Category Archives: संघर्षरत जनता

कॉमरेड के ”कतिपय बुध्दिजीवी या संगठन” और कॉमरेड का कतिपय ”मार्क्‍सवाद”

आज के समय में असंगठित सर्वहारा वर्ग कोई पिछड़ी चेतना वाला सर्वहारा वर्ग नहीं है। यह भी उन्नत मशीनों पर और असेम्बली लाइन पर काम करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह यह काम लगातार और किसी बड़े कारख़ाने में ही नहीं करता। उसका कारख़ाना और पेशा बदलता रहता है। इससे उसकी चेतना पिछड़ती नहीं है, बल्कि और अधिक उन्नत होती है। यह एक अर्थवादी समझदारी है कि जो मजदूर लगातार बड़े कारख़ाने की उन्नत मशीन पर काम करेगा, वही उन्नत चेतना से लैस होगा। उन्नत मशीन और असेम्बली लाइन उन्नत चेतना का एकमात्र स्रोत नहीं होतीं। आज के असंगठित मजदूर का साक्षात्कार पूँजी के शोषण के विविध रूपों से होता है और यह उनकी चेतना को गुणात्मक रूप से विकसित करता है। उनका एक अतिरिक्त सकारात्मक यह होता है कि वे पेशागत संकुचन, अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद जैसी ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों का शिकार कम होते हैं और तुलनात्मक रूप से अधिक वर्ग सचेत होते हैं। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि बड़े कारख़ानों की संगठित मजदूर आबादी के बीच राजनीतिक प्रचार की आज जरूरत है और इसके जरिये मजदूर वर्ग को अपने उन्नत तत्त्‍व मिल सकते हैं। लेकिन आज का असंगठित मजदूर वर्ग भी 1960 के दशक का असंगठित मजदूर वर्ग नहीं है जिसमें से उन्नत तत्त्वों की भर्ती बेहद मुश्किल हो। यह निम्न पूँजीवादी मानसिकता से ग्रसित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का श्रेष्ठताबोध है कि वे इस मजदूर को पिछड़ा हुआ मानते हैं।

लुधियाना के होजरी मजदूर संघर्ष की राह पर

इस आन्दोलन में जो मजदूर साथी आगे होकर मालिकों से रेट की बात कर रहे थे, उन्हें मालिक काम से हटाने की कोशिश करेंगे। अधिकतर कारखानों में मालिक नेतृत्वकारी मजदूरों को किसी न किसी बहाने कारखाने से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। इन्हीं बातों के मद्देनजर आपसी एकता बनाये रखना आने वाले समय की माँग है। बाकी कारखानों के मजदूरों से सम्पर्क करके होजरी उद्योग के मजदूरों की एक साझा संघर्ष कमेटी बनाने और एक साझा माँगपत्र तैयार करके उस पर संघर्ष का आधार तैयार करने का यह समय है।

अन्तरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर पूँजी की सत्ता के ख़िलाफ लड़ने का संकल्प लिया मजदूरों ने

गोरखपुर में पिछले वर्ष महीनों चला मजदूर आन्दोलन कोई एकाकी घटना नहीं थी, बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में उठती मजदूर आन्दोलन की नयी लहर की शुरुआत थी। आन्दोलन के खत्म होने के बाद बहुत से मजदूर अलग-अलग कारख़ानों या इलाकों में भले ही बिखर गये हों, मजदूरों के संगठित होने की प्रक्रिया बिखरी नहीं बल्कि दिन-ब-दिन मजबूत होकर आगे बढ़ रही है। इस बार गोरखपुर में अन्तरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के आयोजन में भारी पैमाने पर मजदूरों की भागीदारी ने यह संकेत दे दिया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश का मजदूर अब अपने जानलेवा शोषण और बर्बर उत्पीड़न के ख़िलाफ जाग रहा है।
यूँ तो विभिन्न संशोधनवादी पार्टियों और यूनियनों की ओर से हर साल मजदूर दिवस मनाया जाता है लेकिन वह बस एक अनुष्ठान होकर रह गया है। मगर बिगुल मजदूर दस्ता की अगुवाई में इस बार गोरखपुर में मई दिवस मजदूरों की जुझारू राजनीतिक चेतना का प्रतीक बन गया।

बादाम मजदूर यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली के बादाम मजदूरों की 16 दिन लम्बी हड़ताल

