कविता – भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की / शंकर शैलेन्द्र
भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की.
भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की.
क्यों तुम भू–स्वामियों के हेतु
भूमि जोतते हो,
दे रहे जो नीची से नीची स्थिति तुम्हें?
क्यों तुम उन स्वामियों के हेतु
बुन रहे हो यह
नूतन आकर्षक वस्त्र्
पटुता से, अथक परिश्रम से;
जिससे उन वस्त्रों को, जो कि बहुमूल्य हैं,
क्रूर वे शासक–गण गौरव से पहनें?
किसने बनाया सात द्वारों वाला थीब?
किताबों में लिखे हैं सम्राटों के नाम।
क्या सम्राट पत्थर ढो-ढोकर लाये?
क्या तनहाई बदल सकती है
तेरी तस्वीर?
या तो बन्दूक तेरे वास्ते
या फिर जंजीर!
अब मुझे कमजोर और नाकारा न समझना
अपनी पूरी ताकत के साथ मैं तुम्हारे साथ हूँ
अपनी धरती की आजादी की राह पर
मेरी आवाज घुलमिल गयी है हजारों जाग उठी औरतों के साथ
ये मत कहो बहनो कि तुम कुछ नहीं कर सकतीं
आस्था की कमी अब और नहीं
हिचक अब और नहीं
आओ, पूछें अपने आप से
क्या चाहते हैं हम?
तुमने मुझे बाँधा है
जकड़ा है ज़ंजीरों में
पर लपटें मेरे क्रोध की
धधकती हैं, लपकती हैं।
नहीं कोई आग इतनी तीखी
क्योंकि मेरी पीड़ा के ईंधन से
ये जीती हैं, पनपती हैं।
सिर्फ वेदनाएं
दुख की गाथाएं
चलती रहेंगी अनंत काल तक
या
हम उठ खड़े होंगे
अंतिम क्षड़ों में?
अन्त नहीं होगा
जहां अन्त होना था,
वहीं शुरुआत की सुबह खिल उठेगी।
धमकी पर धमकी देते हुए
डर पर डर फैलाए
वह खुद डर गया
वह निवास स्थान से डर गया
वह पानी से डर गया
वह स्कूलों से डर गया
वह हवा से डर गया
आज़ादी को उसने बेड़ियां पहना दीं
मगर हथकड़ियां खनकी
वह उस आवाज से डर गया।
जब यहाँ से निकल के जाएगा
कारखानों के काम आयेगा
अपने मजबूर पेट की खातिर
भूक सरमाये की बढ़ाएगा