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कविता – फिर लोहे के गीत हमें गाने होंगे / शशिप्रकाश

सत्ता के महलों से कविता बाहर लानी होगी ।
मानवात्‍मा के शिल्पी बनकर आवाज़ उठानी होगी ।
मरघटी शान्ति की रुदन भरी प्रार्थना रोकनी होगी ।
आशाओं के रण-राग हमें रचने होंगे ।
फिर लोहे के गीत हमें गाने होंगे ।

जोसेफ़ स्तालिन की एक दुर्लभ कविता

उसकी पीठ और कमर झुक गई थी
लगातार काम करते करते।
जो कल तक दासता की बेड़ियों में बंद
घुटने टेके हुए था,
वह अपनी आशा के पंखों पर उड़ेगा
सबसे ऊपर, ऊपर उठेगा।
मैं कहता हूँ उसकी ऊंचाई पर
पहाड़ तक
अचरज और ईर्ष्या करेंगे।

कविता – उन्नीस सौ सत्रह, सात नवम्बर / नाज़ि‍म हिकमत

और यूँ दर्ज की बोल्शेविकों ने इतिहास में
इतिहास के सर्वाधिक गम्भीर मोड़-बिन्दु की तारीख़:
उन्नीस सौ सत्रह
सात नवम्बर!

कविता : अंधेरे के सभी लोगों के लिए सूर्य के फल हों / पाब्‍लो नेरूदा

मैं सोचता हूँ जिन्होंने इतने सारे काम किये
उन सबका मालिक भी उन्हीं को होना चाहिए।
और जो रोटी पकाते हैं उन्हें वह खानी भी चाहिए।
और खदान में काम करने वालों को रोशनी चाहिए।

कविता – असंख्य / नाजिम हिकमत Poem – The Multitudes / Nazim Hikmet

ज्ञानी जो,
और जो बच्चों से,
जो विध्वंसक हैं।
और निर्माता हैं –
उन्हीं की गाथा हमारी पुस्तक में है।

कविता – हंजूरी / सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

काम न मिलने पर
अपने तीन भूखे बच्चों को लेकर
कूद पड़ी हंजूरी कुएं में
कुएं का पानी ठण्डा था।

कविता – आठ हजार गरीब लोगों का नगर के बाहर इकट्ठा होना : बर्तोल्त ब्रेख्त

जनरल ने अपनी खिड़की से देखा
तुम यहां मत खड़े हो, वह बोला
घर चले जाओ भले लोगों की तरह
अगर तुम्‍हें कुछ चाहिए, तो लिख भेजो।
हम रुक गये, खुली सड़क पर:
‘हम हल्‍ला मचायें इसके पहले
वे हमें खिला देंगे।’
लेकिन किसी ने ध्‍यान नहीं दिया
जबकि हम देखते रहे उनकी धुंवा देती
चिमनियों को।

कविता – जनता की रोटी : बर्तोल्त ब्रेख्त Poem – The bread of the people : Bertolt Brecht

इंसाफ की रोटी जब इतनी महत्वपूर्ण है
तब दोस्तों कौन उसे पकाएगा?
दूसरी रोटी कौन पकाता है?
दूसरी रोटी की तरह
इंसाफ की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिए
भरपेट, पौष्टिक, रोज-ब-रोज।

कविता – जल्द -जल्द पैर बढ़ाओ ,आओ ,आओ ! / सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला,
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे अंधरे का ताला,
एक पाठ पढेंगे, टाट बिछाओ|

कविता – तोड़ती पत्थर / सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।