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कुसुमपुर पहाड़ी में अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस पर सांस्कृतिक संध्या : एक शाम संघर्षों के नाम

दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की ओर से 8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के अवसर पर कुसुमपुर पहाड़ी के मद्रासी मन्दिर पार्क में सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया। कामगार स्त्री दिवस के महत्व और आज के दौर में इसकी प्रासंगिकता को लेकर दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की ओर से 4 मार्च से कुसुमपुर पहाड़ी की गलियों में अभियान चलाया जा रहा था और मज़दूरों-मेहनतकशों को इस अवसर पर होने वाले सांस्कृतिक संध्या की सूचना दी जा रही थी। कुसुमपुर के स्त्री व पुरुष मज़दूरों को बताया गया कि कार्यक्रम में नाटक और गीतों के साथ दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की माँगों और कामों पर भी चर्चा होगी। अभियान के दौरान मज़दूरों ने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सहयोग भी किया।

स्त्री मुक्ति आन्दोलन को सुधारवाद, संशोधनवाद, नारीवाद और एनजीओपन्थ की राजनीति से बाहर लाना होगा

स्त्रियाँ आज पूँजीवाद और पूँजीवादी पितृसत्ता की दोहरी गुलामी झेल रही हैं। एक तरफ पूँजीवादी व्यवस्था सस्ती स्त्री-श्रमशक्ति के दोहन के ज़रिये अपना मुनाफ़ा बढ़ा रही है वहीं दूसरी तरफ पूँजीवादी पितृसत्तात्मक मानसिकता ने स्त्रियों को भी एक बिकाऊ माल बनाकर बाज़ार में खड़ा कर दिया है। आज स्त्री सम्मान, बराबरी, न्याय, नारीशक्ति, नारी सशक्तीकरण के कानफोड़ू शोर के पीछे जो असली सवाल छिपा दिया जा रहा है वह यह है कि आज भी समान काम के लिए स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में 67 फ़ीसदी मेहनताना ही मिलता है। पीस रेट पर होने वाले काम में अधिकांशतः स्त्रि‍याँ काम करती हैं, जहाँ बेहद कम मेहनताने पर 12 से 14 घण्टे काम कराया जाता हैं। इन्हें कार्यस्थल पर सुरक्षा, बीमा, मेडिकल जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं होती है। पूँजीवादी व्यवस्था में स्त्री कार्यबल एक प्रकार की औद्योगिक रिज़र्व सेना का निर्माण करती है। समृद्धि के दौर में, स्त्रियों को बड़े पैमाने पर उद्योगों में काम पर रखा जाता है जैसा कि 70 के दशक तक इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योगों में तेज़ी के दौर में देखा गया। पूँजीपति स्त्रि‍यों के सस्ते श्रम के बूते पुरुष मज़दूरों के वेतन को भी अधिकतम सम्भव स्तर तक कम करने का प्रयत्न करता है।

8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के अवसर पर कार्यक्रम

स्त्री मज़दूर संगठन की बीना ने कहा कि पूँजीवादी समाज में स्त्रियाँ दोहरे उत्पीड़न का शिकार होती हैं – एक तो पूँजी की ग़ुलामी और दूसरी तरफ़ पितृसत्तात्मक ग़ुलामी। हम अपने आसपास, फ़ैक्टरियों तथा जिन घरों में हम काम करते हैं वहाँ  लगातार इस सामाजिक मानसिकता के दंश को झेल रहे हैं। आज के समय में जब हमारे जीवन को पूँजी की लूट ने बद से बदतर बना दिया है तो ठीक इसी कारण आज हमें उठ खड़े होने की ज़रूरत भी सबसे ज़्यादा है। आज समाज के पोर-पोर में पैठी स्त्री दलित, अल्पसंख्यक और मज़दूर विरोधी मानसिकता और फासीवादी राजनीति के ख़िलाफ़ लगातार संगठित होने की ज़रूरत है।

कविता – औरत की नियति / क्यू (वियतनाम, अट्ठारहवीं सदी)

कितनी कारुणिक है औरत की नियति,
कितना दुखद है उनका भाग्य,
हे सृष्टिकर्ता, हम लोगों पर तुम इतने निर्दय क्यों हों?
बरबाद हो गयी हमारी कच्ची उम्र
कुम्हला गये हमारे गुलाबी गाल
यहाँ दफ़्न सारी औरतें पत्नियाँ रही जीवनकाल में
फिर भी अकेली भटकती है उनकी रूह
मरने के बाद।

