Tag Archives: अभिनव

मारुति मज़दूरों के आन्दोलन को जीत के लिए अपनी ताक़त पर भरोसा करना ही होगा!

अन्त में, हम एक बार फिर इस बात पर ज़ोर देना चाहेंगे कि मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन और सभी आन्दोलनरत साथियों को अपनी ताक़त पर भरोसा करना चाहिए। किसी बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के नेतृत्व, जिसकी पुलिस अधिकारियों और नेताओं-मन्त्रियों तक पहुँच है, उनके दाँव-पेंच से आज तक कोई भी संघर्ष नहीं जीता गया है। संघर्ष मज़दूरों ने हमेशा अपनी ताक़त पर भरोसा करके जीता है। इस संघर्ष को विद्वान व्यक्तियों द्वारा कानाफूसी करके दी जाने वाली सलाहों से भी नहीं जीता जा सकता है। जिसके पास संघर्ष का वाकई कोई रास्ता होता है, और वह उस पर भरोसा करता है, वह अपनी बात को पूरे ज़ोर के साथ सदन और सभा के बीच कहता है। बन्द कमरों में कानों के भीतर खुसफुसाता नहीं है। इसलिए ऐसे विद्वान लोगों से भी सावधान रहना चाहिए। एम.एस.डब्ल्यू.यू. और इस पूरे आन्दोलन को अपनी ताक़त पर भरोसा करते हुए अपने डेरे के लिए मारुति सुज़ुकी के सभी बर्ख़ास्‍त मज़दूरों और गिरफ़्तार मज़दूरों के परिवारों को गोलबन्द करना चाहिए और एक जगह अंगद की तरह पाँव जमा देना चाहिए। वह जगह कौन-सी हो, हरियाणा या दिल्ली, इसका फैसला भी जनरल बॉडी में जनवादी और पारदर्शी तरीक़े से होना चाहिए। अगर मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूर अपनी ताक़त पर भरोसा करते हुए सही जगह सही वक़्त पर खूँटा गाड़ देंगे, तो केन्द्रीय ट्रेड यूनियन से लेकर सभी ताक़तें खींझकर अन्ततः आपके साथ खड़ी होंगी। आपको यह समझना चाहिए कि वह आपके विरुद्ध नहीं जा सकती हैं, या तो वे तटस्थ होंगी या आपके साथ आयेंगी। अभी भी तो उनकी भूमिका कोई बहुत अलग नहीं है! ऐसे में, अगर आप निर्णायक संघर्ष का रास्ता चुनते हैं और एक जगह डेरा डालकर अपना सत्याग्रह शुरू कर देते हैं, तो इससे आप खोने क्या जा रहे हैं? कुछ भी नहीं! इसलिए अपनी ताक़त पर भरोसा करने की ज़रूरत है और आगे बढ़ने की ज़रूरत है।

मारुति सुज़ुकी मज़दूरों का आन्दोलन इलाक़ाई मज़दूर उभार की दिशा में

इन तात्कालिक और ठोस माँगों को रखने के साथ ही हमें समस्त ऑटोमोबाइल मज़दूरों के साझा माँगपत्रक को भी सरकार और प्रशासन के सामने रखना होगा। यह गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा- बावल के समस्त मज़दूरों के बीच एक दीर्घकालिक इलाक़ाई वर्ग एकजुटता का बीज डालेगा। इस बीज के अंकुरण और इसके एक शक्तिशाली वृक्ष में तब्दील होने में समय लग सकता है। लेकिन हमें इसकी शुरुआत आज ही करनी होगी, हमें बीज आज ही डालना होगा। यह न सिर्फ आज के जारी संघर्ष को जीतने के लिए ज़रूरी है बल्कि भविष्य में इस पूरी औद्योगिक पट्टी के सभी भावी संघर्षों के लिए ज़रूरी है। सन् 2000 में मारुति के निजीकरण की शुरुआत के साथ ही इस पूरी औद्योगिक पट्टी में मज़दूर आन्दोलनों की एक श्रृंखला शुरू हुई है जो होण्डा, रिको, ओरियेण्ट क्राफ़्ट के संघर्षों से होते हुए आज मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के संघर्ष तक पहुँच चुकी है। इस एक दशक से जारी संघर्ष के अनुभवों का निचोड़ हमें क्या बताता है? हमें दो औज़ारों की ज़रूरत है-पहला, इलाक़ाई मज़दूर वर्ग एकजुटता और इलाक़ाई मज़दूर उभार, और दूसरा, एक सूझबूझ वाला क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व।

मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी और मार्क्‍सवाद को विकृत करने का गन्दा, नंगा और बेशर्म संशोधनवादी दस्तावेज़

इन सभी प्रयासों के बावजूद अगर माकपा के इस दस्तावेज़ को कोई आम व्यक्ति भी पंक्तियों के बीच ध्यान देते हुए पढ़े तो माकपा की मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी, उसका पूँजीपति वर्ग के हाथों बिकना, उसका बेहूदे क़िस्म का संशोधनवाद और ‘भारतीय क़िस्म के समाजवाद’ के नाम पर भारतीय क़िस्म के पूँजीवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने का उसका शर्मनाक इरादा निपट नंगा हो जाता है! इस दस्तावेज़ में माकपा के घाघ संशोधनवादी सड़क पर निपट नंगे भाग चले हैं। मज़दूर वर्ग के इन ग़द्दारों की असलियत को हमें हर जगह बेनक़ाब करना होगा! ये हमारे सबसे ख़तरनाक दुश्मन हैं। इन्हें नेस्तनाबूत किये बग़ैर देश में मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन आगे नहीं बढ़ पायेगा!

महज़ पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है! हमें पूँजीवाद का विकल्प पेश करना होगा!

लेकिन सवाल यह है कि आज जो पूँजीवाद-विरोध अमेरिका और यूरोपीय देशों की सड़कों पर जनता कर रही है, उसमें किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन तक पहुँच पाने की क्षमता है या नहीं? यहाँ पर हम एक समस्या का सामना करते हैं। यह सच है कि आज पूँजीवाद अपने असमाधेय और अन्तकारी संकट से घिरा हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि इस संकट के कारण पूँजीवादी व्यवस्था अपने आप धूल में नहीं मिल जायेगी। इस संकट ने उसे जर्जर और कमज़ोर बना दिया है। लेकिन अगर मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में एक संगठित प्रतिरोध मौजूद नहीं होगा, तो पूँजीवादी व्यवस्था जड़ता की ताक़त से टिकी रहेगी। ठीक उसी तरह जैसे अगर कोई बूढ़ा-बीमार आदमी भी कुर्सी को कसकर जकड़ कर बैठ जाये तो उसे वहाँ से हटाने के लिए संगठित बल प्रयोग की ज़रूरत पड़ेगी। आज यही संगठित शक्ति ग़ायब दिखती है।

पूँजी के इशारों पर नाचती पूँजीवादी न्याय व्यवस्था : विनायक सेन को आजीवन क़ैद

ऐसे संविधान और न्याय-व्यवस्था के तहत विनायक सेन को सुनायी गयी सजा कोई चौंकाने वाली नहीं है। अब राज्य के दमन की जद में जनवादी और नागरिक अधिकारों की बात करने वाले बुध्दिजीवी, वकील, डॉक्टर और कार्यकर्ता भी आयेंगे ही आयेंगे। यह क्रूर पूँजी संचय का एक ऐसा दौर है जिसमें पूँजीवादी व्यवस्था देश के सबसे पिछड़े, ग़रीब और अरक्षित लोगों के जीवन के अधिकार को छीने बग़ैर पूँजी के हितों को साध ही नहीं सकती। नतीजतन, देश में जनवादी स्पेस लगातार सिकुड़ रहा है। और मजदूरों के लिए तो कमोबेश ऐसी स्थिति लगातार और हमेशा से रही है। विनायक सेन ने भारतीय लोकतन्त्र के असली घिनौने पूँजीवादी चरित्र को पूरी तरह से नंगा कर दिया है। इसका चरित्र मजदूरों से छिपा हुआ तो कभी नहीं था और वे हर रोज सड़क पर इस पूँजीवादी लोकतन्त्र से दो-चार होते हैं।

अयोध्‍या फ़ैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (दूसरी व अन्तिम किस्त)

