Category Archives: समाज

भण्डारा में 10 नवजात शिशुओं की मौत की ज़िम्मेदार पूँजीवादी व्यवस्था है

भण्डारा में 10 नवजात शिशुओं की मौत की घटना हर संवेदनशील व्यक्ति को अन्दर तक झकझोर कर रख सकती है। किसी भी व्यक्ति के अन्दर उन माओं की चीख़ों- चीत्कारों को सुनकर ज़रूर छटपटाहट पैदा होगी। अगर ऐसा नहीं है, तो शायद आप भी इस मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था के अन्दर गिद्ध व नरभक्षी जमात में शामिल हो चुके हैं। भण्डारा ज़िला अस्पताल के SNCU (Sick Neonatal Care Unit) में आग लगने की वजह से 10 नवजात शिशुओं की मौत हो गयी।

महामारी और संकट के बीच पूँजीपतियों के मुनाफ़े में हो गयी 13 लाख करोड़ की बढ़ोत्तरी!

कोरोना महामारी की वजह से आजकल सभी काम-धन्धे बन्द हुए मालूम पड़ते हैं। लगभग हर गली-मोहल्ले में तो ही रोज़गार का अकाल ही पड़ा हुआ है। वहीं, दूसरी तरफ़, कोरोना काल में अम्बानी-अडानी आदि थैलीशाहों के चेहरे पहले से भी ज़्यादा खिले हुए हैं। करोड़ों-करोड़ का मुनाफ़ा खसोटकर वे अपनी महँगी पार्टियों में जश्न मना रहे हैं।

किसान आन्दोलन में भागीदारी को लेकर ग्राम पंचायतों और जातीय पंचायतों का ग़ैर-जनवादी रवैया

अपनी आर्थिक माँगों के लिए विरोध करना हरेक नागरिक, संगठन और यूनियन का जनवादी हक़ है। बेशक लोगों के जनवादी हक़ों को कुचलने के सत्ता के हर प्रयास का विरोध भी किया जाना चाहिए। इसी प्रकार किसी मुद्दे पर असहमति रखना और विरोध न करना भी हरेक नागरिक और समूह का जनवादी हक़ है। इस हक़ को कुचलने के भी हरेक प्रयास को अस्वीकार किया जाना चाहिए और इसके लिए दबाव बनाने के हर प्रयत्न का विरोध किया जाना चाहिए।

प्रथम स्त्री शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के जन्मदिवस पर जातितोड़क भोजों का आयोजन

जाति व्यवस्था को इतिहास में हर शासक वर्ग ने अपने तरीक से इस्तेमाल करने का काम किया है। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था ने भी जाति प्रथा को अपने ढाँचे के साथ सहयोजित कर लिया है। पूँजीवादी चुनावी राजनीति भी जाति व्यवस्था के पूरे ढाँचे को बना कर रखने का काम करती रही है और यह मौजूदा पूँजीवादी जाति व्यवस्था मेहनतकश वर्ग की क्रान्तिकारी लामबन्दी को कमजोर करने का काम करती है। आज निरन्तर ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन की ज़रूरत है जो जाति व्यवस्था को तोड़कर मेहनतकश जनता की क्रान्तिकारी लामबन्दी कायम कर सकें। इसी के तहत नौजवान भारत सभा द्वारा सावित्रीबाई फुले के जन्मदिवस पर जगह-जगह जाति तोड़क भोज, चर्चा और अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।

भूख और कुपोषण के साये में जीता हिन्दुस्तान

हर गुजरते दिन के साथ मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था बेनकाब होती जा रही है। भूख-कुपोषण, मँहगाई, बेरोज़गारी आदि से परेशानहाल जनता को ‘अच्छे दिन आएंगे’ का सपना बेचकर सत्ता में पहुंची फ़ासीवादी मोदी सरकार की हर नीति आम जनता पर कहर बनकर टूट रही है। कोरोना महामारी में मोदी सरकार का कुप्रबंधन हज़ारों मेहनतकशों की ज़िन्दगी पर भारी पड़ा और समय गुजरने के साथ हर नया आंकड़ा मेहनतकशों के बर्बादी का हाल बयान कर रहा है।

