करके हम पाँच लोग हरियाणा से मज़दूरी करने के मक़सद से गुजरात की ओर उस आदमी के साथ चल दिये। यह बात जनवरी 2016 की है। हम हिम्मतनगर की एक जगह श्यामनगर पहुँचे। वहाँ पर हमें एक आलू स्टोर में काम करना था। उस आलू स्टोर का ठेकेदार हरियाणा से ही था। अगले दिन सुबह पाँच बजे हमें जगा दिया गया और 20-25 मिनट के अन्दर तैयार होने के लिए कहा गया और उसके बाद हम सब काम पर थे। पहले दिन तो मुझे कुछ समझ ही नहीं आया कि यहाँ हो क्या रहा है, काम पर लगने के बाद घण्टे-दर-घण्टे गुजरते रहे, काम रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। हमें आलू की बोरियों को गाड़ियों से उतारकर क़रीब 20 फ़ीट गहरे ‘अण्डरग्राउण्ड’ स्टोर में लगाते जाना था, गोदाम की कभी किसी मंजिल तो कभी किसी मंजिल तक आलू की बोरियों को पहुँचाना था। गाड़ियों में लदान और उतरान का काम भी करना पड़ा। पहले भी मैंने कठोर मेहनत के काम किये थे किन्तु इस तरह से काम करने का यह पहला मौका था जब लगातार बिना रुके काम करना, न समय पर खाना और न समय पर पीना, सुस्ताने और पानी तक पीने पर भी ठेकेदार और उसके गुर्गों की गन्दी गालियाँ सुनना। पहले दिन हमें काम करते-करते रात के 11 बज गये क्योंकि नयी गाड़ियाँ आती रही उन्हें लादने और खाली करने का काम लगातार होता रहा।

पहले दिन मैंने सोचा कि आज काम ज़्यादा होगा इसलिए ऐसा हुआ होगा। उस रात पूरे शरीर में दर्द हो रहा था इसलिए ढंग से नींद भी नहीं आ पायी। सुबह पाँच बजे फिर उठने के लिए आवाजें आनी शुरू हो गयी कि पाँच बज गये और 20 मिनट के अन्दर तैयार हो जाओ, साथ-साथ गन्दी से गन्दी गालियाँ भी सुनायी जा रही थी। रोज़ ऐसा ही चलता रहा। सुबह पाँच बजे से लेकर हमसे रात के 11-12 बजे तक जी तोड़ मेहनत के साथ काम लिया जाता, बैल और गधे को तो आराम भी नसीब हो जाता है और गालियों को वे समझ नहीं सकते पर हमारे लिए तो यह भी नहीं था। सुबह आठ बजे चाय, एक से डेढ़ बजे के बीच में खाना और फ़िर रात को काम ख़त्म होने के बाद खाना। सब्जी के नाम पर सिर्फ आलू। वहाँ लदाई, उतराई और ड्राइवरों को मिलाकर कुल 150 मज़दूर थे। हम स्टोर में काम करने वाले कुल 35 व्यक्ति थे जिनमें छह बिहार से थे और बाकि सब हरियाणा से थे। मैं एक खाते-पीते इलाक़े से आया था, काम के दौरान मुझे इतनी दिक्कतें कभी नहीं हुई थीं और मैंने कभी फैक्ट्री में ठेकेदारों के तले भी काम नहीं किया बस भाई-बन्धुओं से सुना भर था। अब मुझे मालिक-ठेकेदार की ‘नस्ल’ का अहसास हुआ। यहाँ पर हर आदमी अपनी क्षमता की सीमाओं  टूटने तक काम करने के लिए मजबूर था लेकिन ठेकेदार फिर भी गन्दी गालियाँ देने से बाज़ नहीं आता था। कम उम्र हो या फिर उम्रदराज सभी को वह गालियाँ देता रहता था। मैंने उससे कहा भी कि आप हमारे हरियाणा से ही तो हो फिर हमारे साथ अच्छा व्यवहार क्यों नहीं करते? मगर ऐसा करके मैंने अपनी फ़ज़ीहत कराने का ही काम किया।