इतिहास में पहले जो घटनाएँ घटित हुईं उनका हिसाब वर्तमान में चुकता नहीं किया जा सकता और न किया जाना चाहिए। इतिहास को पीछे नहीं ले जाया जा सकता और न ले जाया जाना चाहिए। आज का ज़िन्दा सवाल यह है ही नहीं। जिस देश में 84 करोड़ लोग 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीते हों; जहाँ के बच्चों की आधी आबादी कुपोषित हो; जहाँ 28 करोड़ बेरोज़गार सड़कों पर हों; जहाँ 36 करोड़ लोग या तो बेघर हों या झुग्गियों में ज़िन्दगी बिता रहे हों; जहाँ के 60 करोड़ मज़दूर पाशविक जीवन जीने और हाड़ गलाने पर मजबूर हों; और जहाँ समाज जातिगत उत्पीड़न और स्त्री उत्पीड़न के दंश को झेल रहा हो, वहाँ मन्दिर और मस्जिद का सवाल प्रमुख कैसे हो सकता है? वहाँ इतिहास के सैकड़ों वर्ष पहले हुए अन्याय का बदला लेना मुद्दा कैसे हो सकता है,जबकि वर्तमान समाज में अन्याय और शोषण के भयंकरतम रूप मौजूद हों?

कश्मीर समस्या का चरित्र, इतिहास और समाधान

सैन्य-दमन का ख़ात्मा कश्मीर में मौजूदा ढाँचे के भीतर कर पाना भारतीय शासक वर्ग की किसी भी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल है। जो पार्टी स्वायत्ता या जनमत संग्रह की बात को मानेगी, वह पूँजीवादी राजनीति के दायरे के भीतर अपनी ही कब्र खोदेगी। कश्मीरी जनता की जो मूल माँगें हैं, यानी स्वायत्ता और आत्मनिर्णय का अधिकार, वे सैन्य-दमन के रास्ते से कभी ख़त्म नहीं होंगी। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ये माँगें कभी मानी जायेंगी इसकी सम्भावना काफी क्षीण है और कभी सैन्य-दमन और कभी जनता को सड़कों पर थका देने की रणनीति और कभी इन दोनों रणनीतियों के मिश्रण से भारतीय शासक वर्ग कश्मीर पर अपने अधिकार को कमोबेश इसी रूप में कायम रखने का प्रयास करता रहेगा।

अयोध्‍या फैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (पहली किश्त)

केन्द्र में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार किसी भी हालत में मन्दिर मुद्दे को लेकर देश में कोई ध्रुवीकरण नहीं चाहती। इसका कारण कांग्रेस का सेक्युलरवाद नहीं है। वह कितनी सेक्युलर है, यह तो अयोध्‍या में मन्दिर विवाद का इतिहास ही दिखला देता है! इसका कारण यह है कि अभी चुनावी गणित में कांग्रेस की गोटियाँ अच्छी तरह से सेट हैं। यह सन्तुलन मन्दिर मुद्दे पर शान्ति भंग होने से बिगड़ सकता है, और भाजपा की डूब रही नैया अचानक उबरकर हावी भी हो सकती है। इसलिए कांग्रेस भी हर तरह से इस मुद्दे को गरमाने से बचाने में लगी थी। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार भी अच्छी तरह इस बात को समझ रही थी कि एक बार जाति की राजनीति पर धर्म की राजनीति हावी होने का ख़ामियाज़ा प्रदेश में जातिगत राजनीति पर निर्भर सभी दलों को उठाना पड़ा था (जिसे टकसाली पत्रकार ‘मण्डल पर मन्दिर के हावी होने’ का नाम देते हैं)। अगर ऐसा फिर होता तो मायावती को मुख्य रूप से इसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता। इसलिए उत्तर प्रदेश में भी मन्दिर मुद्दे को लेकर शान्ति भंग होने से रोकने के लिए मायावती ने अभूतपूर्व इन्तज़ाम किये थे। तीसरी और आख़िरी बात यह कि देश के शासक वर्गों को ऐसे किसी धार्मिक ध्रुवीकरण की फिलहाल कोई ज़रूरत भी नहीं थी। आप याद कर सकते हैं कि जब-जब मन्दिर विवाद को दंगे-फसाद में तब्दील कर जनता को बाँटा गया है, तब-तब देश किसी न किसी राजनीतिक या आर्थिक संकट का शिकार था। 1949 में जब कुछ साम्प्रदायिक फासीवादी तत्वों ने बाबरी मस्जिद के गुम्बद के नीचे राम की मूर्तियाँ रख दी थीं, उस समय आज़ादी के बाद देश की पूँजीवादी सत्ता अभी स्थिरीकरण की प्रक्रिया में थी और देश के कई हिस्सों में किसान संघर्ष चल रहे थे। देश दरिद्रता की स्थिति में था। 1986 में जब मस्जिद का ताला खुलवाया गया और बाद में शिलान्यास हुआ तब भी देश भयंकर आर्थिक संकट से गुज़र रहा था; बेरोज़गारी भयंकर रूप अख्तियार कर चुकी थी, मुद्रास्फीति का हाल बुरा था और विदेशी कर्ज़ से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी।

