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गम्भीर आर्थिक संकट में धँसती भारतीय अर्थव्यवस्था

देश में आर्थिक मन्दी की आहट अब शोर में तब्दील हो चुकी है। इस मन्दी का ख़ास तौर पर ऑटोमोबाइल सेक्टर में प्रभाव दिख रहा है। इस सेक्टर में मदर कम्पनियों से लेकर वेण्डर कम्पनियों तक में उत्पादन ठप्प पड़ा है। मारुति से लेकर होण्डा तक में शटडाउन चल रहा है, छोटे वर्कशॉप भी बन्द हो रहे हैं। देश-भर में ऑटोमोबाइल कम्पनियों के 300 से ज़्यादा शोरूम बन्द हो चुके हैं। क़रीब 52 हज़ार करोड़ रुपये मूल्य की 35 लाख अनबिकी कारें और दोपहिया वाहन पड़े सड़ रहे हैं। इसके कारण न सिर्फ़ ठेका मज़दूरों को काम से निकालने का नया दौर शुरू हो रहा है बल्कि पक्के मज़दूरों को भी कम्पनियों से निकालने की तैयारी हो रही है।

देश-भर में 8-9 जनवरी को हुई आम हड़ताल से मज़दूरों ने क्या पाया? इस हड़ताल से क्या सबक़ निकलता है?

जहाँ तक केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बात है तो इनसे पुछा जाये कि एकदिनी हड़ताल करने वाली इन यूनियनों की आका पार्टियाँ संसद विधानसभा में मज़दूर विरोधी क़ानून पारित होते समय क्यों चुप्पी मारकर बैठी रहती हैं? जब पहले से ही लचर श्रम क़ानूनों को और भी कमज़ोर करने के संशोधन संसद में पारित किये जा रहे होते हैं, तब ये ट्रेड यूनियनें और इनकी राजनीतिक पार्टियाँ कुम्भकर्ण की नींद सोये होते हैं। सोचने की बात है कि सीपीआई और सीपीएम जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और वि‍धानसभाओं में हमेशा मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं?

फासीवादियों का प्रचार तन्त्र

फासीवादी तकनोलोजी का इस्तेमाल करने में भी अव्वल होते हैं, गोएबल्स से सीख लेते हुए आज ये लोग टेलीविजन पर मीडिया के बड़े हिस्से में अपना प्रभुत्व क़ायम करे बैठे हैं। अख़बारों के ज़रिये लगातार मोदी का चेहरा, पेट्रोल पम्पों और बस स्टॉप से लेकर तमाम बसों पर मोदी और भाजपा के नारे सबसे अधिक चमकते हैं। फि़ल्मों में संघ की विचारधारा को घोल कर पेश किया जाता है, ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘ज़ोर लगाकर हईसा’ व तमाम फि़ल्मों में सीधे संघ की तारीफ़ आ जाती है। रेडियो पर ‘मन की बात’ के ज़रिये व्यवस्थित प्रचार करने में भी ये अव्वल हैं। सोशल मीडिया के हर रूप में यानी फे़सबुक, ट्विटर और व्हाट्सप्प के विराट तन्त्र का भी ये इस समय अधिकतम इस्तेमाल कर रहे हैं। अफ़वाह फैलाने में और अपने प्रचार को लगातार इन माध्यमों से लोगों तक  संघ के तमाम हिस्सों द्वारा पहुँचाया जा रहा है।

नरेन्द्र मोदी – यानी झूठ बोलने की मशीन के नये कारनामे

नरेन्द्र मोदी की मूर्खता का कारण उनका टटपुँजिया वर्ग चरित्र है और गली-कूचों में चलने वाली इस राजनीति में पारंगत प्रचारक, जिसे गुण्डई भी पढ़ सकते हैं, की बोली है जिसे वे प्रधानमन्त्री पद से बोलने लगते हैं। यह टटपुँजिया वर्ग चरित्र उनकी कई अभिव्यक्तियों में झलक जाता है, मसलन कैमरा देखते ही उनकी भाव-भंगिमा में ख़ास कि़स्म का बदलाव आता है, शायद शरीर में सिहरन भी होती हो जिस वजह से अक्सर अख़बारों में आये फ़ोटो में उनका चेहरा कैमरे की तरफ़ होता है।

