Category Archives: संघर्षरत जनता

8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर ‘‘मजदूर अधिकार रैली’’

मेहनतकश औरतों की हालत तो नर्क से भी बदतर है। हमारी दिहाड़ी पुरुष मज़दूरों से भी कम होती है जबकि सबसे कठिन और महीन काम हमसे कराये जाते हैं। कानून सब किताबों में धरे रह जाते हैं और हमें कोई हक़ नहीं मिलता। कई फैक्ट्रियों में हमारे लिए अलग शौचालय तक नहीं होते, पालनाघर तो दूर की बात है। दमघोंटू माहौल में दस-दस, बारह-बारह घण्टे खटने के बाद, हर समय काम से हटा दिये जाने का डर। मैनेजरों, सुपरवाइज़रों, फोरमैनों की गन्दी बातों, गन्दी निगाहों और छेड़छाड़ का भी सामना करना पड़ता है। ग़रीबी से घर में जो नर्क का माहौल बना होता है, उसे भी हम औरतें ही सबसे ज़्यादा भुगतती हैं।

मारुति सुज़ुकी मज़दूरों की ‘‘न्याय अधिकार रैली’’ और उनके समर्थन में देशव्यापी प्रदर्शन।

मारुति सुज़ुकी में हुई 18 जुलाई की घटना के छह महीने गुज़र चुके हैं लेकिन आज भी बर्ख़ास्‍त मज़दूर अपने न्याय की लड़ाई जारी रखे हुए हैं। वहीं दूसरी तरफ हरियाणा सरकार के पुलिस-प्रशासन, श्रम कार्यालय से लेकर मारुति प्रबन्धन का मज़दूर-विरोधी क्रूर चेहरा और ज़्यादा नंगा हो रहा है जिसकी ताज़ा मिसाल यूनियन के नेतृत्वकारी साथी ईमान ख़ान की गिरफ़्तारी है। साफ़ है कि मज़दूरों पर दमन के लिए पूँजी की सभी ताक़तें एकजुट हैं और उनके खि़लाफ़ मारुति के मज़दूर भी अपने फ़ौलादी इरादों के साथ डटे हुए हैं। वैसे अगर हम छह माह के संघर्ष पर नज़र डालें, तो मारुति मज़दूरों अब तक कई धरनों और रैलियों से लेकर ऑटो-सम्मेलन का भी आयोजन कर चुके, जिसमें उन्होंने हरियाणा सरकार के उद्योगमन्त्री रणदीप सुरजेवाल, श्रममन्त्री शिवचरण लाल शर्मा से लेकर खेल व युवा मन्त्री सुखबीर कटारिया तक के सामने आपनी माँगे रखीं, लेकिन सभी जगह मज़दूरों को सिर्फ़ कोरे आश्वासन ही मिले।साफ़ है कि ये लोग पूँजीपतियों के सेवक के रूप में बेहतरीन भूमिका अदा कर रहे हैं और आन्दोलन को लम्बा खींचकर मज़दूरों को थकाने की योजना बना रहे हैं। ऐसे में मारुति के मज़दूरों का आन्दोलन आपनी ताक़त को सही दिशा और कार्यक्रम पर लगाकर ही विजय पा सकता है।

हक़ और इंसाफ़ के लिए लुधियाना के मज़दूरों के आगे बढ़ते क़दम

19 अगस्त को टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन की तरफ से मज़दूर पंचायत बुलायी गयी। ज़ोरदार बारिश के बावजूद लगभग 700 मज़दूरों ने पंचायत में हिस्सा लिया। इस पंचायत की तैयारी में यूनियन की तरफ से टेक्सटाइल व होज़री मज़दूरों में बड़ी संख्या में परचे बाँटे गये और विचार-विमर्श के लिए कुछ माँगें भी सुझायी गयीं जिन पर पंचायत में हुई चर्चा के बाद सहमति बन गयी। 25 अगस्त को एक माँगपत्रक तैयार करके सभी फैक्ट्रियों के मज़दूरों ने मालिकों तक पहुँचा दिया। यूनियन ने साफ़ कह दिया कि जो मालिक माँगों के बारे में अपने मज़दूरों से समझौता कर लेगा उसकी फ़ैक्ट्री चलती रहेगी, जो भी मालिक मज़दूरों की जायज़ माँग नहीं मानेगा उसके प्रति सभी मज़दूर मिलकर फैसला लेंगे। कुछ मालिकों ने अपने मज़दूरों से समझौता कर लिया, जिसके अनुसार पहले की 25 प्रतिशत और अभी की 13 प्रतिशत वृद्धि यानी कुल 38 प्रतिशत वेतन बढ़ोत्तरी, 8.33 प्रतिशत बोनस और सभी मज़दूरों का ई.एस.आई. कार्ड बनवाने की बात पर लिखित समझौता करने पर उन फैक्ट्रियों में काम चलता रहा। लेकिन जिन मालिकों ने इन माँगों पर ध्यान नहीं दिया उनके बारे में 16 सितम्बर को यूनियन की साप्ताहिक सभा में फैसला लिया गया कि उन फैक्ट्रियों में मज़दूर 5 बजे के बाद ओवरटाइम लगाना बन्द कर रोज़ाना मीटिंग किया करेंगे। अभी भी काफी मालिक कुछ नहीं देने की ज़िद पर अड़े हैं और मीटिंग रोज़ाना जारी है।

