पहले ग़रीबों का जंगल, जमीन, नदियों, चरागाह, गाँव के तालाब और साझा सम्पत्ति वाले संसाधनों पर जो भी थोड़ा-बहुत अधिकार था, वे भी विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) और खनन, औद्योगिक विकास, सूचना प्रौद्योगिकी पार्कों आदि से सम्बन्धित अन्य ”विकास” परियोजनाओं की आड़ में भारत राज्य के लगातार निशाने पर हैं। जिस भौगोलिक क्षेत्र में सरकार द्वारा सैन्य या अर्द्ध-सैनिक हमले करने की योजना है, वहाँ खनिज, वन सम्पदा और पानी जैसे प्रचुर प्राकृतिक स्रोत हैं, और ये इलाके बड़े पैमाने पर अधिग्रहण के लिए अनेक कॉरपोरेशनों के निशाने पर रहे हैं। विस्थापित और सम्पत्तिविहीन किये जाने के खिलाफ स्थानीय मूल निवासियों के प्रतिरोध के कारण कई मामलों में सरकार के समर्थन प्राप्त कॉरपोरेशन इन क्षेत्रों में अन्दरूनी भाग तक जाने वाली सड़कें नहीं बना सके हैं। हमें डर है कि यह सरकारी हमला इन कॉरपोरेशनों के प्रवेश और काम करने को सुगम बनाने के लिए और इस क्षेत्र के प्राकृतिक स्रोतों एवं लोगों के अनियन्त्रित शोषण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ऐसे लोकप्रिय प्रतिरोधों को कुचलने का प्रयास भी है। बढ़ती असमानता और सामाजिक वंचना तथा ढाँचागत हिंसा की समस्याएँ, और जल-जंगल-जमीन से विस्थापित किये जाने के खिलाफ ग़रीबों और हाशिये पर धकेल दिए गये लोगों के अहिंसक प्रतिरोध का राज्य द्वारा दमन किया जाना ही समाज में गुस्से और उथल-पुथल को जन्म देता है एवं ग़रीबों द्वारा राजनीतिक हिंसा का रूप अख्तियार कर लेता है। समस्या के स्रोत पर धयान देने के बजाय, भारतीय राजसत्ता ने इस समस्या से निपटने के लिए सैन्य हमला शुरू करने का निर्णय लिया है : ग़रीबी को नहीं ग़रीब को खत्म करो, भारत सरकार का छिपा हुआ नारा जान पड़ता है।