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देशभर में साम्प्रदायिक उन्माद और नफ़रत का माहौल बनाने में जुटे संघ और भाजपा

शुरू में फ़ासीवादी राजनीति के तहत अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है, बहुसंख्यक समुदाय की जनता के सामने उन्हें एक दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है, पूँजीवादी व्यवस्था के सभी पापों का ठीकरा इस काल्पनिक दुश्मन अल्पसंख्यक आबादी के सिर पर फोड़ दिया जाता है, फ़ासीवादी नेतृत्व को बहुसंख्यक समुदाय के अकेले प्रवक्ता और हृदय-सम्राट के रूप में पेश किया जाता है और बाद में हर उस शख़्स को जो फ़ासीवादी सरकार की आलोचना करता है, उसे इस नक़ली दुश्मन की छवि में समेट लिया जाता है। मक़सद होता है पूँजीवादी व्यवस्था व कारखाना मालिकों, ठेकेदारों, पूँजीवादी ज़मीन्दारों, धन्नासेठों, धनी व्यापारियों आदि के समूचे वर्ग को कठघरे से बाहर करना, उन्हें बचाना, जबकि उनके कुकर्मों का दोष आम मेहनतकश अल्पसंख्यक आबादी पर डाल देना और इस प्रकार समूची मेहनतकश आबादी को ही धर्म के नाम पर आपस में लड़वा देना, ताकि असली दुश्मन, यानी मालिकों, व्यापारियों, पूँजीवादी ज़मीन्दारों, व धन्नासेठों, यानी लुटेरों के वर्ग को बचाना। जो भी इस साज़िश के ख़िलाफ़ खड़ा होता है, उसे भी दुश्मन व “राष्ट्र-विरोधी” क़रार दे दिया जाता है।

वेतन बढ़ोत्तरी व यूनियन बनाने के अधिकार को लेकर सैम्संग कम्पनी के मज़दूरों की 37 दिन से चल रही हड़ताल समाप्त – एक और आन्दोलन संशोधनवाद की राजनीति की भेंट चढ़ा!

सैम्संग मज़दूरों की यह हड़ताल इस बात को और पुख़्ता करती है कि आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में सिर्फ़ अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना बहुत ही मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो इलाक़े व सेक्टर के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे, इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेण्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी हम मालिकों और सरकार को सबक़ सिखा पायेंगे। दूसरा सबक़ जो हमें स्वयं सीखने की ज़रूरत है वह यह है कि बिना सही नेतृत्व के किसी लड़ाई को नहीं जीता जा सकता है। भारत के मज़दूर आन्दोलन में संशोधनवादियों के साथ-साथ कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भी मौजूद हैं, जो मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता के दम पर ही सारी लड़ाई लड़ना चाहते हैं और नेतृत्व या संगठन की ज़रूरत को नकारते हैं। ऐसी सभी ग़ैर-सर्वहारा ताक़तों को भी आदोलन से बाहर करना होगा।

अपराध को साम्प्रदायिक रंग देने की संघियों की कोशिश को जनता की एकजुटता ने फिर किया नाक़ाम!

पूरे इलाक़े में नशाखोरी बड़े पैमाने पर फैली हुई है। अक्सर नुक्कड़ चौराहों तक पर लम्पट तत्व छेड़खानी की घटनाओं को अंजाम देते हैं। बहुत से लम्पट तो भाजपा-आम आदमी पार्टी तथा अन्य चुनावबाज़ पार्टियों से ही जुड़े होते हैं। इन पार्टियों के तमाम नेता इन गुण्डों को शह देते हैं, ताकि चुनाव के समय इनका इस्तेमाल कर सकें। इलाक़े में इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी कई बार बच्चियों व स्त्रियों से बलात्कार के मामले सामने आ चुके हैं। एक वर्ष पहले साक्षी हत्याकाण्ड एवं कुछ साल पहले पाँच वर्ष की बच्ची मुस्कान के साथ भी बलात्कार और हत्या की घटना सामने आयी थी।

