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अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बना सीरिया

2016 में डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्‍ट्रपति पद की प्रमुख उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के ज़्यादातर नेता सीरिया के ऊपर “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने की तजवीज कर रहे हैं। लेकिन अमेरिकी सरकार के ज़्यादा सूझबूझ वाले राजनीतिज्ञ समझते हैं कि ऐसा करना ख़ुद अमेरिका के लिए घातक होगा क्योंकि “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने का मतलब होगा उन रूसी जहाज़ों को भी निशाना बनाना जो इस समय सीरिया में तैनात हैं, यानी रूस के साथ सीधे युद्ध में उलझना। लेकिन इस समय अमेरिका यह नहीं चाहता। फ़िलहाल वह सीरिया के तथाकथित ‘सेकुलर’ बागियों को मदद पहुँचाने तक ही सीमित रहना चाहता है। आर्थिक संकट की वजह से अमेरिका की राजनीतिक ताकत पर भी असर पड़ा है। इसलिए भी वह रूस के साथ सीधी टक्कर फ़िलहाल नहीं चाहता। अमेरिका की गिरती राजनीतिक ताकत का प्रत्यक्ष संकेत सयुंक्त राष्ट्र संघ की महासभा में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भाषण था। ओबामा ने अपने पहले भाषण में रूस की ओर से आई.एस.आई.एस के अलावा तथाकथित “सेकुलर” बागियों को भी मारने के लिए उसकी ज़ोरदार निंदा की। पुतिन ने भी जब अपनी बारी में सीरिया मामले पर अमेरिका की नीति की आलोचना की तो ओबामा ने अपने दूसरे भाषण में रुख बदलते हुए रूस के साथ बातचीत के लिए तैयार होने की बात कही। ओबामा ने कहा कि सीरिया के साथ किसी भी समझौते की शर्त राष्‍ट्रपति बशर अल-असद का अपने पद से हटना है लेकिन वह तब तक राष्‍ट्रपति बना रह सकता है जब तक कि इस मसले का कोई समाधान नहीं निकल आता। साथ ही ओबामा ने यह भी कहा कि नयी बनने वाली सरकार में मौजूदा बाथ पार्टी के नुमाइंदे भी शामिल हो सकते हैं। सीरिया से किसी भी तरह का समझौता नहीं करने की पोजीशन से लेकर अब उसके नुमाइंदों को नयी सरकार में मौका देने की बात करना साफ़ तौर पर अमेरिका की गिरती साख को दर्शा रहा है।

युद्ध की वि‍भीषिका और शरणार्थियों का भीषण संकट

पूँजीवादी देशों में शासक वर्गों के दक्षिणपंथी एवं वामपंथी धड़ों के बीच शरणार्थियों की समस्या पर बहस कुल मिलाकर इस बात पर केन्द्रित होती है कि शरणार्थियों को देश के भीतर आने दिया जाये या नहीं। सापेक्षत: मानवतावादी चेहरे वाले शासकवर्ग के वामपंथी धड़े से जुड़े लोग आमतौर पर शरण‍ार्थियों के प्रति उदारतापूर्ण आचरण की वकालत‍ करते हैं और यह दलील देते हैं कि शरणार्थियों की वजह से उनकी अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचता है। लेकिन शासकवर्ग के ऐसे वामपंथी धड़े भी कभी यह सवाल नहीं उठाते कि आखिर शरणार्थी समस्या की जड़ क्या है। वे ऐसा इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता है कि यदि वे ऐसे बुनियादी सवाल उठाने लगेंगे तो पूँजीवादी व्यवस्था कटघरे में आ जायेगी और उसका मानवद्रोही चरित्र उजागर हो जायेगा। सच तो यह है कि साम्राज्यवाद के युग में कच्चे माल, सस्ते श्रम एवं बाज़ारों पर क़ब्ज़े के लिए विभिन्न साम्राज्यवादी मुल्कों के बीच होड़ अवश्यम्भावी रूप से युद्ध की विभीषिका को जन्म देती है।

