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सुब्रत राय सहारा: परजीवी अनुत्पादक पूँजी की दुनिया का एक धूमकेतु

यूँ तो पैराबैंकिंग क्षेत्र में पूरे देश में पिछले 40 वर्षों से बड़े-बड़े घोटाले (ताजा मामला सारदा ग्रुप का है) होते रहे हैं, पर सुब्रत राय अपने आप में एक प्रतिनिधि घटना ही नहीं बल्कि परिघटना हैं। सुब्रत राय भारत जैसे तीसरी दुनिया के किसी देश में ही हो सकते हैं, जहाँ अनुत्पादक परजीवी पूँजी का खेल राजनेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों, तरह-तरह के काले धन की संचयी जमातों और काले धन के सिरमौरों की मदद से खुलकर खेला जाता है। लेकिन पूँजी के खेल के नियमों का अतिक्रमण जब सीमा से काफी आगे चला जाता है तो व्यवस्था और बाज़ार के नियामक इसे नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाते हैं और तब सबसे “ऊधमी बच्चे” को या तो कोड़े से सीधा कर दिया जाता है या खेल के मैदान से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। सुब्रत राय के साथ यही हुआ है।

कविता – यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है! / कात्‍यायनी

जागो मृतात्माओ!
बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे सकते हैं।
कायरो! सावधान!!
भागकर अपने घर पहुँचो और देखो
तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत,
बीवी घर में महफूज़ तो है।
बहन के घर फ़ोन लगाकर उसकी भी खोज-ख़बर ले लो!
कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है
तुम्हारे घर और कुनबे की?

ज़ियनवादी नरसंहार, फिलिस्तीनी जनता का महाकाव्यात्मक प्रतिरोध और आज की दुनिया

इज़रायली हमले का उद्देश्य अगर फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध संघर्ष को ख़त्म करना है तो इसमें वह कभी कामयाब नहीं होगा। अगर हमास ख़त्म भी हो गया तो उसकी जगह कोई उससे भी ज़्यादा कट्टरपन्थी संगठन ले सकता है। दूसरी सम्भावना यह भी है कि धार्मिक कट्टरपन्थ के नतीजों को देखने के बाद फिलिस्तीनी जनता के बीच से रैडिकल वामधारा को मज़बूती मिले। लेकिन इतना तय है कि फिलिस्तीनियों का प्रतिरोध संघर्ष थमेगा नहीं। फिलिस्तीन का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि अगर उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया तो इज़रायल उन्हें नेस्तनाबूद कर देगा।

सुधार के नीमहकीमी नुस्ख़े बनाम क्रान्तिकारी बदलाव की बुनियादी सोच

”भ्रष्टाचार मुक्त” पूँजीवाद भी सामाजिक असमानता मिटा नहीं सकता और सबको समान अवसर नहीं दे सकता। दूसरी बात यह कि पूँजीवाद कभी भ्रष्टाचारमुक्त हो ही नहीं सकता। जब भ्रष्टाचार का रोग नियन्त्रण से बाहर होकर पूँजीवादी शोषण-शासन की आर्थिक प्रणाली के लिए और पूँजीवादी जनवाद की राजनीतिक प्रणाली के लिए सिरदर्द बन जाता है, तो स्वयं पूँजीपति और पूँजीवादी नीति निर्माता ही इसपर नियन्त्रण के उपाय करते हैं। तमाम किस्म के राजनीतिक सुधारवादियों की जमातें बिना क्रान्तिकारी बदलाव के, व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ”भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन” करने लगती हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था की ‘नियन्त्रण एवं सन्तुलन’ की आन्तरिक यान्त्रिकी है। सुधारवादी सिद्धान्तकारों का शीर्षस्थ हिस्सा तो पूँजीवादी व्यवस्था के घाघ संरक्षकों का गिरोह होता है। उनके नीचे एक बहुत बड़ी नीमहकीमी जमात होती है जो पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली का अध्ययन किये बिना कुछ यूटोपियाई हवाई नुस्ख़े सुझाती रहती है और जनता को दिग्भ्रमित करती रहती है। ऐसे लोगों की नीयत चाहे जो हो, वे पूँजीवाद के फटे चोंगे को रफू करने, उसके पुराने जूते की मरम्मत करने और उसके घोड़े की नाल ठोंकने का ही काम करते रहते हैं।

कात्यायनी की दो कविताएँ

नहीं पराजित कर सके जिस तरह
मानवता की अमर-अजेय आत्मा को,
उसी तरह नहीं पराजित कर सके वे
हमारी अजेय आत्मा को
आज भी वह संघर्षरत है
नित-निरन्तर
उनके साथ
जिनके पास खोने को सिर्फ़ ज़ंजीरें ही हैं
बिल्कुल हमारी ही तरह!