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पिछले बीस साल से ज़्यादा अरसे से हमारी पार्टी रोज़ाना जन-कार्य कर रही है, तथा पिछले दस-बारह वर्षों से वह रोज़ाना जनदिशा की चर्चा कर रही है। हमारा हमेशा यह मत रहा है कि क्रान्ति को विशाल जन-समुदाय पर निर्भर रहना चाहिए और सभी लोगों के प्रयत्नों पर निर्भर रहना चाहिए, तथा महज़ चन्द आदमियों द्वारा आदेश जारी किये जाने का हमने हमेशा विरोध किया है। लेकिन अब भी कुछ साथी अपने काम में जनदिशा को पूरी तरह कार्यान्वित नहीं करते।
As opposed to the metaphysical world outlook, the world outlook of materialist dialectics holds that in order to understand the development of a thing we should study it internally and in its relations with other things; in other words, the development of things should be seen as their internal and necessary self-movement, while each thing in its movement is interrelated with and interacts on the things around it. The fundamental cause of the development of a thing is not external but internal; it lies in the contradictoriness within the thing. There is internal contradiction in every single thing, hence its motion and development.
अध्यात्मवादी विश्व–दृष्टिकोण के विपरीत, भौतिकवादी द्वन्द्ववाद के विश्व–दृष्टिकोण का कहना है कि किसी वस्तु के विकास को समझने के लिए उसका अध्ययन भीतर से, अन्य वस्तुओं के साथ उस वस्तु के संबंध से किया जाना चाहिए; दूसरे शब्दों में वस्तुओं के विकास को उनकी आंतरिक और आवश्यक आत्म–गति के रूप में देखना चाहिए, और यह कि प्रत्येक गतिमान वस्तु को और उसके इर्द–गिर्द की वस्तुओं को परस्पर संबंधित तथा एक–दूसरे को प्रभावित करती हुई वस्तुओं के रूप में देखना चाहिए। किसी वस्तु के विकास का मूल कारण उसके बाहर नहीं बल्कि उसके भीतर होता है; उसके अंदरूनी अंतरविरोध में निहित होता है। यह अंदरूनी अंतरविरोध हर वस्तु में निहित होता है तथा इसीलिए हर वस्तु गतिमान और विकासशील होती है।
व्यवहार से ही सत्य की खोज करना और व्यवहार से ही सत्य को परखना और विकसित करना। इंद्रियग्राह्य ज्ञान से आरंभ करना और उसे गत्यात्मक रूप से बुद्धिसंगत ज्ञान में विकसित करना; उसके बाद बुद्धिसंगत ज्ञान से आरंभ करके गत्यात्मक रूप से क्रांतिकारी व्यवहार का पथ प्रदर्शन करना, जिससे कि मनोगत और वस्तुगत दुनिया में परिवर्तन लाया जा सके। व्यवहार, ज्ञान फिर व्यवहार, फिर ज्ञान। इस क्रम की अनंत काल तक आवृत्ति होती रहती है और हर आवृत्ति के साथ व्यवहार और ज्ञान की अंतर्वस्तु और अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंचती जाती है। यह है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का समूचा ज्ञान–सिद्धांत, यह है द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का जानने और कर्म करने की एकता का सिद्धांत।
1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद 1956 में आधुनिक संशोधनवादियों ने सोवियत संघ में पार्टी और राज्य पर कब्ज़ा कर लिया और ख्रुश्चेव ने स्तालिन की “ग़लतियों” के बहाने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी उसूलों पर ही हमला शुरू कर दिया। उसने “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता और शान्तिपूर्ण संक्रमण” के सिद्धान्त पेश करके मार्क्सवाद से उसकी आत्मा को यानी वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व को ही निकाल देने की कोशिश की। मार्क्सवाद पर इस हमले के ख़िलाफ़ छेड़ी गयी “महान बहस” के दौरान माओ ने तथा चीन और अल्बानिया की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद की हिफ़ाज़त की। दुनिया के पहले समाजवादी देश में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत दुनियाभर के सर्वहारा आन्दोलन के लिए एक भारी धक्का थी, लेकिन महान बहस, चीन में जारी समाजवादी प्रयोगों और चीनी पार्टी के इर्द-गिर्द दुनियाभर के सच्चे कम्युनिस्टों के गोलबन्द होने पर विश्व मजदूर आन्दोलन की आशाएँ टिकी हुई थीं।