काँवड़ यात्रियों के बहाने दुकानों पर नाम लिखने का योगी सरकार का हिटलरी फ़रमान

मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में काँवड़ यात्रा के मार्ग पर पड़ने वाले सभी मुसलमान मालिकों के होटल बन्द करा दिये गये थे। इनमें वे शाकाहारी होटल भी शामिल थे जहाँ खाने में प्याज-लहसुन भी नहीं डाला जाता था। इस बेहूदा आदेश के पीछे मुस्लिम दुकानदारों के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे स्वामी यशवीर नाम के एक ढोंगी बाबा का हाथ है। इस घोर साम्प्रदायिक व्यक्ति ने आरोप लगया है कि “मुसलमान लोग खाने में थूक रहे हैं और मूत्र भी कर रहे हैं।” ऐसे अपराधी की जगह सीधे जेल में होनी चाहिए थी, लेकिन फ़ासिस्ट भाजपा उसे सर-आँखों पर बैठाकर उसके वाहियात आरोपों के आधार पर लोगों का कारोबार बन्द करा रही है। इसके ज़रिये काँवड़ के नाम पर रास्ते में गुण्डागर्दी करने व साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने वालो के लिए राह आसान बना रही है कि वे मुस्लिम नामों की पहचान करके उन दुकानों को निशाना बनायें। संघ परिवार व उसके अनुषंगी संगठनों द्वारा वैसे भी मुस्लिम दुकानदारों से हिन्दुओं द्वारा सामान न खरीदने का अभियान लम्बे समय से चलाया जाता रहा है।

एनटीए में पेपर लीक के लिए मोदी सरकार, प्रशासन और शिक्षा माफ़िया का नापाक गठजोड़ ज़िम्मेदार है

एक अनुमान के मुताबिक़ पिछले सात सालों में पर्चा लीक और परीक्षाओं में धाँधली की वजह से 1 करोड़ 80 लाख से ज़्यादा छात्र प्रभावित हुए हैं और कई छात्र अवसाद और निराशा में आत्महत्या तक के क़दम उठा रहे हैं। इतने बड़े पैमाने पर हो रही धाँधली के बाद अब तक मोदी सरकार और इसकी तमाम एजेंसियों ने जाँच के नाम पर केवल लीपापोती ही की है। हर बार ऐसी घटनाओं के बाद बयानबाज़ी और लफ्फाज़ी का दौर शुरू होता है। कुछ छोटे-मोटे कर्मचारियों, कुछ छात्रों को इसका ज़िम्मेदार ठहराकर पूरे मामले को ठिकाने लगा दिया जाता है और बहुत सफ़ाई के साथ असली अपराधियों को बचा लिया जाता है। यही वजह है कि मोदी सरकार के शासनकाल में अब तक इस मामले में न तो कोई बड़ी गिरफ़्तारी हुई है और न ही कोई कार्रवाई हुई है।

आज़ादी के 76 साल के बाद भी राजधानी के मेहनतकश पानी तक के लिए मोहताज

उपराज्यपाल और जल मन्त्री दोनों अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़कर दिल्ली में पानी की कमी का कारण जनसंख्या और झुग्गी-बस्तियों के विस्तार होने को बता रहे हैं। ज़ाहिरा तौर पर, अपनी नाकामी छिपाने के लिये ये दोनों ‘तू नंगा तू नंगा’ का खेल खेल रहे हैं और सारी समस्या का ठीकरा मेहनतकश जनता के सिर पर फोड़ रहे हैं, जो दिल्ली में सबकुछ चलाती है और सबकुछ बनाती है और जिसकी मेहनत की लूट के दम पर यहाँ के धन्नासेठों, नेताओं-मन्त्रियों और नौकरशाहों की कोठियाँ चमक रही हैं। भाजपा और आम आदमी पार्टी जनता की तकलीफ़ों के प्रति कितने सवेंदनशील हैं, ये तो साफ नज़र आ रहा है।

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले राम रहीम की पैरोल पर रिहाई के मायने