लुधियाना में टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन का स्थापना सम्मेलन

बिना जनवाद लागू किए कोई भी जनसंगठन सच्चे मायनों में जनसंगठन नहीं हो सकता। जनवाद जनसंगठन की जान होता है। सम्मेलन जनसंगठन में जनवाद का सर्वोच्च मंच होता है। किसी भी जनसंगठन के लिए सम्मेलन करने की स्थिति में पहुँचना एक महत्वपूर्ण मुकाम होता है। वर्ष 2010 में लुधियाना के पावरलूम मज़दूरों की लम्बी चली हड़तालों के बाद अस्तित्व में आयी टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन ने पिछले 4 अगस्त को अपना स्थापना सम्मेलन किया।

मारुति के मज़दूरों के समर्थन में विभिन्न जनसंगठनों का दिल्ली में प्रदर्शन

मारुति सुज़ुकी, मानेसर के सैकड़ों मजदूरों को मैनेजमेण्‍ट द्वारा मनमाने ढंग से बर्खास्त किये जाने और मज़दूरों के लगातार जारी उत्पीड़न के विरुद्ध विभिन्न जन संगठनों, यूनियनों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 21 अगस्त को नयी दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किया और केन्द्रीय श्रम मन्त्री को ज्ञापन देकर मज़दूरों की बर्खास्तगी पर रोक लगाने की माँग की। इसी दिन एक महीने की तालाबन्दी के बाद कम्पनी मैनेजमेण्ट ने कारख़ाना दुबारा शुरू करने की घोषणा की थी। सुबह से हो रही बारिश के बावजूद जन्तर-मन्तर पर हुए प्रदर्शन में दिल्ली, गाज़ियाबाद, नोएडा और गुड़गाँव से बड़ी संख्या में आये मज़दूरों तथा कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

मज़दूरों के ख़िलाफ़ एकजुट हैं पूँजी और सत्ता की सारी ताक़तें

मारुति सुज़ुकी जैसी घटना न देश में पहली बार हुई है और न ही यह आख़िरी होगी। न केवल पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में, बल्कि पूरे देश में हर तरह के अधिकारों से वंचित मज़दूर जिस तरह हड्डियाँ निचोड़ डालने वाले शोषण और भयानक दमघोंटू माहौल में काम करने और जीने को मजबूर कर दिये गये हैं, ऐसे में इस प्रकार के उग्र विरोध की घटनाएँ कहीं भी और कभी भी हो सकती हैं। इसीलिए इन घटनाओं के सभी पहलुओं को अच्छी तरह जानना-समझना और इनके अनुभव से अपने लिए ज़रूरी सबक़ निकालना हर जागरूक मज़दूर के लिए, और सभी मज़दूर संगठनकर्ताओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

डीएमकेयू ने क़ानूनी संघर्ष में एक क़दम आगे बढ़ाया।

जैसा कि आप जानते ही होगें कि दिल्ली मेट्रो रेल में क़रीब 70 फ़ीसदी आबादी ठेका मज़दूरों की है जिसमें मुख्यत: सफ़ाईकर्मी, गार्ड तथा टिकट व मेण्टेनेंस ऑपरेटर हैं। इस मज़दूर आबादी का शोषण चमकते मेट्रो स्टेशनों के पीछे छिपा रहता है। ठेका मज़दूरों को न तो न्यूनतम वेतन, न ही ईएसआई कार्ड और साप्ताहिक अवकाश जैसी बुनियादी सुविधायें ही मिलती हैं जिसके ख़िलाफ़ 2008 में सफ़ाईकर्मियों ने एकजुट होकर ‘दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन’ का गठन कर अपने हक़-अधिकारों के संघर्ष की शुरुआत की थी। यूनियन ने उस बीच ‘मेट्रो भवन’ के समक्ष कई प्रदर्शन भी किये। इन प्रदर्शन से बौखलाये डीएमआरसी और सरकारी प्रशासन का तानाशाही पूर्ण रवैया भी खुलकर सामने आया जिसके तहत 5 मई के प्रदर्शन में क़ानूनी जायज़ माँगों का ज्ञापन देने गये 46 मज़दूरों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। लेकिन इस दमनपूर्ण कार्रवाई के बावजूद मज़दूरों ने संघर्ष जारी रखा।

