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महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबन्धन की भारी जीत! मज़दूर वर्ग की चुनौतियाँ बढ़ेंगी, ज़मीनी संघर्षों की तेज़ करनी होगी तैयारी!

मुसलमानों और सामाजिक आन्दोलनों को झूठे दुश्मन के रूप में चित्रित करके, मन्दिर-मस्जिद, गोमाता, लव-लैण्ड-वोट जिहाद, वक्फ़ बोर्ड आदि जैसे कई फ़र्ज़ी मुद्दे उठाकर समाज में भय का माहौल पैदा करके इनका जनाधार बनाया गया है। ऐसे में जब रोज़गार-महँगाई-मन्दी के चलते जनता के बीच भारी असन्तोष मौजूद है, तब भाजपा ने साम-दाम-दण्ड-भेद का इस्तेमाल कर मीडिया और आरएसएस कार्यकर्ताओं की मदद से व पूँजीपतियों द्वारा ख़र्च किये गये हज़ारों करोड़ रुपये का इस्तेमाल करके व इसके अलावा चुनाव में कटेंगे तो बँटेंगे, ओबीसी-मराठा मुद्दे पर भी ध्रुवीकरण करके, चुनाव आयोग की मदद से मतदाता सूची में बदलाव, सम्भावित तौर पर ईवीएम से चुनावों में हेरफेर करके और इसके साथ ही “लाडली बहन” जैसे लालच दिखाने वाली योजनाओं द्वारा एक बार फिर सत्ता तक पहुँचने में भाजपा-महायुति क़ामयाब रही है। इन सब कारणों में संघ परिवार के समर्पित हिन्दुत्व वोट बैंक और भाजपा के वास्तविक जनाधार की भूमिका को निश्चित रूप से नहीं भुलाया जाना चाहिए।

नशे में मदहोश अमीरजादों की चमचमाती गाड़ियों के चक्कों से पिसकर ख़ून से लथपथ होती आम ज़िन्दगी

दौलत के नशे में डूबे यह अमीरजादे अपने पोर्शे, बीएमडब्ल्यू और लक्ज़री गाड़ियों में बैठने के बाद, सड़क पर चलने वाले इन्सान को कीड़े-मकोड़े से ज़्यादा कुछ नहीं समझते और मानते हैं कि वे उन्हें कीड़ों-मकोड़ों के ही समान कुचल सकते हैं। उन्हें पता होता है कि इसके बाद यह बेहद आसानी से छूट भी जाएँगे। भला ऐसा हो भी क्यूँ नहीं? पैसे और बहुबल के दम पर पुलिस–न्यायपालिका–नेता का गठजोड़ जो इनके पीछे खड़ा रहता है! इसके तहत ‘खाओ-पियो-ऐश करो’ की संस्कृति व दौलत के नशे में, घमण्ड से चूर यह धन्नासेठ वर्ग सबसे क्रूरतम घटनाओं को अंजाम देता रहता है। पूरी राज्य व्यवस्था इन अमीरजादों के हाथों में कठपुतली की तरह काम करती है। इनको सजा कहाँ मिलेगी? जेलों में सड़ती है बस आम गरीब जनता।

लोकसभा चुनाव : बहुमत से पीछे रहने के बावजूद फ़ासीवादी भाजपा के  दाँत, नख और पंजे राज्यसत्ता में और अन्दर तक धँसे

लोकसभा चुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं। भाजपा भले ही अपने “400 पार” के नारे के बोझ तले धड़ाम से गिर चुकी हो, मगर जिस तरह पूरे चुनाव में गोदी मीडिया, ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग समेत पूँजीवादी राज्यसत्ता की समस्त मशीनरी ने भाजपा के पक्ष में सम्भावनाएँ पैदा करने का काम किया है, यह भाजपा-आरएसएस द्वारा राज्यसत्ता की मशीनरी में अन्दर तक की गयी घुसपैठ और उसके भीतर से किये गये ‘टेक ओवर’ के बारे में काफी कुछ बता देता है। इसके बावजूद एक तबका चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के 240 सीट पर सिमट जाने से ख़ुशी की लहर पर सवार है और वह “लोकतंत्र की जीत” व “संविधान की मज़बूती” की दुहाई देते थक नहीं रहा है। ऐसे में “लोकतंत्र के त्यौहार” यानी 18वें  लोकसभा चुनाव (जिसका कुल ख़र्च लगभग 1.35 ट्रिलियन रुपये बताया जा रहा है) को समग्रता में देखने की ज़रूरत है, ताकि चुनाव नतीजों के शोर में व्यवस्थित तरीक़े से, पूँजीवादी औपचारिक मानकों से भी, लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के हो रहे विघटन से दृष्टि ओझल न हो।