हथियारों और युद्ध सामग्री के उद्योग पर टिकी अमेरिकी अर्थव्यवस्था

आज विश्व की बड़ी हथियार बनाने वाली कम्पनियों में बहुसंख्या अमेरिकी कम्पनियों की हैं। विश्व की दस बड़ी हथियार बनाने वाली कम्पनियों में 7 अमेरिकी हैं जिनमें बोइंग (2013 में जिसकी कुल जायदाद 92 अरब अमेरिकी डॉलर थी), युनाइटेड टेकनोलोजीज (2013 में कुल जायदाद 61.46 अरब अमेरिकी डॉलर), लोकहीड मार्टिन (2013 में कुल जायदाद 36.19 अरब अमेरिकी डॉलर), जनरल डायनामिक्स (2013 में कुल जायदाद 35.45 अरब अमेरिकी डॉलर), नॉरथ्रॉप ग्रूमन (2013 में कुल जायदाद 26.39 अरब अमेरिकी डॉलर), रेथीऔन (2013 में कुल जायदाद 25.86 अरब अमेरिकी डॉलर) और एल. कम्यूनिकेशंस (2013 दौरान कुल जायदाद 15 अरब अमेरिकी डॉलर) आदि प्रमुख कम्पनियाँ हैं। अमेरिकी राजनीति में आज इन औद्योगिक घरानों की तूती बोलती है और विश्व स्तर पर वातावरण, अमन और लोकतन्त्र आदि जुमलों की चीख़-पुकार मचाने वाली अनेकों ग़ैर-सरकारी संस्थाओं को करोड़ों डॉलर फ़ण्ड भी मुहैया करवाते हैं जिससे साम्राज्ञी जब अपने हथियारों को खपायें तो ऐसी संस्थाएँ लोग के गुस्से को ठण्डा रखें।

अमेरिका के फ़ास्ट फ़ूड कामगारों का संघर्ष

‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ आन्दोलन की नींव वर्ष 2012 में तब पड़ी जब नवम्बर माह में मैकडॉनल्ड, सबवे, बर्गर किंग, केएफ़सी जैसी बड़ी फ़ास्ट फ़ूड कम्पनियों के कामगारों ने अपनी माँगों को लेकर न्यूयॉर्क शहर में विरोध प्रदर्शन एवं हड़तालें संगठित कीं। धीरे-धीरे वह आन्दोलन गति पकड़ता हुआ अमेरिका के 200 अन्य शहरों में फैल गया। नतीजतन बीती 15 अप्रैल को अलग-अलग पेशों के क़रीब 60,000 कामगार ‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ के बैनर तले विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए

अमेरिका व भारत की “मित्रता” के असल मायने

इस समय पूरी दुनिया में आर्थिक संकट के काले बादल छाये हुए हैं जो दिन-ब-दिन सघन से सघन होते जा रहे हैं। दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ, अमेरिका और भारत भी इस संकट में बुरी तरह घिरी हुई हैं। आर्थिक संकट से निकलने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद को अपनी दैत्याकार पूँजी के लिए बड़े बाज़ारों की ज़रूरत है। इस मामले में भारत उसके लिए बेहद महत्वपूर्ण है। अमेरिकी पूँजीपति भारत में अधिक से अधिक पैर पसारना चाहते हैं ताकि आर्थिक मन्दी के चलते घुटती जा रही साँस से कुछ राहत मिले। इधर भारतीय पूँजीवाद को आर्थिक संकट से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। विदेशों से व्यापार के लिए इसे डॉलरों की ज़रूरत है। भारत में पूँजीवाद के तेज़ विकास के लिए भारतीय हुक्मरान आधारभूत ढाँचे के निर्माण में तेज़ी लाना चाहते हैं। भारतीय पूँजीपति वर्ग यहाँ उन्नत तकनोलॉजी, ऐशो-आराम का साजो-सामान आदि और बड़े स्तर पर चाहता है। इस सबके लिए इसे भारत में विदेशी पूँजी निवेश की ज़रूरत है। मोदी सरकार ने लम्बे समय से लटके हुए परमाणु समझौते को अंजाम तक पहुँचाने का दावा किया है। जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार यह समझौता कर रही थी तो भाजपा ने इसके विरोध का ड्रामा किया था और कहा था कि उसकी सरकार आने पर यह समझौता रद्द कर दिया जायेगा। जैसीकि उम्मीद थी, अमेरिका से परमाणु समझौता पूरा कर लेने का दावा करके भाजपा ने अपना थूका चाट लिया है।