करावलनगर में इलाक़ाई मज़दूर यूनियन की पहली सफल हड़ताल

इस हड़ताल की सबसे ख़ास बात यह थी कि हालाँकि यह बड़े पैमाने पर नहीं थी, लेकिन इसमें जिस पेशे और कारख़ानों के मज़दूरों ने हड़ताल की थी, उससे ज़्यादा संख्या में अन्य पेशों के मज़दूरों ने भागीदारी की। अगर अन्य पेशों के मज़दूर भागीदारी न करते तो अकेले पेपर प्लेट मज़दूरों की लड़ाई का सफल होना मुश्‍क़िल हो सकता था। इलाक़ाई मज़दूर यूनियन बनने के बाद यह पहला प्रयोग था जिसमें मज़दूरों की इलाक़ाई एकजुटता के आधार पर एक हड़ताल जीती गयी। आज जब पूरे देश में ही बड़े कारख़ानों को छोटे कारख़ानों में तोड़ा जा रहा है, मज़दूरों को काम करने की जगह पर बिखराया जा रहा है, तो कारख़ाना-आधारित संघर्षों का सफल हो पाना मुश्‍क़िल होता जा रहा है। ऐसे में, ‘बिगुल’ पहले भी मज़दूरों की इलाक़ाई और पेशागत एकता के बारे में बार-बार लिखता रहा है। यह ऐसी ही एक हड़ताल थी जिसमें एक इलाक़े के मज़दूरों ने पेशे और कारख़ाने के भेद भुलाकर एक पेशे के कारख़ाना मालिकों के ख़िलाफ़ एकजुटता क़ायम की और हड़ताल को सफल बनाया।

मारुति सुज़ुकी के मज़दूर फ़िर जुझारू संघर्ष की राह पर

आन्दोलन के समर्थन में प्रचार करने के दौरान हमने ख़ुद देखा है कि गुड़गाँव-मानेसर- धारूहेड़ा से लेकर भिवाड़ी तक के मजदूर तहेदिल से इस लड़ाई के साथ हैं। लेकिन उन्हें साथ लेने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है। जून की हड़ताल की ही तरह इस बार भी व्यापक मजदूर आबादी को आन्दोलन से जोड़ने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। मारुति के आन्दोलन में उठे मुद्दे गुड़गाँव के सभी मजदूरों के साझा मुद्दे हैं – लगभग हर कारखाने में अमानवीय वर्कलोड, जबरन ओवरटाइम, वेतन से कटौती, ठेकेदारी, यूनियन अधिकारों का हनन और लगभग ग़ुलामी जैसे माहौल में काम कराने से मजदूर त्रस्त हैं और समय-समय पर इन माँगों को लेकर लड़ते रहे हैं। बुनियादी श्रम क़ानूनों का भी पालन लगभग कहीं नहीं होता। इन माँगों पर अगर मारुति के मजदूरों की ओर से गुडगाँव-मानेसर और आसपास के लाखों मज़दूरों का आह्वान किया जाता और केन्द्रीय यूनियनें ईमानदारी से तथा अपनी पूरी ताक़त से उसका साथ देतीं तो एक व्यापक जन-गोलबन्दी की जा सकती थी। इसका स्वरूप कुछ भी हो सकता था – जैसे, इसे एक ज़बर्दस्त मजदूर सत्याग्रह का रूप दिया जा सकता था।

हड़ताल: मेट्रो के सफ़ाईकर्मियों ने शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द की

नई दिल्ली में दिलशाद गार्डन स्टेशन पर 30 अगस्त को ए टू ज़ेड ठेका कम्पनी के सफ़ाईकर्मियों ने श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के ख़िलाफ़ हड़ताल की जिसका नेतृत्व दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन ने किया। इसमें दिलशाद गार्डन, मानसरोवर तथा झिलमिल मेट्रो स्टेशन के 60 सफ़ाईकर्मी शामिल थे। मेट्रो सफ़ाईकर्मियों का आरोप है कि ठेका कम्पनी तथा मेट्रो प्रशासन श्रम कानूनों को ताक पर रख कर मज़दूरों का शोषण कर रहे हैं जिससे परेशान होकर सफ़ाईकर्मियों ने हड़ताल पर जाने का रास्ता अपनाया। सफ़ाईकर्मी अखिलेश ने बताया कि देश में महँगाई चरम पर है और ऐसे में कर्मचारियों को अगर न्यूनतम वेतन भी न मिले तो क्या हम भूखे रहकर काम करते रहें? जीने के हक़ की माँग करना क्या ग़ैर क़ानूनी है? आज जब दाल 80 रुपये किलो, तेल 70 रुपये किलो, दूध 40 रुपये किलो पहुँच गया है तो मज़दूर इतनी कम मज़दूरी में परिवार का ख़र्च कैसे चला पायेगा?