वज़ीरपुर गरम रोला मज़दूरों की लम्बी हड़ताल के 2 साल होने पर

एकता हवा में नहीं बनती। मज़दूर जब एक साथ खड़े होते हैं तो उन्हें एक करने का काम उनकी यूनियन करती है जिसमें मज़दूरों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। मज़दूर अपने बीच से चुनाव करके यूनियन की नेतृत्वकारी समिति का गठन करते हैं जो मज़दूरों के आन्देालन का नेतृत्व करती है। आज दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन ही वज़ीरपुर के मज़दूरों की क्रान्तिकारी यूनियन है जिसका गठन मज़दूरों ने अपने बीच से किया था। इलाक़े में प्रवास के चलते बड़ी संख्या में बाहर से मज़दूर आये हैं और उन्हें भी यूनियन से जोड़कर यूनियन को मज़बूत बनाना होगा।

समाजवादी चीन और पूँजीवादी चीन की दो फैक्टरियों के बीच फर्क

पूँजीवादी देश में फैक्टरियों में निजी हस्तगतीकरण होता है और मज़दूरों के श्रम से पैदा हुआ बेशी मूल्य सीधे मालिक अपनी जेब में रखता है इसलिए इनकी उत्पादन व्यवस्था अधिकतम प्रोडक्शन पर जोर देती है और मज़दूर को मशीन के एक टूकड़े में बदल देती है। उसके बरक्स समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो मज़दूरों को उसके जीवन का असली आधार प्रदान करती है। हम आगे इस अंतर को और आगे विस्तारित करेंगे और सिर्फ फैक्टरी स्तर पर ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रहने की जगह में, सुविधाओं के ढाँचे के बारे में विस्तार से बात करते हुए समाजवाद और पूँजीवाद के अंतर के बारे में गहनता से समझेंगे। लेकिन एक बात यहाँ जो समझ में आती है कि फैक्टरी फ्लोर के स्तर पर समाजवादी चीन और पूँजीवाद चीन में ज़मीन आसमान का अंतर है। यह हमें समझना होगा कि हमें क्या चाहिए? फोक्स्कोन की फैक्टरी के हालात आज भारत की भी लगभग हर फैक्टरी के हालात हैं। यहाँ भी मैनेजमेंट और मज़दूर के बीच मालिक और गुलाम का सम्बन्ध है न कि किसी समूह के दो सदस्यों सरीखा व्यवहार है। हमें अपनी फैक्टरी के हालातों को बदलना है तो इस मैनेजमेंट को बनाने वाली मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था को ही ख़त्म करना होगा।

चीन में आर्थिक संकट और मज़दूर वर्ग

चीन के सामाजिक फासीवादी देश के पूँजीपतियों के लिए जहाँ संकट से बचने के लिए बेल आउट पैकेज दे रहा है वहीँ मज़दूरों को तबाह कर उनसे उनके तमाम अधिकार भी छीन रहा है। चीन में अमीर-गरीब पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। पार्टी के खरबपति “कॉमरेड” और उनकी ऐयाश संतानों का गिरोह व निजी पूँजीपती चीन की सारी संपत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी संपत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है। लेकिन मज़दूर वर्ग भी पीछे नहीं हैं और अपने हक़ और मांगों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। राज्य के दमन के बावजूद भी मज़दूर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। एक तरफ चीन का शासक वर्ग आर्थिक संकट के दौर में मज़दूरों को अधिक रियायतें नहीं दे सकता है और दूसरी तरफ मज़दूरों की ज़िन्दगी पहले से ही नरक में है और अब जब वे सड़कों पर उतरे हैं तो इसी कारण कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यह इस व्यवस्था का असमाधेय अन्तरविरोध है। इस अन्तरविरोध का समाधान मज़दूर वर्ग अपने पक्ष में सिर्फ तब कर सकता है जब वह मज़दूर वर्ग की पार्टी के अंतर्गत संगठित होकर चीनी शासकों का तख्ता पलट दे वरना संकट के ये कुचक्र चलते रहेंगे और पूँजीवादी व्यवस्था मर-मर कर भी घिसटती रहेगी।

