ज्योति बसु और संसदीय वामपन्थी राजनीति की आधी सदी
इस बीच ज्योति बसु, माकपा और वाम मोर्चे का सामाजिक जनवादी चरित्र ज्यादा से ज्यादा नंगा होता चला गया। भद्रपुरुष ज्योति बाबू बार-बार मजदूरों को हड़तालों से दूर रहने और उत्पादन बढ़ाने की राय देने लगे, जबकि मजदूरों की हालत लगातार बद से बदतर होती जा रही थी। ज्योति बसु विदेशी पूँजी को आमन्त्रित करने के लिए बार-बार पश्चिमी देशों की यात्रा पर निकलने लगे (कभी छुट्टियाँ बिताने तो कभी आर्थिक-तकनीकी मदद के लिए 1990 तक रूस और पूर्वी यूरोप तो जाते ही रहते थे)। देशी पूँजीपतियों को पूँजी-निवेश के लिए पलक-पाँवड़े बिछाकर आमन्त्रित किया जाने लगा। देश के तमाम बड़े पूँजीपति (विदेशी कम्पनियाँ भी) पूँजी निवेश के लिए बंगाल के परिवेश को अनुकूल बताने लगे। दिक्कत अब उन्हें हड़तालों से नहीं थी, बल्कि माकपा के उन ट्रेड यूनियन क्षत्रपों से थी जो मजदूरों से वसूली करने के साथ ही मालिकों से भी कभी-कभी कुछ ज्यादा दबाव बनाकर वसूली करने लगते थे।