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रतन टाटा : अच्छे पूँजीवाद का ‘पोस्टर बॉय’

जब टाटा की तुलना रिलायंस या अडानी से की जाती है तो कई ‘प्रगतिशील’ नाराज़ हो जाते हैं और दावा करते हैं कि टाटा समूह ने अद्वितीय नैतिक मानकों को बनाये रखा है और इसकी तुलना इन भ्रष्ट समूहों से नहीं की जा सकती। या तो ये उदारवादी घोर अज्ञानता में जी रहे होते हैं, या अपने पसन्दीदा ब्राण्डों के कारनामों को भूलने का सचेत प्रयास कर रहे होते हैं। आइए देखते हैं टाटा ग्रुप की कुछ उपलब्धियाँ।

एक बार फिर न्यूनतम वेतन बढ़ाने के नाम पर नौटंकी करती सरकारें!

न्यूनतम वेतन का सवाल बाज़ार से और अन्ततः इस पूँजीवादी व्यवस्था से जुड़ता है। इस व्यवस्था में मज़दूरों का वेतन असल में मालिक का मुनाफ़़े और मज़दूर की ज़िन्दगी की बेहतरी के लिए संघर्ष का सवाल है। वेतन बढ़ोतरी के लिए मज़दूरों को यूनियन में संगठित होकर लड़ना ही होगा। फैक्ट्री में मज़दूर को बस उसके जीवनयापन हेतु वेतन भत्ता दिया जाता है और बाक़ी जो भी मज़दूर पैदा करता है, उसे मालिक अधिशेष के रूप में लूट लेता है। अधिक से अधिक अधिशेष हासिल करने के लिए मालिक वेतन कम करने, काम के घण्टे बढ़ाने या श्रम को ज़्यादा सघन बनाने का प्रयास करते हैं और इसके खि़लाफ़ मज़दूर संगठित होकर ही संघर्ष कर सकता है। हमें यह बात समझनी होगी कि न्यूनतम वेतन के क़ानून को भी अपनी एकता के दम पर लड़कर ही लागू कराया जा सकता है। दिल्ली में आँगनवाड़ी कर्मियों, वज़ीरपुर के स्टील मज़दूर, करावल नगर के बादाम मज़दूर हमारे सामने उदाहरण भी है जिन्होंने एकजुट होकर हड़ताल के दम पर अपना न्यूनतम वेतन बढ़वाया है। लेकिन इस माँग को उठाते हुए यह भी समझना चाहिए कि महज़ इतना ही करते रहेंगे तो चरखा कातते रह जायेंगे और वेतन-भत्ते की लड़ाई के गोल-गोल चक्कर में घूमते रह जायेंगे। महँगाई बढ़ेगी तो बढ़ी मज़दूरी फिर कम होने लगती है।

देश में बेतहाशा बढ़ती बेरोज़गारी

भारत में बेरोज़गारी तेजी से बढ़ रही है। भले ही लोगों का विकास नहीं हो रहा हो, पर बेरोज़गारी में लगातार ‘विकास’ देखने को मिल रहा है। करोड़ों मज़दूर और पढ़े-लिखे नौजवान, जो शरीर और मन से दुरुस्त हैं और काम करने के लिए तैयार हैं, उन्हें काम के अवसर से वंचित कर दिया गया है और मरने, भीख माँगने या अपराधी बन जाने के लिए सड़कों पर धकेल दिया गया है। आर्थिक संकट के ग़हराने के साथ हर दिन बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बहुत बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है, जिन्हें बेरोज़गारी के आँकड़ों में गिना ही नहीं जाता लेकिन वास्तव में उनके पास साल में कुछ दिन ही रोज़गार रहता है या फिर कई तरह के छोटे-मोटे काम करके भी वे मुश्किल से जीने लायक कमा पाते हैं। हमारे देश में काम करने वालों की कमी नहीं है, प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के विकास और रोज़गार के अवसर पैदा करने की अनन्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं, फिर भी आज देश में बेरोज़गारी आसमान छू रही है।

पूँजीवाद आपके बेहतर जीवन के सपने को कैसे बर्बाद कर रहा है!