यह हड़ताल मजदूरों की भागीदारी के मामले में 1988 की हड़ताल से बड़ी थी और साथ ही यह गुणात्मक रूप से उस हड़ताल से अलग थी। यह एक पूरे इलाके के मजदूरों की एक इलाकाई यूनियन के नेतृत्व में हुई हड़ताल थी। वास्तव में, इस हड़ताल का प्रभाव अन्य उद्योगों पर भी पड़ने लगा था। महिला मजदूरों के पति आम तौर पर गाँधीनगर और ट्रॉनिका सिटी जैसे करीब के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करते हैं। हड़ताल के दौरान उन्होंने काम पर जाना बन्द कर दिया था और अपनी पत्नियों के साथ हड़ताल चौक पर ही जम गये थे। नतीजा यह हुआ था कि उन उद्योगों में भी दिक्कत पैदा होने लगी थी, जिनमें ये पुरुष मजदूर काम करते थे। यह करावलनगर के प्रकाश विहार, भगतसिंह कॉलोनी और पश्चिमी करावलनगर के मजदूरों की हड़ताल में तब्दील हो गयी थी। आज जब देश के 93प्रतिशत मजदूर छोटे कारखानों, वर्कशॉपों, गोदामों में या घर में काम कर रहे हैं, या फिर रेहड़ी-खोमचे वालों, रिक्शेवालों या पटरी दुकानदारों के रूप में सेवा प्रदाता के तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब देश के केवल 7 फीसदी मजदूर बड़े कारख़ानों में औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब औपचारिक क्षेत्र के भी अच्छे-ख़ासे मजदूर ठेके/दिहाड़ी पर काम करते हुए असंगठित मजदूर आबादी में शामिल हैं और कुल असंगठित मजदूरों की आबादी कुल मजदूर आबादी की97 प्रतिशत हो चुकी हो; तो ऐसे समय में इलाकाई मजदूर यूनियन के रूप में बादाम मजदूर यूनियन और उसके संघर्ष का यह प्रयोग गहरा महत्तव रखता है।

एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) के संशोधनवादी विपथगमन के ख़तरे और नेपाली क्रान्ति का भविष्य

नेपाल में कम्युनिस्ट आन्दोलन के साठ वर्षों के इतिहास ने, विशेषकर विगत दो दशकों ने वहाँ की कम्युनिस्ट कतारों को काफी कुछ सिखाया है। आज भले ही स्थितियाँ प्रतिकूल लग रही हैं, पर ऐसा कत्तई नहीं हो सकता कि वहाँ के पूरे क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन को दक्षिणपंथी अवसरवाद अपने आगोश में ले ले। इतिहास से शिक्षा लेकर, वहाँ कतारों के बीच से आगे आने वाले नये नेतृत्व, और अतीत का समाहार करके सही रास्ते पर आने वाले नेतृत्व की पुरानी पीढ़ी के कुछ लोगों की रहनुमाई में, देर-सबेर सही क्रान्तिकारी लाइन एक बार फिर नयी उफर्जस्विता के साथ अवश्य उठ खड़ी होगी और दृढ़तापूर्वक आगे कदम बढ़ायेगी।

लुधियाना के मेहनतकशों के एकजुट संघर्ष की बड़ी जीत

इस जबरदस्त रैली और प्रदर्शन के सफल आयोजन ने जहाँ मज़दूरों में फैले पुलिस और गुण्डों के डर के माहौल को तोड़कर पहली जीत दर्ज करवाई थी वहीं दूसरी जीत तब हासिल हुई जब रैली को अभी दो दिन भी नहीं बीते थे कि 19 जनवरी की रात को 39 मज़दूर को जेल से बिना शर्त रिहा कर दिया गया। रिपोर्ट लिखे जाने तक 3 नाबालिग बच्चों को कुछ कागजी कार्रवाई के चलते रिहाई नहीं मिल सकी थी लेकिन उनकी रिहाई का रास्ता साफ हो चुका है। कारखाना मज़दूर यूनियन लुधियाना तथा अन्य संगठन बच्चों की रिहाई की कार्रवाई जल्द पूरी करवाने के लिए प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं। पंजाब सरकार ने पंजाब प्रवासी कल्याण बोर्ड के जरिये पीड़ितों के लिए 17 लाख रुपये मुआवजे के तौर पर भी जारी किये हैं। संगठनों के साझा मंच ने इस मुआवजे को नाममात्र करार देते हुए पीड़ितों को उचित मुआवजा देने की माँग की है। यह जीत लुधियाना के मज़दूर आन्दोलन की बहुत बड़ी जीत है। इस जीत ने लुधियाना के मज़दूर आन्दोलन में नया जोश भरने का काम किया है।

