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केरल में भूस्खलन एवं असम और आन्ध्र-तेलंगाना में बाढ़ से भीषण तबाही

पूँजीवाद के दायरे में पर्यावरण को बचाने और पारिस्थितिक तन्त्र को स्थिर करने की तमाम कोशिशों के बावजूद अगर यह संकट कम होने की बजाय तीखा ही होता जा रहा है तो ऐसा इसलिए है कि मुनाफ़ा-केन्द्रित और अनियोजित विकास पूँजीवाद की संरचना में ही निहित है। मुनाफ़े की दर को लगातार बढ़ाते जाने की ज़रूरत पूँजी को नियन्त्रण और नियोजन की दीवारों को तोड़कर बेक़ाबू होने पर मजबूर करती है। इस समस्या के समाधान की दिशा में तभी आगे बढ़ा जा सकता है जब सामाजिक उत्पादन की प्रेरणा मुनाफ़ा न होकर लोगों की ज़रूरत पूरा करना हो। केवल तभी जलवायु परिवर्तन, पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई, बेरोकटोक खनन-उत्खनन की प्रक्रिया को काबू में लाया जा सकता है। केवल ऐसे समाज में ही न सिर्फ़ फ़ैक्टरी के भीतर उत्पादन को योजनाबद्ध किया जा सकता है बल्कि समाज के स्तर पर भी उत्पादन व वितरण की एक समग्र योजना बनायी जा सकती है और उसपर अमल किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में ही शहरीकरण को नियोजित किया जा सकता है। सामाजिक उत्पादन की प्रणाली को नज़रअन्दाज़ करके पर्यावरण विनाश की समस्या के समाधान की दिशा में एक क़दम भी नहीं बढ़ाया जा सकता है।         

केन्द्रीय  बजट : जनता की जेब काटकर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने का काम बदस्तूर जारी

2014 में कुल कर राजस्व में कॉरपोरेट करों का हिस्सा 34.5 प्रतिशत था जो 2024 में घटकर 26.6 प्रतिशत रह गया है। अब विदेशी कम्पनियों को दी गयी राहत के बाद कॉरपोरेट करों का हिस्सा और भी कम होगा। कम्पनियों पर लगने वाले करों में कटौती का तर्क यह दिया जाता है कि इससे निवेश बढ़ेगा और रोज़गार के नये अवसर पैदा होंगे। परन्तु पिछले 10 सालों के मोदी सरकार के कार्यकाल में कई लाख करोड़ रुपयों की राहत देने के बाद भी रोज़गार की स्थिति बद से बदतर ही हुई है। कम्पनियों को करों में छूट देने का साफ़ मतलब है कि सरकार अपनी आमदनी के लिए जनता पर करों का बोझ बढ़ाती जाएगी। वैसे भी सरकार के कुल राजस्व में जीएसटी जैसे अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है जो आम जनता पर भारी पड़ता है क्योंकि वह सभी पर एकसमान दर से लगता है और लोगों की आय से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता है।

हिण्डेनबर्ग की दूसरी रिपोर्ट में सट्टा बाज़ार विनियामक सेबी कटघरे में – वित्तीय पूँजी की परजीवी दुनिया की ग़लाज़त की एक और सच्चाई उजागर

वित्तीय पूँजी के आवारा, परजीवी और मानवद्रोही चरित्र पर पर्दा डालने के लिए सेबी जैसे विनियामक संस्थाओं को बनाया जाता है और उन्हें स्वायत्त व निष्पक्ष संस्थाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन हिण्डेनबर्ग रिपोर्ट से यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो गया है कि ऐसी संस्थाओं की स्वायत्तता और निष्पक्षता एक छलावा है। ऐसी संस्थाएँ बनायी ही इसलिए जाती हैं कि तमाम लूट-खसोट और घोटालों के बावजूद लोगों का भरोसा पूँजी की इस मानवद्रोही दुनिया में बना रहे और निष्पक्षता और स्वायत्तता का ढोग-पाखण्ड करके लोगों की आँख में धूल झोंकी जाती रहे।

जंगलों में आग की बढ़ती घटनाएँ – यह जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र कुदरत की चेतावनी है!