लाखों दिहाड़ी व कैज़ुअल मज़दूरों के लिए अब भी हैं लॉकडाउन जैसे ही हालात

कोरोना नियंत्रण के नाम पर बिना किसी योजना के किये गये लॉकडाउन के बाद अनलॉक करने के भी कई दौर निकल चुके हैं और देश के अधिकांश हिस्सों में ऊपरी तौर पर लॉकडाउन जैसे हालात नज़र नहीं आ रहे हैं। बाज़ारों में भीड़ बढ़ रही है। आबोहवा में प्रदूषण और नदियों में गन्दगी फिर से लौट आयी है। धार्मिक स्थल भी खुल चुके हैं और सरकार की सरपरस्ती में त्योहारों के नाम पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाने की परम्परा को भी धड़ल्ले से आगे बढ़ाया जा रहा है।

कोरोना काल में आसमान छूती महँगाई और ग़रीबों-मज़दूरों के जीवन की दशा

सेठों-व्यापारियों और समाज के उच्‍च वर्ग के लिए महँगाई मुनाफ़ा कूटने का मौक़ा होती है, मध्‍यवर्ग के लिए महँगाई अपनी ग़ैर-ज़रूरी ख़र्च में कटौती का सबब होती है और अर्थशास्त्रियों के लिए महँगाई विश्‍लेषण करने के लिए महज़ एक आँकड़ा होती है। लेकिन मेहनत-मजूरी करने वाली आम आबादी के लिए तो बढ़ती महँगाई का मतलब होता है उन्‍हें मौत की खाई की ओर ढकेल दिया जाना। वैसे तो देश की मेहनतकश जनता को हर साल महँगाई का दंश झेलना पड़ता है लेकिन कोरोना काल में उसके सिर पर महामारी और महँगाई की दुधारी तलवार लटक रही है।

वैश्विक भूख सूचकांक : भारत में भूख से जूझता मेहनतकश

जहाँ एक तरफ़ तो भारत में हर साल अरबपतियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है वहीं दूसरी तरफ़ ग़रीब और भी ग़रीब होता जा रहा है। बेरोज़गारी लगातार बढ़ती जा रही है। कोरोना-काल में एक तरफ़ इस देश के मज़दूर आबादी ने अभूतपूर्व विपत्तियों को झेला, दाने-दाने को मोहताज़ हुई वहीं फ़ोर्ब्स पत्रिका द्वारा 2020 के अरबपतियों की सूची में भारत के 9 नये नाम और जुड़ गये हैं। कोरोना-काल में जहाँ पूरे देश में आर्थिक मन्दी छायी रही; मज़दूर और ग़रीब आदमी की आमदनी ठप्प हो गयी, उसके रोज़गार छिन गये; वहीं देश के सबसे बड़े पूँजीपति मुकेश अम्बानी की आमदनी में 73 प्रतिशत का और गौतम अडानी की सम्पत्ति में 61 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ।

जनता की भुखमरी और बेरोज़गारी के बीच प्रधानमंत्री की अय्याशियाँ

आज देश की अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट जारी है, वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत नेपाल, म्यामार और श्रीलंका जैसे देशों से भी पीछे जा चुका है, देश में बेरोज़गारी की हालत पिछले 46 सालों में सबसे बुरी है, लोगों के रहे-सहे रोज़गार भी छिन गये हैं, महँगाई आसमान छू रही है, मेहनत-मज़दूरी करने वाले लोग मुश्किल से गुज़ारा कर रहे हैं। मगर ख़ुद को प्रधानसेवक कहने वाले हमारे प्रधानमंत्री महोदय बड़ी ही बेशर्मी के साथ आये दिन ऐय्याशियों के नये-नये कीर्तिमान रच रहे हैं।

हाथरस और बलरामपुर जैसी बर्बरता का ज़ि‍म्‍मेदार कौन? मज़दूर वर्ग उससे कैसे लड़े?

हाथरस में एक मेहनतकश घर की दलित लड़की के साथ बर्बर बलात्कार और उसके बाद उसकी जीभ काटकर और रीढ़ की हड्डी तोड़कर उसकी हत्या कर दी गयी। इस भयंकर घटना ने हरेक संवेदनशील इन्सान को झकझोर कर रख दिया है। अभी इस घटना की पाशविकता और बर्बरता पर लोग यक़ीन करने की कोशिश ही कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश के ही बलरामपुर में भी ऐसी ही एक भयंकर घटना ने लोगों को चेतन-शून्य बना दिया। हर इन्सान अपने आप से और इस समाज से ये सवाल पूछ रहा है कि हम कहाँ आ गये हैं? क्यों बढ़ रही हैं ऐसी भयावह घटनाएँ? कौन है इन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार? दुश्मन कौन है और लड़ना किससे है?