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जी.एन. साईबाबा मामले की रोशनी में भारतीय पूँजीवादी न्याय व्यवस्था का सच

उच्चतम न्यायालय ने पिछले महीने अक्टूबर में बम्बई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच के फ़ैसले को निलम्बित करते हुए ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के अन्तर्गत दर्ज माओवादियों से तथाकथित सम्बन्ध मामले में जी.एन. साईबाबा समेत पाँच अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं की रिहाई पर रोक लगा दी। ज्ञात हो कि उच्चतम न्यायालय के इस आदेश से पहले बम्बई हाई कोर्ट ने जी.एन. साईबाबा व अन्य चार लोगों को रिहा करने का फ़ैसला सुनाया था।

“बुलडोज़र” बन रहा है फ़ासिस्ट हुक्मरानों की दहशत की राजनीति का नया प्रतीक-चिह्न!

फ़ासीवादी सरकारें “क़ानून के राज” को क़ायम करने के लिए आम मुसलमानों के घरों पर ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से बुलडोज़र चला रही हैं और पूँजीवादी विपक्षी दलों से लेकर उच्चतम न्यायलय समेत सभी अदालतें तक इस आतंक और दहशत के ताण्डव को मूक दर्शक बने देख रहे हैं। ऐसे हज़ार मामलों में से किसी एक मामले में यदि अदालतें हस्तक्षेप करती भी हैं तो संशोधनवादियों, सामाजिक-जनवादियों समेत पूरा वाम-उदार तबक़ा लहालोट हो उठता है मानो क्या ग़ज़ब का काम किया हो! जिन 999 मामलों में अदालतों की ज़ुबान पर ताले लटके रहते हैं उनको विस्मृति के अँधेरे में धकेल दिया जाता है और उनपर कोई बात भी नहीं होती है। यह भी सोचने वाली बात है कि बुलडोज़र द्वारा ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से मुसल्मानों के घरों को गिराये जाने के एक भी मसले में सर्वोच्च न्यायलय या उच्च न्यायालयों ने स्वतः संज्ञान नहीं लिया। इसके लिए भी पूर्व न्यायाधीशों को सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश से अदालती हस्तक्षेप की गुहार लगानी पड़ी थी। क्या यह मौजूदा न्याय व्यवस्था के बारे में कुछ नहीं बताता?

‘देह व्यापार’ स्त्रियों-बच्चों के विरुद्ध शोषण, हिंसा, असहायता और विकल्पहीनता में लिथड़ा पूँजीवादी मवाद है!

सर्वोच्च न्यायलय द्वारा 19 मई को वेश्यावृत्ति को वैध क़रार दिए जाने सम्बन्धी फ़ैसला दिया गया है जिसकी काफ़ी चर्चा हो रही है। इन फ़ैसले के तहत ‘देह व्यापार’ में लगी स्त्रियों के “पुनर्वास” को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को कुछ दिशानिर्देश दिए गए हैं। साथ ही उक्त फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायलय ने वेश्यावृत्ति अथवा ‘देह व्यापार’ को एक “पेशा” य “व्यवसाय” माना है और कहा है कि पुलिस “अपनी इच्छा से” वेश्यावृत्ति कर रही “सेक्स वर्कर्स” के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाई न करे।

पंजाब में धार्मिक चिह्नों की “बेअदबी” के नाम पर मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाएँ

पंजाब में सिख धार्मिक चिह्नों की तथाकथित बेअदबी और “बेअदबी” करने वालों की धार्मिक कट्टरपन्थियों द्वारा सरेआम हत्याओं के एक के बाद एक मामले सामने आ रहे हैं। हाल ही में घटी एक वारदात में स्वर्ण मन्दिर, अमृतसर में एक युवक की इसी “बेअदबी” के नाम पर उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या कर दी गयी। एक अन्य घटना में कपूरथला में सिख धर्म के प्रतीक निशान साहिब का “अपमान” करने के नाम पर एक और युवक की कट्टरपन्थियों द्वारा पीट-पीटकर हत्या कर दी गयी।

मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का वर्ग चरित्र और उसकी हालिया अभिव्यक्तियाँ

धनी किसान आन्दोलन को दिल्ली के बॉर्डरों पर शुरू हुए एक साल पूरा होने को है। इस एक साल के दौरान आन्दोलन के धनी किसान-कुलक वर्ग चरित्र को बेनक़ाब करती हुई कई घटनाएँ सामने आयी हैं। हाल में ही दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर धार्मिक कट्टरपन्थी निहंगों द्वारा एक दलित मज़दूर को बेरहमी से मार देने की घटना भी इसी वर्ग चरित्र को उजागर करने वाली एक प्रातिनिधिक घटना है। धार्मिक ग्रन्थ की कथित बेअदबी के नाम पर एक दलित मज़दूर को प्रदर्शन स्थल पर मार दिया जाता है और इसका कोई प्रतिकार तक नहीं होता है! उल्टे, इस आन्दोलन के नेतृत्व द्वारा ख़ुद को उक्त घटना से अलग करने के प्रयास तत्काल शुरू हो गये थे।

