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उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के ख़िलाफ़ छात्रों के आन्दोलन से हम मजदूरों को क्या सीखना चाहिए?

बिना किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के कोई भी स्वत:स्फूर्त आन्दोलन या जनउभार कुछ सफलताओं और अराजकता के साथ अन्ततः ज़्यादा से ज़्यादा किसी समझौते या अक्सर असफलता पर ही ख़त्म होता है। पिछले एक दशक में ही ऐसे तमाम जनान्दोलन दुनिया भर में देखने में आये हैं, जो स्वत:स्फूर्त थे, अपनी ताक़त से शासक वर्ग को भयभीत कर रहे थे, लेकिन किसी स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्य, कार्यक्रम और नेतृत्व के अभाव में अन्त में वे दिशाहीन हो गये, जनता अन्तत: थककर वापस लौटी और शासक वर्गों को अपने आपको और अपनी सत्ता को वापस सम्भाल लेने का अवसर मिल गया। ऐसा ही हमें श्रीलंका और बंगलादेश में अचानक से हुए जनउभार में देखने को मिला। यही हमें अरब जनउभार में भी देखने को मिला था। इसलिए जो एक नकारात्मक सबक हमें इन उदाहरणों से मिलता है, वह यह कि हमें अपना ऐसा स्वतन्त्र राजनीतिक नेतृत्व और संगठन विकसित करना चाहिए जो पूँजीपति वर्ग के सभी चुनावबाज़ दलों के असर से मुक्त हो, पूर्ण रूप से मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करता हो, उसकी राजनीति और विचारधारा मज़दूर वर्ग की राजनीति और विचारधारा हो। ऐसे क्रान्तिकारी सर्वहारा संगठन के बिना जनसमुदाय कभी भी अपने जनान्दोलनों के उद्देश्यों की पूर्ति तक नहीं पहुँच सकते।

राष्ट्रीय पेंशन योजना : कर्मचारियों के हक़ों पर मोदी सरकार का एक और हमला

सरकारी कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा के नाम पर जो कुछ भी मिलता था, उसको भी ख़त्म कर देने की योजना है। 2014 में “अच्छे दिन” का सपना दिखाकर सत्ता में पहुँची फ़ासीवादी मोदी सरकार ने अपने 10 सालों के शासनकाल में आम मेहनतकश आबादी पर कहर ही बरपाया है। पिछले 5 सालों में मोदी सरकार पूँजीपतियों के 10.6 लाख करोड़ का कर्ज़ माफ़ कर चुकी है। जिसकी भरपाई आम जनता के जेब से कर रही है। लगतार अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाकर महँगाई बढ़ाई जा रही है। विभागों के निजीकरण से रोज़गार का संकट और भी विकराल होता जा रहा है। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकट के लाइलाज़ भँवरजाल में फँस चुकी है। 1990–91 में आर्थिक उदारीकरण–निजीकरण की नीतियाँ इसी भँवरजाल से निकल पाने की कवायद थीं। इन नीतियों के तहत सार्वजनिक उपक्रमों का तेजी से निजीकरण किया गया जिसका परिणाम है कि रोज़गार के अवसर तेजी से कम हुए और आज बेरोज़गारी विकराल रूप ले चुकी है।

ग्रामीण आजीविका मिशन : ग्रामीण महिलाओं और बेरोज़गार नौजवानों के श्रम को लूटने का मिशन

केन्द्र सरकार का यह मिशन ग्रामीण महिलाओं और आम बेरोज़गार नौजवानों के शोषण-उत्पीड़न का मिशन है। दरअसल मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की आन्तरिक गति ही ऐसी है कि अपने उत्तरोत्तर विकास के साथ यह एक बड़ी आबादी को तबाही-बर्बादी की तरफ ढकेलती है। जिसकी वजह से जनाक्रोश फूटने का डर हमेशा बना रहता है। पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा सताये हुये आम लोगों के आक्रोश को ठंडा करने के लिए हुक्मरान बीच-बीच में ऐसी योजनाएँ पेश कर जनता की आँख में धूल झोकने का काम करते हैं।

आपस में नहीं सबके रोज़गार की गारण्टी के लिए लड़ो!

जब सरकारी प्राथमिक विद्यालय रहेंगे ही नहीं तो क्या सारे बीटीसी वालों को नौकरी दी जा सकती है? या अगर बीएड अभ्यर्थियों को योग्य मान भी लिया जाय तो सभी को रोज़गार दिया जा सकता है? दरअसल आज नौकरियाँ ही तेजी से सिमटती जा रही है। निजीकरण छात्रों-नौजवानों के भविष्य पर भारी पड़ता जा रहा है। रेलवे, बिजली, कोल, संचार आदि सभी विभागों को तेज़ी से धनपशुओं के हवाले किया जा रहा है। अगर इस स्थिति के ख़िलाफ़ कोई देशव्यापी जुझारू आन्दोलन नहीं खड़ा होगा तो यह स्थिति और ख़राब होने वाली है। इसलिए ज़रूरी है कि आपस में लड़ने की जगह रोज़गार गारण्टी की लड़ाई के लिए कमर कसी जाये।