हमसे रोज़ 18 से 19 घण्टे काम करवाया जा रहा था, जब हम टॉयलेट जाते तो भी ठेकेदार या उसके गुर्गे साथ-साथ जाते और जल्दी करो-जल्दी करो की रट्ट लगाये रहते। हम गुलामों सी ज़िन्दगी जी रहे थे, कोई भी आदमी गोदाम से बाहर नहीं जा सकता था, आपस में काम के दौरान बात नहीं कर सकता था और ज़रा सी कमर सीधी करते ही गालियों की बौछार होने लगती थी। जब मैं छोटा था तो मैंने दलित मज़दूरों को खेतों में बन्धुआ मज़दूर जैसे हालातों में काम करते और बेगारी खटते देखा था लेकिन यहाँ पर हमारी स्थिति तो उनसे कहीं बदतर ही जान पड़ती थी। इतना काम करने पर शरीर का एक-एक अंग टूट जाता था इसलिए हमें हर रोज़ दर्द के लिए 3-4 पेनकिलर गोलियाँ खानी पड़ती थीं। ‘डेक्लोफेनिक सोडियम’ नाम की यह दवा बाज़ार में 5 रुपये के तीन पत्ते आसानी से मिल जाती है पर यहाँ ठेकेदार अपने स्टोर से हमें बीस रुपये का एक पत्ता देता था। सभी मज़दूर सुबह उठते ही दर्द की दवा खाने को मजबूर थे नहीं तो शरीर को हिला भी नहीं सकते थे। हम एक-दूसरे की मदद भी बस इस तरह से कर सकते थे कि दो शब्द सांत्वना के बोलकर जेब से पेन किलर उसे देकर बोल देते थे कि जल्दी काम पर लग जा वरना ठेकेदार देख लेगा। वहाँ मज़दूरों की जेब में पैसा, बीड़ी, मोबाइल हो न हो लेकिन दर्द की दवा ज़रूर मिलेगी। वहाँ इंसानों को इंसान नहीं बल्कि गुलाम समझा जाता था, काम करने वाले गुलाम। पहले दिन की बनी थकावट आज भी शरीर महसूस सकता है। वहाँ पर मैं करीब एक महीना रहा पर वह एक महीना मेरे लिए कई बरसों के समान है। वहाँ पर समय जैसे ठहर सा गया था। लगातार 18 से 19 घण्टे काम करने और अच्छा खाना न मिलने के कारण मैं बीमार पड़ गया पर ठेकेदार मुझसे अब भी काम करवाता रहा, बेबस होने के बाद भी वह मुझे गालियाँ देता रहता था। एक पुराने मज़दूर ने जब कहा कि ऐसे तो यह मर ही जायेगा तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से ठेकेदार काम से छुट्टी देने को तैयार हुआ। अब मेरी हालत यह थी कि मैं ठीक से चल भी नहीं पाता था। मुझे पास के ही एक डॉक्टर से दवा दिलाकर कमरे पर लाया गया जहाँ पहले से ही दो अन्य मज़दूर लेटे हुए थे। मैं टॉयलेट तक भी रेंगकर और लड़खड़ाते हुए बड़ी मुश्किल से जा पा रहा था फिर भी मुझे घर नहीं जाने दिया गया। दो दिन बाद ठेकेदार कमरे पर आकर गालियाँ देने लगा और मुझे रसोई में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। चार-पाँच दिन बाद जालिम ठेकेदार से मिन्नतें करके मैं उससे पीछा छुड़ा पाया हूँ। मोदी का गुजरात मॉडल मेरे पर बहुत भारी पड़ा है।

कलायत में बिगुल मज़दूर दस्ता के साथी अपने अभियानों में यह बात रखते थे कि देश में मज़दूरों के हालात बहुत बुरे हैं। गुजरात में काम करने के दौरान मुझे एक-एक बात याद आ रही थी। मज़दूरी तो मैं पहले भी करता था पर गुजरात में हालात बेहद नारकीय थे। मैं जैसे-तैसे घर तो पहुँच गया हूँ पर अब भी ढंग से चल नहीं पा रहा हूँ। मेरी कमाई के ज़्यादातर पैसे तो दवाओं पर ही ख़र्च हो गये और अब भी इलाज चल ही रहा है। इस समाज में मनुष्य का जहाँ मनुष्य के द्वारा ही इतना भयंकर शोषण हो रहा हो ऐसा समाज रहने के लायक कैसे हो सकता है? इस शोषण पर आधारित समाज का ख़ात्मा बेहद ज़रूरी है।

मज़दूर बिगुल, जून 2016


 

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