बादाम मजदूर यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली के बादाम मजदूरों की 16 दिन लम्बी हड़ताल
यह हड़ताल मजदूरों की भागीदारी के मामले में 1988 की हड़ताल से बड़ी थी और साथ ही यह गुणात्मक रूप से उस हड़ताल से अलग थी। यह एक पूरे इलाके के मजदूरों की एक इलाकाई यूनियन के नेतृत्व में हुई हड़ताल थी। वास्तव में, इस हड़ताल का प्रभाव अन्य उद्योगों पर भी पड़ने लगा था। महिला मजदूरों के पति आम तौर पर गाँधीनगर और ट्रॉनिका सिटी जैसे करीब के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करते हैं। हड़ताल के दौरान उन्होंने काम पर जाना बन्द कर दिया था और अपनी पत्नियों के साथ हड़ताल चौक पर ही जम गये थे। नतीजा यह हुआ था कि उन उद्योगों में भी दिक्कत पैदा होने लगी थी, जिनमें ये पुरुष मजदूर काम करते थे। यह करावलनगर के प्रकाश विहार, भगतसिंह कॉलोनी और पश्चिमी करावलनगर के मजदूरों की हड़ताल में तब्दील हो गयी थी। आज जब देश के 93प्रतिशत मजदूर छोटे कारखानों, वर्कशॉपों, गोदामों में या घर में काम कर रहे हैं, या फिर रेहड़ी-खोमचे वालों, रिक्शेवालों या पटरी दुकानदारों के रूप में सेवा प्रदाता के तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब देश के केवल 7 फीसदी मजदूर बड़े कारख़ानों में औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब औपचारिक क्षेत्र के भी अच्छे-ख़ासे मजदूर ठेके/दिहाड़ी पर काम करते हुए असंगठित मजदूर आबादी में शामिल हैं और कुल असंगठित मजदूरों की आबादी कुल मजदूर आबादी की97 प्रतिशत हो चुकी हो; तो ऐसे समय में इलाकाई मजदूर यूनियन के रूप में बादाम मजदूर यूनियन और उसके संघर्ष का यह प्रयोग गहरा महत्तव रखता है।