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फ़ॉक्सकॉन के मज़दूरों का नारकीय जीवन

चीन की फ़ॉक्सकॉन कम्पनी एप्पल जैसी कम्पनियों के लिए महँगे इलेक्ट्रॉनिक और कम्प्यूटर के साजो-सामान बनाती है। इसके कई कारख़ानों में लगभग 12 लाख मज़दूर काम करते हैं। यहाँ जिस ढंग से मज़दूरों से काम लिया जाता है उसके चलते 2010 से 2014 तक ही में 22 ख़ुदकुशी की घटनाएँ सामने आयीं और कई ऐसी घटनाओं को दबा दिया गया। दुनियाभर में “कम्युनिस्ट” देश के तौर पर जाने वाले चीन का पूँजीवाद इससे ज़्यादा नंगे रूप में ख़ुद को नहीं दिखा सकता था। चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। परन्तु बाज़ारों में पटे सस्ते चीनी माल चीन के मज़दूरों के हालात नहीं बताते हैं। पर फ़ॉक्सकॉन की घटना पूरे चीन की दुर्दशा बताती है।

नमक की दलदलों में

नमक की दलदलो में 50 डिग्री तापमान में झुलसाती हुयी धूप में मज़दूर घंटो काम करते हैं। काम के आदिम रूप की कल्पना इस से ही की जा सकती है कि एक परिवार को दुसरे परिवार को सन्देश देने के लिए शीशे (रोशनी से) का इस्तेमाल करना पड़ता है। नमक की दलदल नुमा खेत मज़दूरों के तलवों, एडियो, और हथेलियों को छिल देते हैं जिससे नमक मांस में और खून में मिल जाता है। जो नमक मज़दूर अपनी मेहनत से पैदा करते हैं वही उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है। अगरिया मज़दूरों में कहावत है कि उनकी मौत तीन तरह यानी गार्गरिन, टीबी या अंधेपन (नमक के कारण) से होती है। कईं मज़दूर कैंसर या ब्लड प्रेशर की बीमारी से मर जाते हैं। कईं अगरिया मज़दूर जवानी में मर जाते हैं- कच्छ के खरघोडा गाँव की 12000 की आबादी में 500 विधवाएं हैं! नमक के खेतों से मज़दूरों को पीने का पानी लेने के लिए 15-20 किलोमीटर साईकिल चला कर जाना पड़ता है। मौत के बाद भी यह नमक मज़दूरों का पीछा नहीं छोडता है क्योंकि हाथ और पैरों में घूस जाने के कारण मज़दूरों के अंतिम संस्कार के दौरान उनके हाथ और पैर नहीं जलते हैं। इन्हें नमक की ज़मीन में ही दफ़न किया जाता है।

निर्माण क्षेत्र में मन्दी और ईंट भट्ठा मज़दूर

ईंट उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, 250 लाख टन कोयला की खपत के साथ देश भर में एक साल में लगभग 200 अरब ईंटे बनाने वाले इन मज़दूरों की जि़न्दगी नारकीय है। भट्ठा मज़दूर सबसे अमानवीय हालात में काम करने को मजबूर होते हैं। इनमें से अधिकतर मज़दूरों से भट्ठा मालिक गुलामो की तरह काम कराते हैं। देश भर से कईं ऐसी घटनाएँ सामने आयीं हैं जहाँ भट्ठा मालिकों ने मज़दूरों को आग में झोंककर मार दिया। न तो ईंट मज़दूरों के बच्चे पढ़ ही पाते हैं और ज़्यादातर की किस्मत में इसी उद्योग में खपना लिखा होता है। भट्ठों में बिना किसी सुरक्षा साधन या मास्क के 7000-10000 डिग्री तापमान में काम करने से मज़दूर को फेफड़ों से लेकर आँख की बीमारियाँ होती हैं। ज़्यादातर प्रवासी मज़दूर यहाँ बारिश के मौसम को छोड़कर सालभर काम में लगे रहते हैं। बच्चे से लेकर औरतें सभी को ये भट्ठे निगल जाते हैं।

पर्यावरण संरक्षण का खेल

बताने की ज़रूरत नहीं है कि पर्यावरण के विनाश का नुकसान सबसे ज्यादा ग़रीब जनता को ही उठाना पड़ता है। 12-14 घण्टे रोज़ फैक्टरियों में खटते हुए, मुर्गी के दड़बेनुमा और कूड़ेदानों से घिरी असुरक्षित झुग्गियों में रहते हुए, प्रदूषित भूजल का सीधे उपयोग करते हुए, या बाढ़ में कच्चे घरों के बह जाने से होने वाली बरबादी-तबाही को ग़रीब जनता ही झेलती है। अमीरों के पास बड़े-बड़े वातानुकूलित आफिस, वातानुकूलित घर, बाज़ार, स्कूल, गाड़ियाँ हैं, पानी साफ करने के यन्त्र हैं व अन्य सुविधाएँ हैं। सीधी बात यह कि इस पूँजीवादी समाज में तबाही ग़रीब जनता झेलती है और जो वह पैदा करती है उसका उपभोग जोंक रूपी मालिक वर्ग और उसके दलाल करते हैं। पर्यावरण को ख़तरा, जो अन्तत: मानवजाति के लिए ख़तरा है इस पूँजीवादी प्रणाली ने पैदा किया है।