कॉमरेड के ”कतिपय बुध्दिजीवी या संगठन” और कॉमरेड का कतिपय ”मार्क्‍सवाद”

आज के समय में असंगठित सर्वहारा वर्ग कोई पिछड़ी चेतना वाला सर्वहारा वर्ग नहीं है। यह भी उन्नत मशीनों पर और असेम्बली लाइन पर काम करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह यह काम लगातार और किसी बड़े कारख़ाने में ही नहीं करता। उसका कारख़ाना और पेशा बदलता रहता है। इससे उसकी चेतना पिछड़ती नहीं है, बल्कि और अधिक उन्नत होती है। यह एक अर्थवादी समझदारी है कि जो मजदूर लगातार बड़े कारख़ाने की उन्नत मशीन पर काम करेगा, वही उन्नत चेतना से लैस होगा। उन्नत मशीन और असेम्बली लाइन उन्नत चेतना का एकमात्र स्रोत नहीं होतीं। आज के असंगठित मजदूर का साक्षात्कार पूँजी के शोषण के विविध रूपों से होता है और यह उनकी चेतना को गुणात्मक रूप से विकसित करता है। उनका एक अतिरिक्त सकारात्मक यह होता है कि वे पेशागत संकुचन, अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद जैसी ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों का शिकार कम होते हैं और तुलनात्मक रूप से अधिक वर्ग सचेत होते हैं। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि बड़े कारख़ानों की संगठित मजदूर आबादी के बीच राजनीतिक प्रचार की आज जरूरत है और इसके जरिये मजदूर वर्ग को अपने उन्नत तत्त्‍व मिल सकते हैं। लेकिन आज का असंगठित मजदूर वर्ग भी 1960 के दशक का असंगठित मजदूर वर्ग नहीं है जिसमें से उन्नत तत्त्वों की भर्ती बेहद मुश्किल हो। यह निम्न पूँजीवादी मानसिकता से ग्रसित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का श्रेष्ठताबोध है कि वे इस मजदूर को पिछड़ा हुआ मानते हैं।

यूनानी मजदूरों और नौजवानों के जुझारू आन्दोलन के सामने विश्व पूँजीवाद के मुखिया मजबूर

हर साल-दो साल पर विश्व पूँजीवाद भयंकर संकट का शिकार हो रहा है। नये सहस्राब्दी का बीता एक दशक इसी बात का गवाह है। लेकिन हर संकट विश्वभर के मजदूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता को यह अहसास दिलाता जा रहा है कि पूँजीवाद के रहते उनकी बरबादी का कोई अन्त नहीं है और इसका विकल्प ढूँढ़े बग़ैर गुजारा नहीं है। इस बात का अहसास तीसरी दुनिया के ग़रीब देशों में तो गहरा रहा ही है, लेकिन भूमण्डलीकरण के रूप में साम्राज्यवाद की अन्तिम अवस्था के आगे बढ़ते जाने के साथ विकसित देशों में पीछे की कतार में खड़े देशों में भी गहराता जा रहा है, मिसाल के तौर पर दक्षिणी और मध्‍य यूरोप के देश।
21वीं सदी की इस ‘यूनानी त्रासदी’ ने साफ कर दिया है कि हर बीतते पल के साथ पूँजीवाद अधिक से अधिक परजीवी, मरणासन्न और खोखला होता जा रहा है। साथ ही, यूनानी संकट ने यह भी साफ कर दिया है कि विश्व साम्राज्यवाद का संकट टलने या थमने वाला नहीं है। यह पूँजीवाद का अन्तकारी रोग है जो पूँजीवाद के अन्त के साथ ही समाप्त होगा।