सरकारी आँकड़ों की हवाबाज़ी और अर्थव्यवस्था की ख़स्ताहाल असलियत
पिछले कुछ वर्षों के इतिहास को देखें तो बाजार में माँग के संकट की वजह से उद्योगों के स्थापित क्षमता से कम पर काम कर पाने से उनकी लाभप्रदता में गिरावट हुई है। इससे बहुत सारे उद्योग उत्पादन क्षमता के विस्तार हेतु निवेश की गयी स्थाई पूँजी की बड़ी मात्रा पर ऋणदाताओं की मूल देनदारी ही नहीं उस पर ब्याज तक चुकाने में असमर्थ हो गए हैं। इसका नतीजा बैंकों द्वारा दिए गए कर्जों की वसूली में संकट और कर्ज के डूब जाने में सामने आया। लगभग 12-14 लाख करोड़ रुपये के बैंक कर्ज इस तरह दबाव में आ गए। लगभग 9 लाख करोड़ अभी एनपीए हैं जबकि बीजेपी सरकार के पहले साढ़े तीन वर्षों में ही करीब पौने तीन लाख के कर्ज बैंकों को बट्टे खाते में (राइट ऑफ़) डालने पड़े। इस संख्या में भी इसका ब्याज शामिल नहीं है।