चाहे जंगलों में आग की घटनाएँ हों या बाढ़ व सूखे की घटनाएँ अथवा भूस्खलन और सूनामी की घटनाएँ हों, ये सभी चीख-चीख कर हमें चेतावनी दे रही हैं कि अगर हम अनियोजित व मुनाफ़ाकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली को उखाड़कर नियोजित व लोगों की ज़रूरत पर आधारित उत्पादन प्रणाली नहीं लाते हैं यानी पूँजीवाद को उखाड़कर समाजवाद नहीं लाते हैं तो पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही नहीं बचेगा। केवल एक समाजवादी समाज में ही कृषि व औद्योगिक उत्पादन को योजनाबद्ध रूप से संचालित किया जा सकता है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मनुष्य की उत्पादक गतिविधियाँ प्रकृति की तबाही का सबब न बनें और जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असन्तुलन न पैदा हो। चाहे जंगलों में लगी आग हो या पर्यावरण सम्बन्धी कोई भी समस्या हो, उसका जड़मूल समाधान केवल समाजवादी समाज में ही मुमकिन है क्योंकि समाजवाद में ही तमाम समस्याओं की तरह पर्यावरण की समस्या का समाधान भी आम बहुसंख्यक मेहनतकश वर्गों के हित में तथा सामुदायिक व सामूहिक तरीक़े से योजनाबद्ध ढंग से किया जा सकता है और विज्ञान व प्रौद्योगिकी का समस्त ज्ञान मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़े के लिए न होकर लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने और पर्यावरण की समस्याओं को दूर करने के लिए किया जा सकता है।

मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार का बेशर्म ऐलान : बेरोज़गारी जैसी समस्याओं को हल करने की उम्मीद सरकार से न करें!

जिन लोगों को रोज़गार मिल भी रहा है उनमें पक्का रोज़गार पाने वाले लोगों की संख्या बमुश्किल 10 फ़ीसदी है। यानी 90 फ़ीसदी से ज़्यादा लोगों को अनौपचारिक क़िस्म का काम मिल रहा है, भले ही वे नियमित प्रकृति के काम कर रहे हों। जिन लोगों की गिनती रोज़गार प्राप्त लोगों में होती है उनमें से करीब दो-तिहाई स्व-रोज़गार की श्रेणी में आते हैं जो रोज़गार के नाम पर धोखा है। ऐसे स्व-रोज़गार प्राप्त लोगों का ही उदाहरण देते हुए हमारे प्रधानमन्त्री महोदय ने अपना 56 इंच का सीना फुलाते हुए पकौड़ा बेचने को भी रोज़गार बताया था। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हाल के वर्षों में स्विगी और ज़ोमैटो जैसे प्लेटफ़ॉर्मों पर डिलीवरी का काम करने वाले गिग वर्करों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है लेकिन उनके काम की ख़ून चूस लेने वाली और पीठ तोड़ देने वाली परिस्थितियों व सेवा शर्तों से हम सभी वाक़िफ़ हैं। इसके अलावा रिपोर्ट में इस तथ्य की भी पुष्टि हुई है कि कोविड लॉकडाउन की वजह से कृषि से उद्योग अथवा गाँवों से शहरों की ओर होने वाले पलायन में कमी आयी और इस दौर में जिन लोगों ने पलायन किया उन्हें उद्योग में नहीं बल्कि निर्माण व सेवाक्षेत्रों में ही रोज़गार मिला।  

उत्तराखण्ड समान नागरिकता क़ानून: अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाला और नागरिकों के निजी जीवन में राज्यसत्ता की दखलन्दाज़ी बढ़ाने वाला पितृसत्तात्मक फ़ासीवादी क़ानून

इस क़ानून के समर्थकों का दावा है कि यह महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में उठाया गया क़दम है, जबकि सच्चाई यह है कि इस क़ानून के तमाम प्रावधान ऐसे हैं जो स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं देते हैं और पितृसत्तात्मक समाज को स्त्रियों की यौनिकता, उनकी निजता को नियन्त्रित करने का खुला मौक़ा देते हैं। इस क़ानून के सबसे ख़तरनाक प्रावधान ‘लिव-इन’ से जुड़े हैं जो राज्यसत्ता व समाज के रूढ़िवादी तत्वों को लोगों के निजी जीवन में दखलन्दाज़ी करने का पूरा अधिकार देते हैं। इन प्रावधानों की वजह से अन्तरधार्मिक व अन्तरजातीय सम्बन्धों पर पहरेदारी और सख़्त हो जायेगी। इन तमाम प्रतिगामी प्रावधानों को देखते हुए इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है कि यह अल्पसंख्यक-विरोधी एवं स्त्री-विरोधी क़ानून आज के दौर में फ़ासीवादी शासन को क़ायम रखने का औज़ार है। इसमें क़तई आश्चर्य की बात नहीं है कि भाजपा शासित मध्य प्रदेश व गुजरात की सरकारों ने भी इस प्रकार के क़ानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।

समान नागरिक संहिता पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया क्या होना चाहिए?