कविता – लहर / मर्ज़ि‍एह ऑस्‍कोई

मैं हुआ करती थी एक ठंडी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्‍ही धाराओं को नयी जिन्‍दगी देना है

समाजवादी चीन ने स्त्रियों की गुलामी की बेड़ियों को कैसे तोड़ा

समाजवादी चीन (1949-1976) ने महिला मुक्ति के मोर्चे पर जो कुछ भी हासिल किया था उसके मूल में कानूनी परिवर्तन नहीं बल्कि वे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन थे जिन्हें क्रान्ति ने सम्पन्न किया था। यूँ तो पूँजीवादी समाजों में भी महिलाओं के लिए कानून बनाये जाते हैं, लेकिन इन कानूनों से मिलने वाले लाभ पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों की वजह से निष्प्रभावी हो जाते हैं और इस तरह पूँजीवाद में कानून होने के बावजूद स्त्रियों की दासता बनी रहती है और स्त्री-पुरुष समानता दूर की कड़ी नज़र आती है।

अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस पर कविता

बहनो! साथियो!
अपनी सुरक्षा घरों की चारदीवारियों में कैद होकर नहीं की जा सकती।
बर्बरता वहाँ भी हम पर हमला कर सकती है,
रूढ़ियाँ हमें तिल-तिलकर मारती हैं वहां
अँधेरा हमारी आत्मा के कोटरों में बसेरा बना लेता है।
हमें बाहर निकलना होगा सड़कों पर
और मर्दवादी रुग्णताओं-बर्बरताओं का मुकाबला करना होगा।

8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर ‘‘मजदूर अधिकार रैली’’

मेहनतकश औरतों की हालत तो नर्क से भी बदतर है। हमारी दिहाड़ी पुरुष मज़दूरों से भी कम होती है जबकि सबसे कठिन और महीन काम हमसे कराये जाते हैं। कानून सब किताबों में धरे रह जाते हैं और हमें कोई हक़ नहीं मिलता। कई फैक्ट्रियों में हमारे लिए अलग शौचालय तक नहीं होते, पालनाघर तो दूर की बात है। दमघोंटू माहौल में दस-दस, बारह-बारह घण्टे खटने के बाद, हर समय काम से हटा दिये जाने का डर। मैनेजरों, सुपरवाइज़रों, फोरमैनों की गन्दी बातों, गन्दी निगाहों और छेड़छाड़ का भी सामना करना पड़ता है। ग़रीबी से घर में जो नर्क का माहौल बना होता है, उसे भी हम औरतें ही सबसे ज़्यादा भुगतती हैं।

अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) के अवसर पर एक कविता

खिलने दो क्रोध के फूल
बिखरने दो अंगारे
कुचल दो सख़्ती से उस अन्याय को
भोगती आयी हैं जिसे सब औरतें
और दलित वर्ग सारे।

स्त्री मुक्ति के संघर्ष को शहरी शिक्षित उच्च मध्‍यवर्गीय कुलीनतावादी दायरों के बाहर लाना होगा

जिस देश की ज्यादातर महिलाएँ मेहनत-मजदूरी करके, किसी तरह अपने परिवार का पेट भरने के लिए दिन-रात खटती रहती है, जो घर के भीतर, चूल्हे-चौखट में ही अपनी तमाम उम्र बिता देने को अभिशप्त हैं, जो आये दिन अनगिनत किस्म के अपराधें और बर्बरताओं का शिकार होती हैं, उनकी गुलामी और दोयम दर्जे की स्थिति को कोई कानून या अधिनियम नहीं खत्म कर सकता। वास्तव में स्त्रियों की मुक्ति पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर सम्भव है ही नहीं। स्त्रियों की मुक्ति सिर्फ उसी समाज में सम्भव होगी जो पूरी मानवता को उसकी पूँजी की बेड़ियों से मुक्त करेगा। इसलिए आज स्त्री मुक्ति के क्रान्तिकारी संघर्ष को सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष के साथ जुड़ना ही होगा। दूसरी ओर, यह भी सही है कि सामाजिक परिवर्तन की कोई भी लड़ाई आधी आबादी की भागीदारी के बिना नहीं जीती जा सकती।