चण्डीगढ़ मेयर चुनाव: फ़ासीवादी दौर में मालिकों के लोकतन्त्र का फूहड़ नंगा नाच

चण्डीगढ़ मेयर चुनाव में सब कुछ सामने होने के बाद भी अगर सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं देता, तो वैसे भी व्यवस्था के पास शरीर को ढकने के लिए जो थोड़ा बहुत सूत का धागा बचा है, वो भी निकल जाता। पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बचाये रखना आज के दौर के फ़ासीवादी ख़ासियत है। इसी के साथ व्यवस्था के कुछ आन्तरिक अन्तरविरोध भी पैदा होते हैं। व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग की दूरदर्शी पहरेदार के तौर पर न्यायपालिका के कुछ फ़ैसले मोदी सरकार के हितों के विपरीत जा सकते हैं। लेकिन इसके आधार पर अगर कोई न्यायपालिका या क़ानूनी एक्टिविज़्म के ज़रिये, संविधान की माला जपते फ़ासीवादी संघ परिवार व मोदी-शाह सरकार से टकराने का सोच रहा है तो भविष्य में उसे लगने वाला सदमा उसे पागलखाने भी पहुँचा सकता है।

निराशा, अवसाद और पस्तहिम्मती छात्रों को आत्महत्या  की तरफ धकेल रही है

सरकार में आने से पहले इन्होने वायदे किए थे कि ‘हर साल दो करोड़ नौकरी देंगे’, मगर फासीवादी मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को जिस गति से लागू किया है, उसकी आज़ाद भारत के इतिहास में कोई मिसाल नहीं है। रेलवे के निजीकरण, ओएनजीसी के निजीकरण, एयर इण्डिया के निजीकरण, बीएसएनएल के निजीकरण, बैंक व बीमा क्षेत्र में देशी-विदेशी पूँजी को हर प्रकार के विनियमन से छुटकारा, पूंजीपतियों को श्रम कानूनों, पर्यावरणीय कानूनों व अन्‍य सभी विनियमनकारी औद्योगिक कानूनों से छुटकारा, मज़दूर वर्ग के संगठन के अधिकार को एक-एक करके छीनना लगातार जारी है। यह सारी नीतियाँ भी छात्रों- युवाओं में निराशा और अवसाद पैदा करने के लिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर उतने ही ज़िम्मेदार है।

कांस्टेबल चेतन सिंह अकेला नहीं! देश भर में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाकर साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ज़ॉम्बीज़ की फ़सल तैयार कर रहा है संघ परिवार

ऐसी रुग्ण साम्प्रदायिक ज़हर से ग्रसित आबादी कैसे पैदा हो रही है? यह समझने की ज़रूरत है कि यह एक दिन में तैयार नहीं होती। बल्कि  इसके लिए पूरा माहौल सालों से तैयार किया जा रहा है। यह अपने आप में इकलौती घटना नहीं है। ऐसी ही साम्प्रदायिक नफ़रत से लैस घटना अभी हाल ही में 24 अगस्त को उत्तरप्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में घटी है। यह घटना गुरुमंसूरपुर पुलिस थाने के अन्तर्गत आने वाले खुब्बापुर गाँव में हुई जिसमें एक शिक्षिका तृप्ता त्यागी, एक बच्चे को मुस्लिम होने की वजह से सज़ा दे रही थी। इस घटना में वह उस बच्चे को अन्य बच्चों से पिटवाते हुए कह रही है, “मैंने तो घोषणा कर दिया, जितने भी मुसलमान बच्चे हैं, इनके वहाँ चले जाओ।” फिर पीटने वाले बच्चों को डाँटते हुए कह रही है “क्या तुम मार रहे हो? ज़ोर से मारो ना।”

वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट-2022 : मोदी के “रामराज्य” में भूखा सोता हिन्दुस्तान

हाल ही में आयी वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट-2022 ने एक बार फिर मोदी सरकार के विकास के दावे से पर्दा उठा दिया है। रिपोर्ट के मुताबिक़ भुखमरी के मामले में दुनियाभर के 121 देशों में भारत 107वें पायदान पर है। भारत को उन देशों की सूची में शामिल किया गया है जहाँ भुखमरी की समस्या बेहद गम्भीर है। भारत की रैंकिंग साउथ एशिया के देशों में केवल अफ़ग़ानिस्तान से बेहतर है, जो तालिबानी क़हर झेल रहा है। उभरती हुई अर्थव्यवस्था, 5 ट्रिलियन इकॉनामी आदि के कानफाड़ू शोर के पीछे की असली सच्चाई यह है कि भुखमरी और कुपोषण के मामले में भारत अपने पड़ोसी देश श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल से तुलनात्मक रूप से बेहद ख़राब स्थिति में है।

भारतीय राज्यसत्ता द्वारा उत्तर-पूर्व में आफ़्स्पा वाले क्षेत्रों को कम करने के मायने

गुरुवार, 31 मार्च को, जैसे ही केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ट्विटर पर चमक-दमक और इवेण्ट बनाने की शैली में घोषणा की कि मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर में आफ़्स्पा (AFSPA) के तहत क्षेत्रों को कम करने का फ़ैसला किया है वैसे ही मीडिया द्वारा जनता में इसे सनसनीख़ेज़ ख़बर की तरह पेश करते हुए कहा गया कि “आज आधी रात से, असम के पूरे 23 ज़िलों, और आंशिक रूप से असम के एक ज़िले व नागालैण्ड में छह और मणिपुर में छह ज़िलों से आफ़्स्पा को अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जायेगा” मगर यह भाजपा सरकार का कोई दयालु या हमदर्दी-भरा चेहरा नहीं है, बल्कि इन इलाक़ों से हाल में घटी घटनाओं के बाद लगातार आ रहे जनदबाव की वजह से लिया गया फ़ैसला है जो भाजपा के गले में अटकी हुई हड्डी बन गया था। मगर इस फ़ैसले से भी वहाँ की ज़मीनी स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आने वाला है।

महाराष्ट्र में परिवहन निगम कर्मचारियों का आन्दोलन : एक रिपोर्ट

महाराष्ट्र में चल रहा राजकीय परिवहन निगम (स्टेट ट्रांसपोर्ट – एसटी) कर्मचारियों का संघर्ष हाल के आन्दोलनों में उल्लेखनीय स्थान रखता है जिसने दलाल ट्रेड यूनियनों, एसटी महामण्डल, राज्य सरकार और कोर्ट के दबाव को पीछे छोड़कर आन्दोलन को अभी भी जारी रखा हुआ है। सरकार द्वारा दिये जा रहे आर्थिक वेतन वृद्धि के लालच को भी मज़दूरों ने ठेंगा दिखा दिया है और अभी भी राज्य सरकार से विलय की माँग पर डटे हुए हैं। अगर विलय की माँग पूरी हो जाये, तो मज़दूरों को सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिलेगा और उसके तहत सातवाँ वेतन आयोग भी उसी शर्त के अनुसार लागू होगा।

अनियोजित लॉकडाउन में बदहाल होते मुम्बई के मेहनतकशों के हालात

मानखुर्द, मुम्बई के सबसे बाहरी छोर पर आता है और सबसे ग़रीब इलाक़ों में से एक है। यहाँ मज़दूरों, मेहनतकशों और निम्न मध्यम वर्ग के रिहायशी इलाक़े आपस में गुँथे-बुने ढंग से मौजूद हैं। मुम्बई की इन्हीं बस्तियों में रहने वाली मज़दूर-मेहनतकश आबादी, पूरे मुम्बई के तमाम इलाक़ों को चलाने और चमकाने का काम करती है।