अमेरिकी सत्ताधारियों के पापों का बोझ ढोते सैनिक

पूरे विश्व में मनुष्य को संवेदनहीन, बेरहम बनाने का काम बचपन से ही शुरू हो जाता है। टीवी, मीडिया, किताबें, पत्रिकाओं और फ़िल्मों आदि के द्वारा बेरहम हिंसा की खुराकें देकर शुरू से ही मानव को पशु बनाने की कोशिशें की जाती हैं। फ़िल्में, ख़ासकर हॉलीवुड की फ़िल्मों में हिंसा इतने बड़े स्तर पर और इतने घृणित रूप में पेश की जाती है कि दर्शक धीरे-धीरे उस हिंसा का आदी हो जाता है। अक्सर नायक लोगों को इस तरह मारता है जैसे सलाद काटा जा रहा हो और लोगों को इसमें कुछ भी बुरा नहीं लगता, बल्कि ख़ुशी ही होती है। इस तरह लोगों को यह सिखाने की कोशिश की जाती है कि एक मनुष्य का मारा जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं। फिल्में तो सिर्फ़ एक उदाहरण हैं, यह हमला मानवता के दुश्मनों की तरफ़ से अनन्त रूपों में किया जाता है। इससे सम्बन्धित इतिहास की एक घटना याद आती है – साण्डर्स के क़त्ल के बाद में जब बाक़ी साथी राजगुरू के निशाने की तारीफ़ कर रहे थे तो उसका कहना था कि वह भी किसी माँ का पुत्र था। इसी तरह भगतसिंह ने साण्डर्स को मारने के बाद बाँटे गये परचे में कहा कि “हमें एक मनुष्य के मारे जाने का अफ़सोस है।” जबकि आजकल परोसी जाती हिंसा की धुन्ध में लोगों को इस हद तक असंवेदनशील बनाने की कोशिश की जाती है कि उनके लिए इज़रायल की तरफ़ से फ़िलिस्तीन में बच्चों समेत हज़ारों लोगों के किये हत्याकाण्ड की ख़बर अख़बार के बीच की बाक़ी ख़बरों से बहुत अलग नहीं होती, उनको यह बात झँझोड़ती नहीं, कोई नफ़रत नहीं जगाती। हिंसा का यह पाठ सिर्फ़ क़त्ल करने के लिए तैयार किये जा रहे सैनिकों के लिए ही नहीं होता, बल्कि उतना ही आम लोगों के लिए भी होता है।

माइकल ब्राउन हत्याकाण्ड: एक शोकगीत जिसका अन्त निश्चित है

अमेरिकी पुलिस द्वारा इतने बड़े पैमाने पर अश्वेत आबादी की नृशंस हत्या को अंजाम दिए जाने का एक कारण तो श्वेत आबादी के दिलों में बरसों से अश्वेतों के प्रति पैठी गहरी घृणा भावना है। दूसरा, अमेरिका में अश्वेत आबादी के सामाजिक-आर्थिक हालात ने उनके बीच जिस असुरक्षा की भावना को बढ़ावा दिया है उससे उनके दिलों में असंतोष की चिंगारी सुलग रही है। इस असंतोष की बारीक से बारीक अभिव्यक्ति को अमेरिकी शासकों द्वारा बन्दूक की नोक से शांत किया जाता रहा है। अगर अकेले फ़र्ग्यूसन शहर की बात करें तो 21,000 की आबादी वाले इस शहर में 67 प्रतिशत अश्वेत आबादी रहती है। इनमें बेरोज़गारी की दर 13 प्रतिशत है और यहाँ हर चार में से एक अश्वेत ग़रीब है।