एक तरफ़ देश की जेल में राजनीतिक कैदियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, एक पैरोल की बात तो दूर उन्हें रहने-खाने बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम रखा जाता है, दूसरी तरफ़ बलात्कारी बाबाओं को पैरोल पर पैरोल मिली जाती है। जनता के हक़ की बात करने वाले तमाम बुद्धजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बिना चार्ज़शीट के भी सालों साल जेल में रखा जाता है और बीमार पड़ने पर भी बेल नहीं दी जाती। स्टेन स्वामी को आप भूले नहीं होंगे, जिन्हें झूठा आरोप लगा कर यू.ए.पी.ए लगा दिया गया था। जेल की बद्तर परिस्थितियों में रहने के कारण ही उनकी मौत हुई। वहीं राम रहीम जैसा बलात्कार व हत्या का आरोपी खुलेआम समाज में घूमकर भाजपा का प्रचार कर रहा है। सहज़ ही समझा जा सकता है कि फ़ासीवादी हिन्दुत्ववादी भाजपा का ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा महज़ एक ढकोसला है, बल्कि इनका असली नारा है ‘बलात्कारियों के सम्मान में भाजपा मैदान में’।

बढ़ते प्रदूषण की दोहरी मार झेलती मेहनतकश जनता

पूँजीवादी व्यवस्था की बढ़ती हवस के कारण अन्धाधुन्ध अनियन्त्रित धुआँ उगलती चिमनियों के साथ-साथ सड़कों पर हर रोज़ निजी वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण के लिए मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार है। अकेले दिल्ली में हर रोज़ सड़कों पर लगभग एक करोड़ से भी ज्यादा मोटर वाहन चलते हैं। इसकी मूल वजह पर्याप्त मात्रा में सार्वजनिक परिवहन के साधनों का न होना और पूँजीवादी असमान विकास के कारण पूरे देश से दिल्ली में काम-धन्धे के लिए लोगों का प्रवासन है। इसके कारण दिल्ली शहर पर भारी बोझ है और बढ़ते प्रदूषण में इसका भी योगदान है। यह पूँजीवादी विकास के मॉडल का कमाल है, जो कि व्यापक मेहनतकश आबादी को उसके निवास के करीब गुज़ारे योग्य रोज़गार नहीं मुहैया करा सकता। लाखों लोग दो-दो, तीन-तीन घण्टे सफ़र करके आसपास के शहरों से रोज़ दिल्ली आते हैं और फिर वापस जाते हैं।

दिल्ली में पानी की समस्या से जूझती जनता

केजरीवाल सरकार ने 700 लीटर मुफ़्त पानी देना का जो वायदा किया उसे केवल एक ख़ास वर्ग के लिए निभाया है। एक तरफ़ दिल्ली के मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग की सोसायटी में पानी की दिक्कत होने पर उसे तुरन्त प्रभाव से ठीक कर दिया जाता है। उनके कुत्ते और गाड़ी धोने के लिए भी पर्याप्त पानी सप्लाई किया जाता है। इसके विपरीत दिल्ली के मज़दूर इलाक़ों में पीने के पानी के लिये भी लम्बी कतारें देखने को मिलती हैं। मज़दूर आबादी सप्ताह भर के लिए पानी स्टोर करके रखती है। इस पानी की गुणवत्ता भी पीने लायक नहीं है। इन इलाक़ों में 350 से 450 टीडीएस के बीच पानी की सप्लाई होती है। लेकिन दिल्ली के मज़दूर इलाक़ों में पानी की समस्या के लिए कोई समाधान नहीं किया जाता। मज़दूर इलाक़ों में पानी को लेकर जनता के जुझारू आन्दोलन संगठित करने की आवश्यकता है और इस दिशा में प्रयास चल भी रहे हैं।

जब बस्तियों के किनारे श्मशान बना दिये जायें तो समझो हालात बद से बदतर हो गये हैं

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने तमाम सरकारों के चेहरे से एक बार नक़ाब उतार दिया है। स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल पट्टी पूरी तरह खुल गयी है। कोरोना महामारी से प्रतिदिन 4000 के क़रीब मौतें हो रही हैं, जो सिर्फ़ सरकारी आँकड़ा है, पर असल में सरकारी आँकड़ों से तीन-चार गुना अधिक मौतें हो रही हैं। मौत न कहकर इनको व्यवस्था द्वारा की गयी हत्या कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चारों तरफ़ हाहाकार है, लोग ऑक्सीजन, बेड और दवाइयों के लिए भटक रहे हैं। लेकिन केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों ने अपनी ज़िम्मेदारी से हाथ उठा लिये है।