प्रधानमन्त्री महोदय! आँकड़ों की बाज़ीगरी से ग़रीबी नहीं घटती!
जाहिर है कि शासक वर्गों के राजनीतिज्ञों का यह काम होता है कि वे पूँजीवाद के अपराधों पर पर्दा डालें या फिर आँकड़ों और तथ्यों की हेराफेरी से उन्हें कम करके दिखायें। हम मनमोहन सिंह जैसे लोगों से और कोई उम्मीद रख भी नहीं सकते। यही मनमोहन सिंह हैं जिनके वित्त मन्त्री बनने के बाद नयी आर्थिक नीतियों का श्रीगणेश 1991 में हुआ था। इसके बाद बनने वाली हर सरकार के कार्यकाल में उदारीकरण और निजीकरण की नयी आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से जारी रखा गया। स्वदेशी का ढोल बजाने वाली और राष्ट्रवाद की पिपहरी बजाने वाली भाजपा नीत राजग सरकार के कार्यकाल में तो जनता की सम्पत्ति को पूँजीवादी लुटेरों को बेच डालने के लिए एक अलग मन्त्रालय ही बना दिया गया था। उससे पहले संयुक्त मोर्चा सरकार ने भी, जिसमें देश के कुछ संसदीय वामपंथी शामिल थे और कुछ बाहर से समर्थन दे रहे थे, अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश को तेजी से बढ़ावा दिया था। इसके बाद, 2004 में तो मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री के रूप में वापस लौटे। उम्मीद की ही जा सकती थी कि इन नीतियों के सूत्रधार मनमोहन सिंह और अधिक परिष्कृत रूप में उन्हें जारी रखेंगे।