अमेरिकाः दुनिया का सबसे रुग्ण और अपराधग्रस्त समाज

अमेरिका में 22 लाख लोग जेलों में बंद हैं। कैदियों की संख्या के मामले में अमेरिका दुनिया में पहले स्थान पर है। आबादी में कैदियों के प्रतिशत अनुपात के हिसाब से भी यह दुनिया में पहले स्थान पर है। अमेरिका में दुनिया की 5 प्रतिशत आबादी रहती है, पर दुनिया के 25 प्रतिशत सज़ायाफ्ता कैदी सिर्फ अमेरिकी जेलों में रहते हैं। वहाँ की प्रति एक लाख आबादी में से 730 जेल हैं।

ग़रीबी-बदहाली के गड्ढे में गिरते जा रहे अमेरिका के करोड़ों मेहनतकश लोग

अमेरिका में बच्चों की ग़रीबी के बारे में ज़्यादा आँकड़े जारी किये जाते हैं। सरकारी पैमाने के मुताबिक़ अमेरिका के 18 साल से कम उम्र वाले 22 फ़ीसदी बच्चे यानी 1.67 करोड़ बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। बच्चों के मामले में काली आबादी की हालत और भी बदतर है, क्योंकि इस आबादी में 39 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। इसी तरह लातिनी बच्चों की हालत भी काफ़ी बुरी है। लातिनी बच्चों का 34 फ़ीसदी ग़रीबी रेखा से नीचे माना गया है। ग़रीबी की हालत में रहने वाले बच्चों को भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन आदि की न्यूनतम ज़रूरतों की पूर्ति या तो होती ही नहीं या बेहतर तरीक़े से नहीं होती। अमेरिका के पब्लिक स्कूलों में लगभग एक लाख पैंसठ हज़ार बेघर बच्चे हैं। विधवा या पति से अलग हो चुकी औरतों के बच्चों की हालत भी बहुत दयनीय है। 2010 के एक सरकारी आँकड़े के अनुसार अमेरिका में ऐसे बच्चों की संख्या 1.08 करोड़ है यानी कुल बच्चों का 24 फ़ीसदी। इन बच्चों में 42.2 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। स्पेनी मूल के परिवारों के 50.9 फ़ीसदी बच्चे ग़रीबी झेल रहे हैं। काले लोगों के लिए यह 48.8, एशियाई मूल के लोगों के लिए 32.1 और ग़ैर-स्पेनी लोगों के लिए 32.1 फ़ीसदी है।

अमेरिकी साम्राज्यवाद का कर्ज़ संकट

पिछले लगभग एक दशक से अमेरिकी सरकार द्वारा, चाहे सरकार रिपब्लिकन पार्टी की हो या डेमोक्रेटिक पार्टी की, अमेरिका के पूँजीपतियों को टैक्सों में बड़ी राहत दी जाती रही है। बुश प्रशासन द्वारा 2001, 2003 तथा फिर 2005 में अमेरिकी पूँजीपतियों पर लगने वाले टैक्सों में भारी कटौती की गयी। दिसम्बर 2010 में ओबामा प्रशासन ने भी पूँजीपतियों पर इन टैक्स कटौतियों को जारी रखने का फ़ैसला लिया। पूँजीपतियों के लिए यह टैक्स कटौती लगभग 1 खरब डॉलर तक है। ओबामा के ही शब्दों में पूँजीपतियों पर टैक्स का “यह पिछली आधी सदी में सर्वाधिक निम्न स्तर है।” पूँजीपतियों को टैक्सों में दी जाने वाली इस बड़ी छूट के चलते सरकार की आमदनी कम हुई है। नतीजतन इससे अमेरिकी सरकार का कर्ज़ संकट बढ़ा है।