भारत में ट्रेड यूनियन अधिकार सम्बन्धी क़ानून: एक मज़दूर वर्गीय समीक्षा

हमारे देश में कहने के लिए तो मज़दूरों के लिए दर्जनों केन्द्रीय और सैकड़ों राज्य श्रम क़ानून काग़ज़ों पर मौजूद हैं पर तमाम कारख़ानों-खेतों खलिहानों में काम करने वाले करोड़ों श्रमिक अपनी जीवन स्थितियों से जानते और समझते हैं कि इन क़ानूनों की वास्तविकता क्या है और हक़ीक़त में ये कितना लागू होते हैं। देश के असंगठित-अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत मज़दूर आबादी तो वैसे भी इन तमाम क़ानूनों के दायरे में बिरले ही आती है। वहीं औपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठित कामगारों-कर्मचारियों के तबक़े को भी इस क़ानूनी संरक्षण के दायरे से बाहर करने की क़वायदें तेज़ हो रही हैं। बावजूद इसके इन श्रम क़ानूनों के वास्तविक चरित्र की चर्चा कम ही होती है।

भारतीय राज्य द्वारा कश्मीरी क़ौम के दमन के इस नये क़दम से क्या बदले हैं कश्मीर के सूरतेहाल?

इस साल 5 अगस्त को मोदी सरकार द्वारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35 ए को हटाये जाने के दो साल पूरे हो गये और साथ ही जम्मू-कश्मीर राज्य को तीन टुकड़ों में बाँटे जाने और केन्द्रशासित प्रदेश में तब्दील किये जाने के भी दो साल पूरे हो गये। भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी क़ौम से किये गये अनगिनत विश्वासघातों की लम्बी फेहरिस्त में 5 अगस्त, 2019 को तब एक नयी कड़ी जुड़ गयी थी जब केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में अनुच्छेद 370 और 35 ए निरस्त करने की घोषणा की थी।

असम-मिज़ोरम विवाद के मूल कारण क्या हैं?

हाल में भारत के दो उत्तर-पूर्वी राज्य असम-मिज़ोरम के बीच सीमा-विवाद से जुड़ा हुआ घटनाक्रम काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा। उत्तर-पूर्व का नाम सुनकर हममें से कुछ को लग सकता है कि इतनी दूर-दराज़ की घटना से हम मज़दूरों-मेहनतकशों का सरोकार भला क्यों होना चाहिए! इसलिए होना चाहिए क्योंकि यह भी मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति को समझने और जानने के लिए आवश्यक है। किसी भी रूप में दबायी जा रही या उत्पीड़‍ित हो रही जनता और उसकी समस्याओं और संघर्षों से सरोकार रखे बिना मज़दूर वर्ग व्यापक मेहनतकश जनता की क्रान्तिकारी एकता क़ायम नहीं कर सकता है।

धनी किसान-कुलक आन्दोलन का हालिया घटनाक्रम और “किसान-मज़दूर एकता” के नारे की असलियत

धनी किसान आन्दोलन को शुरू हुए छह महीने से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है। हाल ही में आन्दोलन के छह महीने पूरे होने पर 26 मई को किसानों द्वारा ‘काला दिवस’ मनाया गया था। लेकिन इस मौक़े पर हुए तमाम विरोध प्रदर्शनों में वैसी तादाद और तेवर नहीं दिखे, जो धनी किसान आन्दोलन के शुरुआती दौर में मौजूद थे। दिल्ली की सरहदों पर जारी इस आन्दोलन की जुटानों में पहले के मुक़ाबले किसानों की शिरक़त भी काफ़ी घटी है।

पाँच राज्यों में सम्पन्न चुनावों के नतीजे और सर्वहारा वर्गीय नज़रिया

मार्च-अप्रैल 2021 में बंगाल सहित चार राज्यों असम, तमिलनाडु, केरल और पुद्दुचेरी केन्द्रशासित प्रदेश में सम्पन्न विधानसभा चुनावों के परिणाम हाल में सामने आये हैं। पश्चिम बंगाल में सत्ता फिर से तृणमूल कांग्रेस के हाथ में आयी है, जबकि यहाँ भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। असम में भी एक बार फिर से भाजपा गठबन्धन की सरकार बनने जा रही है। तमिलनाडु में कांग्रेस के साथ मिलकर द्रमुक गठबन्धन चुनाव में विजयी हुआ है और भाजपा के सहयोगी अन्नाद्रमुक गठबन्धन को हार का सामना करना पड़ा है।