बढ़ते आर्थिक संकट के बीच बड़ी कम्पनियों से लेकर स्टार्टअप तक छँटनी का सिलसिला जारी

भारत में काम कर रहे ट्विटर के 80 फ़ीसदी कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। हाल ही में अमेज़न ने अपने 18000 और एचपी ने 6000 से ज़्यादा कर्मचारियों को निकालने की बात कही है।  अमेज़न के नोएडा, गुड़गाँव स्थित कार्यालयों में छँटनी की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। जुलाई 2022 से अब तक माइक्रोसॉफ़्ट तीन बार और नेटफ़्लिक्स दो बार छँटनी कर चुका है। हार्डड्राइव निर्माता सीगेट 3000 से ज़्यादा लोगों की छँटनी कर चुका है और आने वाले दिनों में इससे भी बड़े पैमाने पर छँटनी की बात कर रहा है। आईबीएम 3900 कर्मचारियों को बाहर कर चुका है। हालिया रिपोर्ट के मुताबिक बेरोज़गार हुए लोगों में से 10 फ़ीसदी लोगों को भी दुबारा काम नहीं मिल पा रहा है।

मेहनतकश और युवा आबादी पर टूटता बेरोज़गारी का क़हर

1990 के दशक में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही बेरोज़गारी का संकट भयंकर होता जा रहा है। फ़ासिस्टों के “अच्छे दिन” और “रामराज्य” में बेरोज़गारी सुरसा की तरह मुँह खोले नौजवानों को लीलती जा रही है। इलाहाबाद, पटना, कोटा, जयपुर जैसे शहर छात्रों-युवाओं के लिए क़ब्रगाह बन चुके हैं। हालात इतने बदतर हो चले हैं कि अकेले अप्रैल के महीने में इलाहाबाद में लगभग 35 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़ 2019 की तुलना में 2020 में 18-45 साल की उम्र के युवाओं की आत्महत्या में 33 फ़ीसदी का इजाफ़ा हुआ है, जोकि 2018 से 2019 के बीच 4 फ़ीसदी था। ये महज़ आँकड़े नहीं हैं बल्कि देश की जीती-जागती तस्वीर है। ये आत्महत्याएँ नहीं, बल्कि मानवद्रोही मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था के हाथों की गयी निर्मम हत्याएँ हैं।

जिनकी मेहनत से दुनिया जगमगा रही है वे अँधेरे के साये में जी रहे हैं

इलाहाबाद में संगम के बग़ल में बसी हुई मज़दूरों-मेहनतकशों की बस्ती में विकास के सारे दावे हवा बनकर उड़ चुके हैं। आज़ादी के 75 साल पूरा होने पर सरकार अपने फ़ासिस्ट एजेण्डे के तहत जगह-जगह अन्धराष्ट्रवाद की ख़ुराक परोसने के लिए अमृत महोत्सव मना रही है वहीं दूसरी ओर इस बस्ती को बसे 50 साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है लेकिन अभी तक यहाँ जीवन जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतें, जैसे पानी, सड़कें, शौचालय, बिजली, स्कूल आदि तक नहीं हैं।

बाढ़, बेशर्म सरकार और संवेदनहीन प्रशासन का क़हर झेलती जनता

जैसे-जैसे मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था ‘विकास’ की नयी ऊँचाइयों पर पहुँच रही है, उसी अनुपात में जनता के जीवन में चलने वाली ‘विनाशलीला’ और ज़्यादा भयंकर रूप लेती जा रही है। इस विनाशलीला का एक दृश्य अगस्त के महीने में इलाहाबाद शहर में गंगा-यमुना के इलाक़े में आयी बाढ़ के रूप में सामने आया। गंगा और यमुना जैसी दो बड़ी नदियों और कई छोटी नदियों का शहर होने के चलते इस बाढ़ का क़हर जब टूटता है, तो इलाहाबाद की बहुत बड़ी आबादी उसका शिकार होती है। इस बार भी गंगा और यमुना के तटवर्ती इलाक़े, ससुर खदेरी और टौंस नदी के किनारे रहने वाली आबादी इस क़हर का शिकार बनी। बड़े पैमाने पर लोगों के काम-धन्धे का नुक़सान हुआ और बहुत से लोग विस्थापित हुए।

(अर्द्ध)कुम्भ : भ्रष्टाचार की गटरगंगा और हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद के संगम में डुबकी मारकर जनता के सभी बुनियादी मुद्दों का तर्पण करने की कोशिश

कुम्भ के नाम पर पूरे इलाहाबाद का भगवाकरण कर दिया गया है। भारतीय संस्कृति (जिसमें कबीर, दादू, रैदास, आदि शामिल नहीं हैं) को पुनर्जागृत करने के नाम पर गंजेड़ी-नशेेड़ी नागा बाबाओं, सामन्ती सामाजिक सम्बन्धों को गौरवान्वित करती हुई तस्वीरों और संघ से जुड़े तमाम फ़ासिस्टों की तस्वीरों से पूरे इलाहाबाद को रंग दिया गया है, जो आम जनता के बीच इस बात को स्थापित कर रहा है कि हर समस्या का समाधान अतीत में और हिन्दुत्व में है और अपने इस मिशन में संघी एक हद तक सफल भी हो रहे हैं।