बिगुल पुस्तिका – 17 : नेपाली क्रान्ति: इतिहास, वर्तमान परिस्थिति और आगे के रास्ते से जुड़ी कुछ बातें, कुछ विचार

इस पुस्तिका में ‘बिगुल’ में मई, 2008 से लेकर जनवरी-फ़रवरी 2010 तक नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन और वहाँ जारी क्रान्तिकारी संघर्ष के बारे में लिखे गये आलोक रंजन के लेख कालक्रम से संकलित हैं। इन लेखों में शुरू से ही नेपाल की माओवादी पार्टी के उन भटकावों-विसंगतियों को इंगित किया है, जिनके नतीजे 2009 के अन्त और 2010 की शुरुआत तक काफ़ी स्पष्ट होकर सतह पर आ गये। नेपाली क्रान्ति की समस्याएँ गम्भीर हैं, लेकिन लेखक उसके भविष्य को अन्धकारमय मानने के निराशावादी निष्कर्षों तक नहीं पहुँचता। उसका मानना है कि दक्षिणपन्थी अवसरवाद की हावी प्रवृत्ति को निर्णायक विचारधारात्मक संघर्ष में शिकस्त देकर और मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी-माओवादी क्रान्तिकारी लाइन पर नये सिरे से अपने को पुनगर्ठित करके ही एकीकृत नेकपा (माओवादी) नेपाली क्रान्ति को आगे बढ़ाने में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकती है। यदि वह ऐसा नहीं कर सकती तो फिलहाली तौर पर उसके बिखराव और क्रान्तिकारी प्रक्रिया के विपयर्य की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। लेकिन आने वाले समय में बुर्जुआ जनवादी और संसदीय राजनीति में आकण्ठ धँसे सभी कि़स्म के संशोधनवादी वाम का ‘एक्सपोज़र’ काफ़ी तेज़ी से होगा। साथ ही, क्रान्तिकारी वाम के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया नये सिरे से तेज़ हो जायेगी। नेपाली क्रान्ति की धारा कुछ समय के लिए बाधित या गतिरुद्ध हो सकती है, लेकिन उसका गला घोंट पाना अब मुमकिन नहीं है। पुस्तिका के परिशिष्ट के रूप में रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी, यू.एस.ए. के मुखपत्र ‘रिवोल्यूशन’ (नं. 160, 28 अप्रैल 2009) में प्रकाशित एक लेख का अनुवाद भी दिया गया है। नेपाल में क्रान्ति के रास्ते के प्रश्न पर संसदीय मार्ग बनाम क्रान्तिकारी मार्ग की जो बहस नये सिरे से उठ खड़ी हुई है, उसका सार्वभौमिक विचारधारात्मक महत्त्व है। इस बहस की विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु को समझना भारत की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट क़तारों और सर्वहारा वर्ग के लिए भी उतना ही ज़रूरी है जितना नेपाल की पार्टी क़तारों और मेहनतकशों के लिए।

बादाम मज़दूरों की 15 दिन लम्बी ऐतिहासिक हड़ताल समाप्त

इस हड़ताल के समापन के साथ दिल्ली के असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की अब तक की विशालतम हड़ताल का समापन हुआ। बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में हज़ारों असंगठित मज़दूरों ने सिद्ध किया कि वे लड़ सकते हैं और जीत सकते हैं। जाहिर है कि मज़दूर अपनी सभी माँगों को नहीं जीत सके। लेकिन इस हड़ताल का महत्व महज़ इतना नहीं रह गया था कि मज़दूरी कितनी बढ़ती है और कितनी नहीं। एक ऐसे उद्योग में जहाँ मज़दूरों को मालिक और ठेकेदार गुलामों की तरह खटाते थे, उनकी साथ लगातार बदसलूकी की जाती थी और उन्हें इंसान तक नहीं समझा जाता था, वहाँ मज़दूरों ने एक ऐतिहासिक और जुझारू लड़ाई लड़कर इज्जत का अपना हक हासिल किया। मालिकों को पहली बार मज़दूरों की ताक़त का अहसास हुआ और उनकी यह गलतफहमी दूर हो गयी कि मज़दूर उनकी ज़्यादतियों को चुपचाप बर्दाश्त करते रहेंगे और कभी कुछ नहीं बोलेंगे। हड़ताल के अंत के दौर तक मालिक मज़दूरों के सामने हर तरह से झुकने लगे थे। इसके अतिरिक्त, न सिर्फ मालिकों को मज़ूदरों की ताक़त का अन्दाज़ा चला, बल्कि पूरे इलाके में संगठित मज़दूरों की ताक़त एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरी।