समान नागरिक संहिता (यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड) का मामला एक बार फिर सुर्ख़ियों में है। गत 9 दिसम्बर को भाजपा नेता किरोड़ी लाल मीना ने राज्यसभा में एक प्राइवेट मेम्बर बिल प्रस्तुत किया जिसमें पूरे देश के स्तर पर समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए एक कमेटी बनाने की बात कही गयी है। इससे पहले नवम्बर-दिसम्बर के विधानसभा चुनावों के पहले गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की भाजपा सरकारों ने भी अपने-अपने राज्यों में समान नागरिक संहिता लाने की मंशा ज़ाहिर की थी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा जैसी फ़ासिस्ट पार्टी द्वारा समान नागरिक संहिता की वकालत करने के पीछे विभिन्न धर्म की महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने की मंशा नहीं बल्कि उसकी मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीतिक चाल काम कर रही है।

दुनिया की सबसे बड़ी तकलोलॉजी कम्पनियों में भारी छँटनी

जिस समय कोरोना महामारी अपने चरम पर थी, उस समय दुनिया के तमाम देशों में लॉकडाउन की वजह से उत्पादन ठप हो जाने के कारण ज़्यादातर सेक्टरों में कम्पनियों के मुनाफ़े में गिरावट आयी थी। लेकिन उस दौर में चूँकि लोग ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्मों पर पहले से ज़्यादा समय बिताते थे इसलिए कम्प्यूटर व इण्टरनेट की दुनिया से जुड़े कुछ सेक्टरों जैसे आईटी, ई-कॉमर्स, सोशल मीडिया आदि में चन्द इज़ारेदार कम्पनियों के मुनाफ़े में ज़बर्दस्त उछाल देखने में आया था। लेकिन लॉकडाउन हटने के बाद ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्मों पर लोगों की मौजूदगी के समय में कमी आने की वजह से और विश्व पूँजीवाद के आसन्न संकट की आहट सुनकर इन कम्पनियों को भी अपने मुनाफ़े की दर में गिरावट का ख़तरा दिखने लगा है।

आज़ाद ज़िन्दगी के लिए ज़ालिम इस्लामी कट्टरपन्थी पूँजीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ ईरान की औरतों की बग़ावत

गत 16 सितम्बर को ईरान की राजधानी तेहरान में महसा अमीनी नामक कुर्द मूल की 22 वर्षीय ईरानी युवती की मौत के बाद शुरू हुआ आन्दोलन सत्ता के बर्बर दमन के बावजूद जारी है। ग़ौरतलब है कि महसा को 13 सितम्बर को ईरान की कुख्यात नैतिकता पुलिस ने इस आरोप में गिरफ़्तार करके हिरासत में लिया था कि उसने सही ढंग से हिजाब नहीं पहना था और उसके बाल दिख रहे थे। हिरासत में उसको दी गयी यंत्रणा की वजह से वह कोमा में चली गयी और तीन दिन बाद उसकी मौत हो गयी।

तेलंगाना में निज़ाम की सत्ता के पतन की 75वीं बरसी पर जश्न मनाने की होड़ में भाजपा और टीआरएस ने की इतिहास के साथ बदसलूकी

गत 17 सितम्बर को तेलंगाना में निज़ाम की सत्ता के पतन की 75वीं बरसी के मौक़े पर हैदराबाद शहर में भाजपा और टीआरएस के बीच जश्न मनाने की बेशर्म होड़ देखने में आयी। पूरा शहर दोनों पार्टियों के पोस्टरों व बैनरों से पाट दिया गया था। शहर में दोनों पार्टियों द्वारा कई स्थानों पर रैलियाँ निकाली गयीं और जनता की हाड़तोड़ मेहनत से कमाये गये करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये गये। भाजपा व केन्द्र सरकार ने इस दिन को ‘हैदराबाद मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया, जबकि टीआरएस व तेलंगाना सरकार ने इसे ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाया। ग़ौरतलब है कि भाजपा पिछले कई सालों से 17 सितम्बर को ‘हैदराबाद मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाने की मुहिम चलाती आयी थी।