आप अगर भारत में रहने वाले निचले 90 प्रतिशत लोगो में शामिल हैं, जो मेहनत-मशक्कत कर एक बेहतर ज़िन्दगी का सपना देखते हैं, जिसमें आपका अपना घर हो, अच्छी नौकरी हो, बच्चे अच्छी शिक्षा पा रहे हों, तो आप यह ज़रूर जानते होंगे कि यह सपना पूरा होना आज कितना मुश्किल होता जा रहा है। देश की बहुसंख्यक आबादी की ज़िन्दगी इसी सपने को पूरा करने के प्रयास में ख़त्म हो जाती है।

विकास के खोखले दावों की पोल खोलते गिरते पुल, जलभराव, टूटी सड़कें!

हमसे ही वसूले गये टैक्स के पैसे को सरकार इन पब्लिक सेक्टर के कामों में लगाती है। इसका ठेका प्राईवेट कॉन्ट्रैक्टर व कम्पनियों को दिया जाता है और जो भाजपा को अधिक चन्दा देता है, इन कामों का ठेका उन्हें दे दिया जाता है। आपको याद ही होगा पिछले साल उत्तराखण्ड में जिस सुरंग के ढहने से मज़दूर फँस गये थे, उस सुरंग का निर्माण करने वाली कम्पनी नवयुग इन्जीनियरिंग ने भाजपा को 55 करोड़ का चन्दा दिया था। इससे पहले भी यह कम्पनी ज़मीन अधिग्रहण और प्रोजेक्ट तैयार करने को लेकर भी विवाद में लिप्त थी, पर भाजपा ने इनको धन्धा देकर अपना धर्म निभाया। ऐसे में सरकार द्वारा जारी तमाम टेण्डरों में भ्रष्टाचार होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

रेल व्यवस्था का ग़रीब विरोधी चरित्र! लगातार बढ़ते ट्रेन हादसे! ज़िम्मेदार मोदी सरकार!!

एक ओर रेलवे का नेटवर्क विस्तारित किया गया है, दूसरी ओर रेलवे में कर्मचारियों की संख्या को लगातार कम करके मोदी सरकार मौजूदा कर्मचारियों पर काम के बोझ को भयंकर तरीके से बढ़ा रही है। ऐसे में, दुर्घटनाओं और त्रासदियों की संख्या में बढ़ोत्तरी की सँभावना नैसर्गिक तौर पर बढ़ेगी ही। ऐसी जर्जर अवरचना के भीतर मोदी सरकार बुलेट ट्रेन के शेखचिल्ली के ख़्वाब दिखा रही है, तो इससे बड़ा भद्दा मज़ाक और कुछ नहीं हो सकता।

केन्द्रीय एजेंसियाँ बनी भाजपा के हाथों की केन्द्रीय कठपुतलियाँ!

केन्द्रीय एजेंसियाँ भाजपा की कठपुतली की तरह काम कर रही हैं। इसका कारण है पूरी सत्ता व मशीनरी में फ़ासीवादियों की पोर-पोर में पहुँच। फ़ासीवाद भारत में जिस कार्यपद्धति को लागू कर रही है उसकी भी जर्मन और इतालवी फ़ासीवादियों की कार्यपद्धति से काफ़ी समानता रही है। जर्मनी और इटली की तरह यहाँ पर भी फ़ासीवादी जिन तौर-तरीकों का उपयोग कर रहे हैं, वे हैं सड़क पर की जाने वाली झुण्ड की हिंसा; पुलिस, नौकरशाही, केन्द्रीय एजेंसी, सेना और मीडिया का फ़ासीवादीकरण; क़ानून और संविधान का खुलेआम मख़ौल उड़ाते हुए अपनी आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देना और इस पर उदारवादी पूँजीवादी नेताओं की चुप्पी; शुरुआत में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना और फिर अपने हमले के दायरे में हर प्रकार के राजनीतिक विरोध में ले आना। यह दुनिया भर के फ़ासीवादियों की साझा रणनीति रही है। फ़ासीवादी हमले का निशाना संस्थाएँ नहीं बल्कि व्यक्ति हुआ करते हैं और भारत में भी विरोधियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को आतंकित करने की यही नीति फ़ासीवादियों द्वारा अपनायी जा रही है।

