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”अतुलनीय भारत” – जहाँ हर चौथा आदमी भूखा है!

आज दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोग भारत में रहते हैं। देश में लगभग साढ़े इक्कीस करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नसीब नहीं हो रहा है। इसके अलावा नीचे की एक भारी आबादी ऐसी है जिसका पेट तो किसी न किसी प्रकार भर जाता है मगर उनके भोजन से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यही वह आबादी है जो फैक्टरियों-कारखानों और खेतों में सबसे खराब परिस्थितियों में सबसे मेहनत वाले काम करती है और झुग्गी-बस्तियों में और कूड़े के ढेर और सड़कों-नालों के किनारे जिन्दगी बसर करती है। कहने की जरूरत नहीं कि भूख, कुपोषण, संक्रामक रोगों, अन्य बीमारियों और काम की अमानवीय स्थितियों के कारण और साथ ही दवा-इलाज के अभाव के कारण इस वर्ग के अधिकतर लोग समय से ही पहले ही दम तोड़ देते हैं। पर्याप्त पोषण की कमी के कारण भारत के लगभग 6 करोड़ बच्चों का वज़न सामान्य से कम है। सुनकर सदमा लग सकता है कि अफ्रीका के कई पिछड़े देशों की हालत भी यहाँ से बेहतर है! दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों की एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है। देश की 50 प्रतिशत महिलाओं और 80 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है।

ग्लोबल सिटी दिल्ली में बच्चों की मृत्यु दर दोगुनी हो गयी है!

दिल्ली को तेजी से आगे बढ़ते भारत की प्रतिनिधि तस्वीर बताया जाता है। वर्ष 2010 में पूरी दुनिया के सामने कॉमनवेल्थ खेलों के जरिये हिन्दुस्तान की तरक्की क़े प्रदर्शन की तैयारी भी जोर-शोर से चल रही है। दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने के लिए जहाँ दिल्ली मेट्रो चलायी गयी है, वहीं सड़कों-लाइटों से लेकर आलीशान खेल परिसर और स्टेडियमों तक हर चीज का कायापलट करने की कवायद भी चल रही है। लेकिन करोड़ों-अरबों रुपया पानी की तरह बहाने वाली सरकार ग़रीबों की बुनियादी सुविधाओं के प्रति कितनी संवेदनहीन है, इसका एक नमूना इस तथ्य से मिल सकता है कि दिल्ली में एक साल से कम उम्र के बच्चों की शिशु मृत्यु दर पिछले दो सालों में थोड़ी-बहुत नहीं सीधे 50 प्रतिशत बढ़ गयी है। यानी दिल्ली में पैदा होने वाले बच्चों में से मरने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी हो गयी है!

झुग्गीवालों की कहानी पर कोठीवाले मस्त! या इलाही ये माजरा क्या है?

फिल्म यह सन्देश देती है कि भयंकर बदहाली, अत्याचार, नारकीय हालात में रहते हुए भी ग़रीबों को इस व्यवस्था के भीतर ही अमीर बन जाने का सपना देखना नहीं छोड़ना चाहिए। रोज़-रोज़ शोषण, अभाव और अपमान की ज़िन्दगी जीते हुए भी उन्हें यह उम्मीद पाले रखनी चाहिए कि एक न दिन इसी व्यवस्था के भीतर उनकी किस्मत का ताला खुल जायेगा और उनके दुख-दर्द दूर हो जायेंगे। फिल्म दिखाती है कि एक झुग्गी में रहने वाला बच्चा टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जीतकर करोड़पति बन जाता है। ढेरों अतार्किक परिस्थितियों और ग़लत तथ्यों से भरी यह फिल्म कला के नज़रिये से भी बेहद लचर है। झुग्गियों की ज़िन्दगी को इससे बेहतर ढंग से तो कई बॉलीवुड की फिल्में दिखा चुकी हैं।

कैसी तरक्की, किसकी तरक्की? हमारे बच्चों को भरपेट खाना तक नसीब नहीं

संयुक्त राष्‍ट्र के विश्‍व खाद्य कार्यक्रम की ताज़ा रिपोर्ट में दिये गये आँकड़े तरक्की के तमाम दावों के चीथड़े उड़ाने के लिए काफ़ी हैं। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों में से एक चौथाई भारत में हैं और कुपोषित आबादी का 27 फ़ीसदी यहाँ है। कुपोषित बच्चों के मामले में पूरी दुनिया के 100 कुपोषित बच्चों में से 47 हमारे देश के होते हैं, यह संख्या दुनिया के सबसे पिछड़े क्षेत्र सहारा अफ्रीकी देशों के 28 फ़ीसदी बच्चों से भी कहीं ज़्यादा है! यहाँ के असमय मरने वाले 50 फ़ीसदी बच्चे पौष्टिक खाना न मिल पाने की वजह से मर जाते हैं। वैश्विक भूख सूचकांक में शामिल 119 देशों में से भारत 94वें नम्बर पर पहुँच गया है। भूख और कुपोषण के बारे में होने वाले अधिकांश अध्ययनों में हमारा देश किसी से पीछे नहीं है, बल्कि ग्राफ लगातार ऊपर उठता जा रहा है।

राष्‍ट्रीय राजधानी में ग़रीबों के गुमशुदा बच्चों और पुलिस-प्रशासन के ग़रीब-विरोधी रवैये पर बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा की रिपोर्ट