लुधियाना की सड़कों पर हज़ारों मज़दूरों के गुस्से का लावा फूटा

4 दिसम्बर को लुधियाना की सड़कों पर हज़ारों मज़दूरों का प्रदर्शन और पुलिस द्वारा उनके दमन की घटना सारे देश के अख़बारों और ख़बरिया टीवी चैनलों की सुर्खियों में रही। लेकिन मज़दूरों के इस आन्दोलन और उनके दमन की सही-सही तस्वीर किसी ने पेश नहीं की। किसी ने प्रदर्शनकारी मज़दूरों को उप्रदवी कहा तो किसी ने उत्पाति। एक मशहूर पंजाबी अख़बार ने मज़दूरों को दंगाकारियों का नाम दिया। एक अख़बार ने मज़दूरों के प्रदर्शन को बवालियों द्वारा की गयी हिंसा और तोड़-फोड़ कहा। एक अंग्रेज़ी अख़बार ने लुधियाना की इन घटनाओं को प्रवासी मज़दूरों और स्थानीय लोगों के बीच की हिंसा कहकर ग़लत प्रचार किया। उन पूँजीवादी अख़बारों ने, जो मज़दूरों के पक्ष में लिखने वाले महसूस भी हुए, यूपी-बिहार के क्षेत्रीय नज़रिये से ही लिखा और घटनाक्रम को इस तरह पेश किया जैसे यह यू.पी.-बिहार के नागरिकों और पंजाब के नागरिकों के बीच की लड़ाई हो। इस घटनाक्रम का सही-सही ब्योरा और उसके पीछे के असल कारण इन पूँजीवादी अख़बारों और टी.वी. चैनलों से लगभग ग़ायब रहे; और इन्होंने कुल मिलाकर लोगों को ग़लत जानकारी मुहैया कराकर मज़दूरों के इस विरोध प्रदर्शन को बदनाम किया, इसके बारे में देश की जनता को गुमराह और भ्रमित किया।

गोरखपुर में अड़ियल मालिकों के ख़िलाफ मज़दूरों का संघर्ष जारी

अंकुर उद्योग लि, वी एन डायर्स धागा व कपड़ा मिल तथा जालानजी पालिटेक्स के मज़दूरों ने लड़कर काम के घण्टे आठ कराये थे लेकिन मालिकान फिर से 12 घण्टे काम कराने की जी-तोड कोशिश में लगे हैं। लगातार मौखिक दबाव बनाने के बाद अन्त में अंकुर के मालिकान ने एक नोटिस लगा दिया कि अब कम्पनी में 12 घण्टा काम होगा। इसके बाद मजदूरों ने टोलियाँ बनाकर रातभर कमरे-कमरे घूमकर प्रचार किया और तैयारी कर लिया कि काम आठ घण्टा ही करेंगे। इसके बाद अगले दिन सुबह वाली शिफ्ट 2 बजे के 10 मिनट पहले ही मशीनें बन्द कर बाहर आ गयी। बाहर खडी दूसरी शिफ्ट ने ताली बजाकर उसका स्वागत किया। दूसरी शिफ्ट को मालिक ने अन्दर नही लिया। फिर गेट पर ही एक मैराथन मीटिंग शाम तक हुई। मजदूरों ने यह तय किया कि रात 10 बजे नहीं आयेंगे। दो बजे ही आयेगे। अपने अधिकारों के प्रति वे जाग गये हैं इसका एहसास मालिक को करा दिया। अगले दिन दूसरी शिफ्ट नही चली। तीसरे दिन फिर काम के घण्टे आठ रहने की नोटिस लग गयी।