हर देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे बुनियादी अधिकार होता है। यूँ तो देश का संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “कोई भी व्यक्ति अपने जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता”। लेकिन हम सभी जानते हैं कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोज़ाना हज़ारों लोग अपनी जान गँवा देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार 70 फ़ीसदी भारतीय अपनी आय का 70 फ़ीसदी हिस्सा दवाओं पर ख़र्च करते हैं। मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था ने हर मानवीय सेवा को बाज़ार के हवाले कर दिया है, जानबूझकर जर्जर और खस्ताहाल की गयी स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करने के नाम पर सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ निजीकरण व बाज़ारीकरण पर एक राय हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि दुनिया की महाशक्ति होने का दम्भ भरने वाली भारत सरकार अपनी जनता को सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवा भी उपलब्ध नहीं कर सकता है। ऐसे में हम अपने पड़ोसी मुल्क चीन के क्रान्तिकारी दौर (1949-76) की चर्चा करेंगे, जहाँ मेहनतकश जनता के बूते बेहद पिछड़े और बेहद कम संसाधनों वाले “एशिया के बीमार देश” ने स्वास्थ्य सेवा में चमत्कारी परिवर्तन किया, साथ ही स्वास्थ्य कर्मियों और जनता के आपसी सम्बन्ध को भी उन्नततर स्तर पर ले जाने का प्रयास किया।
माओ ने पहली बार यह स्पष्ट किया कि समाजवादी समाज में क्रान्तिपूर्ण समाज के अवशेष के रूप में बूर्जुआ विचार, परम्पराएं, मूल्य एवं आदतें एक लम्बे समय तक मौजूद रहती हैं और पर्याप्त अवधि तक छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन तथा लोगों के बीच असमानताओं एवं बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी के कारण पैदा हुई तरह-तरह की बुर्जुआ प्रवृत्तियाँ भी कम्युनिस्ट समाज की ओर गति की प्रतिकूल भौतिक शक्ति के रूप में काम करती रहती हैं। पार्टी के भीतर राज्य के संगठन में बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि मौजूद रहते हैं। जिसके कारण समाजवादी समाज में अन्तर्विरोध मौजूद रहते हैं जो समाजवादी संक्रमण की प्रक्रिया को बाधित करते रहते हैं। इस अन्तर्विरोध को हल करने के लिये माओ ने समाज के राजनीतिक-सांस्कृतिक (अधिरचना) दायरे में समाजवादी क्रान्ति को अन्त तक चलाने को अनिवार्य बताया।
मैं मानता हूं कि अगर किसी व्यक्ति, राजनीतिक दल, सेना या स्कूल पर दुश्मन हमला नहीं करता तो हमारे लिए यह बुरी बात है क्योंकि इसका निश्चित रूप से यह मतलब होता कि हम दुश्मन के स्तर तक नीचे सरक आये हैं। दुश्मन द्वारा हमला किया जाना अच्छा है क्योंकि यह साबित करता है कि हमने दुश्मन और अपने बीच एक स्पष्ट विभाजक-रेखा खींच दी है। अगर दुश्मन हम पर उन्मत्त होकर हमला करता है और हमें किसी भी गुण से रहित एकदम काले रूप में चित्रित करता है तो यह और भी अच्छा है। यह दिखाता है कि हमने न केवल दुश्मन और अपने बीच एक स्पष्ट विभाजक-रेखा खींच दी है बल्कि अपने काम में काफ़ी कुछ हासिल भी कर लिया है।
सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के तहत जब पूँजीवादी पथगामियों के ख़िलाफ जनान्दोलन जारी था उस समय माओ-त्से-तुङ ने कहा था कि अगर चीन की राज्यसत्ता पर पूँजीवादी पथगामी काबिज़ हो भी जाते हैं तो चीनी जनता उन्हें एक दिन भी चैन की नींद नहीं सोने देगी। कामरेड माओ की यह भविष्यवाणी पूरी तरह सच साबित हुई। चीनी मेहनतकश जनता ने पूँजीवादी पथगामियों के राज्यसत्ता हथियाने के बाद पूँजीवादी सुधारों का जवाब ज़बर्दस्त आन्दोलनों से दिया है।
माओ ने कहा था कि चीन में पूँजीवादी राते के राही अगर सत्ता पर कब्ज़ा करने में कामयाब भी हो गये तो वे चैन से नहीं बैठ पायेंगे। चीन में मज़दूरों और ग़रीब किसानों के लगातार तेज़ और व्यापक होते संघर्ष इस बात का संकेत दे रहे हैं कि चीन के नये लुटेरे शासकों के चैन के दिन अब लद चुके हैं। वह दिन बहुत दूर नहीं जब चीन में फिर से एक सच्ची क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी उठ खड़ी होगी जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए पूँजीवाद को उखाड़ फेंककर कम्युनिज्म की ओर एक नये लम्बे अभियान में चीनी जनता का नेतृत्व करेगी।