कविता – उन्नीस सौ सत्रह, सात नवम्बर / नाज़िम हिकमत
और यूँ दर्ज की बोल्शेविकों ने इतिहास में
इतिहास के सर्वाधिक गम्भीर मोड़-बिन्दु की तारीख़:
उन्नीस सौ सत्रह
सात नवम्बर!
और यूँ दर्ज की बोल्शेविकों ने इतिहास में
इतिहास के सर्वाधिक गम्भीर मोड़-बिन्दु की तारीख़:
उन्नीस सौ सत्रह
सात नवम्बर!
मैं सोचता हूँ जिन्होंने इतने सारे काम किये
उन सबका मालिक भी उन्हीं को होना चाहिए।
और जो रोटी पकाते हैं उन्हें वह खानी भी चाहिए।
और खदान में काम करने वालों को रोशनी चाहिए।
ज्ञानी जो,
और जो बच्चों से,
जो विध्वंसक हैं।
और निर्माता हैं –
उन्हीं की गाथा हमारी पुस्तक में है।
काम न मिलने पर
अपने तीन भूखे बच्चों को लेकर
कूद पड़ी हंजूरी कुएं में
कुएं का पानी ठण्डा था।
जनरल ने अपनी खिड़की से देखा
तुम यहां मत खड़े हो, वह बोला
घर चले जाओ भले लोगों की तरह
अगर तुम्हें कुछ चाहिए, तो लिख भेजो।
हम रुक गये, खुली सड़क पर:
‘हम हल्ला मचायें इसके पहले
वे हमें खिला देंगे।’
लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया
जबकि हम देखते रहे उनकी धुंवा देती
चिमनियों को।
इंसाफ की रोटी जब इतनी महत्वपूर्ण है
तब दोस्तों कौन उसे पकाएगा?
दूसरी रोटी कौन पकाता है?
दूसरी रोटी की तरह
इंसाफ की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिए
भरपेट, पौष्टिक, रोज-ब-रोज।
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला,
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे अंधरे का ताला,
एक पाठ पढेंगे, टाट बिछाओ|
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
राजे ने अपनी रखवाली की;
किला बनाकर रहा;
बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं ।
चापलूस कितने सामन्त आए ।
सीखो दोस्तो सीखो, सीखो दोस्तो सीखो!
बुनियाद से, बुनियाद से, बुनियाद से!
बुनियाद से शुरु करो
तुमको अगुआ है बनना!