बवाना औद्योगिक क्षेत्र में हड़ताली मज़दूरों का दमन

श्रम क़ानूनों को लागू करने, फैक्ट्रियों में सुरक्षा के पुख़्ता इन्तज़ाम करने जैसी बुनियादी माँगों को लेकर मज़दूर हड़ताल पर गये थे। 3 मार्च के दिन सुबह से ही हड़ताली टोलियाँ पूरे बवाना इलाक़े में मज़दूरों को एकजुट कर काम बन्द करके हड़ताल में शामिल होने की अपील कर रही थीं। हड़ताल का असर ख़ासतौर पर सेक्टर-5 में था, जहाँ 90 प्रतिशत कारख़ाने बन्द थे और हज़ारों मज़दूर हड़ताल रैली में शामिल थे। अन्य सेक्टर में हड़ताल आंशिक तौर पर सफल रही। इसी सफलता ने मालिकों के अन्दर ख़ौफ़ पैदा किया और तुरन्त पुलिस हड़ताल को रोकने के लिए हरकत में आ गयी। सबसे पहले सेक्टर-3 में पुलिस ने मज़दूरों को रैली निकालने से रोका और जब मज़दूर जन्तर-मन्तर जाने के लिए निकल रहे थे, गाड़ी को रोककर उन्हें इलाक़े से बाहर जाने के लिए मना कर दिया गया। इसके बाद मज़दूरों ने सेक्टर-3 में ही हड़ताल सभा शुरू कर दी।

राम मन्दिर के बाद काशी के ज़रिये साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिश में लगे संघ-भाजपा – इस उन्माद में मत बहिए! आइए अपने सही इतिहास को जानें!

मोदी सरकार के पास अब यही मुद्दे बचे हैं, जिसके ज़रिये वह 2024 का चुनाव जीत सकती है। पहले राम मन्दिर के नाम पर दंगे हुए, अब ज्ञानवापी के नाम पर उन्माद फैलाने की कोशिश जारी है और हो सकता है चुनाव तक काशी-मथुरा तक भी यह आग पहुँच जाये। भाजपा व संघ परिवार आपकी धार्मिक भावनाओं का शोषण कर आप को ही मूर्ख बना रही है। मोदी सरकार धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है। यह आपको तय करना है कि आपको क्या चाहिए। क्या आपको शिक्षा-चिकित्सा-रोज़गार-आवास के अपने बुनियादी हक़ चाहिए, एक बेहतर जीवन चाहिए या फिर आपको मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़ों में ही उलझे रहना है।

काकोरी के शहीदों को याद करो! अवामी एकता कायम करो!

आज हमारे देश में एक फ़ासीवादी हुकूमत क़ायम है जो अंग्रेजों से भी बर्बर तरीके से आम जनता को लूटने, काले क़ानून बनाने और जाति-धर्म के नाम पर समाज में विभाजन पैदा करने में लगी हुई है। जिस तरह से अंग्रेज़ लुटेरे भाई-भाई को लड़ा रहे थे, उसी तरह से आज सत्ता में बैठे लोग भी जनता को बेवजह के मुद्दों पर आपस में लड़ा रहे हैं और धर्म व जाति के नाम पर बहाये गये लोगों के खून से वोट की फ़सल को सींच रहे हैं। आम मेहनतकश जनता को निचोड़कर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने वाली इस सरकार के ख़िलाफ़ नौजवानों-छात्रों और इंसाफ़पसन्द नागरिकों को आगे आने और अवामी एकता क़ायम करने की ज़रूरत है।