आज की परिस्थिति और आगे का रास्ता

2014 की हड़ताल को एक साल बीत चुका है, जो वेतन में 1500 हमने हासिल किये थे, महँगाई बढ़ने के कारण आज हालत फिर पहले जैसी है। इस परिस्थिति में यूनियन की तरफ़ से मालिकों को न्यूनतम वेतन नोटिस दिये जा चुके हैं। गरम रोला की कुछ फ़ैक्टरियों में इस बार भी वेतन बढ़ा है परन्तु सभी फ़ैक्टरियों में नहीं बढ़ा है। ठण्डा रोला की फ़ैक्टरियों व स्टील लाइन की अन्य फ़ैक्टरी में मालिक दीवाली पर वेतन बढ़ाता है। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि सभी मज़दूर एक साथ वेतन वृद्धि व अन्य श्रम क़ानूनों को लागू करवाने को लेकर संघर्ष करें। यानी हमें अपनी लड़ाई को इलाक़ाई और पेशागत आधार पर कायम करना चाहिए। यही ऐसा रामबाण नुस्खा है जो हमारी जीत को सुनिश्चित कर सकता है। यानी माँग सभी पेशे के मज़दूरों की उठायी जाये। पिछले साल की हड़ताल में मुख्यतः गरम रोला के मज़दूरों ने हड़ताल की थी, जिसका समर्थन अन्य सभी मज़दूरों ने किया था जिस कारण से हम हड़ताल को 32 दिन तक चला पाये और आंशिक जीत भी हासिल की। इस बार हमें शुरुआत ही अपनी इलाक़ाई और पेशागत यूनियन के बैनर तले संगठित होकर करनी चाहिए। यानी गरम, ठण्डा, तेज़ाब, तपाई, रिक्शा, प्रेस, पोलिश, शेअरिंग व अन्य स्टील लाइन के मज़दूरों का एक साझा माँगपत्र हमें मालिकों के सामने रखना चाहिए। कोई भी हड़ताल इलाक़ाई और सेक्टरगत आधार पर लड़कर जीती जा सकती है।

‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अख़बारः लफ्फ़ाज़ी का नया नमूना

‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अखबार मज़दूर अख़बार मज़दूरों को ख़ुद मुक्त करने के नाम पर अन्त में सिर्फ़ इस व्यवस्था के घनचक्कर में ही फँसाये रखना चाहता है। दरअसल ख़ुद को दिमाग़ी मज़दूर बताने वाले ये बुरे बुद्धिजीवी लफ्फ़ाज़ हैं और हमें लेनिन की यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि लफ्फ़ाज़ मज़दूर वर्ग के सबसे बुरे दुश्मन होते हैं क्योंकि ये मज़दूरों के अपने होने का दावा कर उनमें भीड़ वृत्ति को जागृत करते हैं और आन्दोलन को अंदर से खोखला करते हैं। अभी तक निकले ‘वज़ीरपुर मज़दूर’ के दो अंकों में इन्होंने जमकर लफ्फ़ाज़ी की है। मज़दूरों को इन लफ्फ़ाज़ों को आंदोलन से दूर कर देना चाहिए।

केजरीवाल सरकार को वादों की याद दिलाने दिल्ली सचिवालय पहुँचे ठेका मज़दूरों पर पुलिस का बुरी तरह लाठीचार्ज

शांतिपूर्वक अपनी बात को मुख्यमन्त्री तक ले जाने के इरादे से आये दिल्ली भर के मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता को वहशी तरीक़े से पीटा गया। पुलिस के पुरुष कर्मियों ने महिलाओं को बुरी तरह पीटा जिसके कारण अनेक महिलाओं को गंभीर चोटें आयी, एक युवा महिला कार्यकर्ता की टांग टूट गयी और बहुत से लोगों के सर फूट गये। इतने पर भी दिल्ली पुलिस को चैन नहीं आया, रैपिड एक्शन फोर्स और दिल्ली पिुलस ने मिलकर मज़दूरों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा, आँसू गैस के गोले बारिश की तरह बरसाए गये। प्रदर्शन में महिलायें व बच्चे भी शामिल थे मगर पुलिस ने उन्हें भी नहीं बक्शा।