दिल्ली आज भी गुमशुदा बच्चों के मामले में देश में पहले स्थान पर है, जिनमें 80 प्रतिशत से ज़्यादा संख्या ग़रीबों के बच्चों की होती है। शायद इसीलिए पुलिस से लेकर सरकार तक कोई इस मुद्दे पर गम्भीर नहीं है। पिछले वर्ष सितम्बर तक दिल्ली में 11,825 बच्चे गुमशुदा थे। राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार हर साल दिल्ली से क़रीब 7,000 बच्चे गुम हो जाते हैं, लेकिन यह संख्या दिल्ली पुलिस के आँकड़ों पर आधारित है। हालाँकि विभिन्न संस्थाओं का अनुमान है कि वास्तविक संख्या इससे कई गुना अधिक हो सकती है क्योंकि ज़्यादातर लोग अपनी शिकायत लेकर पुलिस के पास जाते ही नहीं। पुलिस के पास गुमशुदगी की जो सूचनाएँ पहुँचती भी हैं, उनमें से भी बमुश्किल 10 प्रतिशत मामलों में एफ़आईआर दर्ज की जाती है। ज़्यादातर मामलों को पुलिस रोज़नामचे में दर्ज करके काग़ज़ी ख़ानापूर्ति कर लेती है।

विश्वव्यापी खाद्य संकट की “खामोश सुनामी” जारी है…

आने वाले समय में ये तमाम स्थितियाँ बद से बदतर होती जायेंगी। पूँजीवाद जिस गम्भीर ढाँचागत संकट का शिकार है, उसके चलते खेती को संकट से उबारने के लिए निवेश कर पाने की सरकारों की क्षमता कम होती जायेगी। ग़रीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजनाओं में तो पहले से ही कटौती की जा रही थी, अब मन्दी के दौर में इन पर कौन ध्यान देगा? जो सरकारें ग़रीबों को सस्ती शिक्षा, इलाज, भोजन मुहैया कराने के लिए सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही थीं, वे ही अब बेशर्मी के साथ जनता की गाढ़ी कमाई के हज़ारों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को घाटे से बचाने के लिए बहा रही हैं। मन्दी का रोना रोकर अरबों रुपये की सरकारी सहायता बटोर रहे धनपतियों की अय्याशियों, जगमगाती पार्टियों और फिजूलखर्चियों में कोई कमी नहीं आने वाली, लेकिन ग़रीब की थाली से रोटियाँ भी कम होती जायेंगी, सब्ज़ी और दाल तो अब कभी-कभी ही दिखती हैं।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

  • देश में आज लगभग एक लाख अरबपति हैं। देश के सबसे बड़े दस खरबपति हर मिनट दो करोड़ रुपये कमाते हैं। 2006 में दुनिया के 946 खरबपतियों में से 36 भारतीय थे।
  • देश की ऊपर की दस प्रतिशत आबादी के पास कुल परिसम्पित्ति का 85 प्रतिशत इकट्ठा हो गया है जबकि नीचे की साठ प्रतिशत आबादी के पास मात्र दो प्रतिशत है। ऊपर के 0.01 प्रतिशत लोगों की आमदनी पूरी आबादी की औसत आमदनी से दो सौ गुना अधिक हो गयी है।
  • देश के 84 करोड़ लोग 20 रुपये रोज़ाना से कम पर और उनमें से 22 प्रतिशत लोग क़रीब साढ़े ग्यारह रुपये रोज़ाना की आमदनी पर जीते हैं। पूरे देश में 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं और 18 करोड़ लोग फुटपाथों पर सोते हैं।
  • देश की ऊपर की तीन फ़ीसदी और नीचे की 40 प्रतिशत आबादी की आमदनी के बीच का अन्तर आज 60 गुना हो चुका है।
  • देश में प्रतिदिन 9000 बच्चे भूख और कुपोषण से मरते हैं। 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के 50 फीसदी मामलों का कारण कुपोषण होता है। देश के हर तीसरे व्यक्ति, यानी 35 करोड़ लोगों को प्रायः भूखे सोना पड़ता है।
  • निठारी के बच्चों की नरबलि हमारे विवेक और संवेदना के दरवाजों पर दस्तक देती रहेगी!

    मुनाफ़े की हवस को शान्त करने के लिए इंसान के श्रम को निचोड़ने के बाद बचे–खुचे समय में आज पूँजीपति वर्ग और उसकी लग्गू–भग्गू जमातें अपनी विलासिता और भोग की पाशविक लालसा को शान्त करने के लिये मनुष्यता को, समस्त मानवीय मूल्यों को निचोड़ डाल रही हैं ।इस नव–धनिक जमात को किसी चीज़ का डर नहीं है । न पुलिस–प्रशासन का, न कानून– अदालत का । इन्हें कोई सामाजिक भय भी नहीं है । क्योंकि उससे बचने के लिये उन्होंने कानूनी–गैर कानूनी संगठित हथियारबन्द दल बना रखे हैं और मुद्रारूपी सर्वशक्तिमान सत्ता के ये स्वामी हैं । इसी शक्ति के मद में चूर थे मानव भेस धरे वहशी भेड़िये बेखौफ हो इंसानियत को रौंदते–कुचलते हुए राजमार्गों पर फर्राटा भरते हैं, शिकारों की तलाश में गली–कूचों में मँडराते हैं । मोहिन्दर जैसे लोग इसी जमात से आते हैं जो इंसानी खून और हड्डियों के बीच लोट लगाते हैं और पाशविक यौनाचार के लिये अपनी बीवियों–बच्चों को भी नहीं बख्शते । ये आधुनिक पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति की चरम पतनशीलता के वाहक प्रतीक चेहरे हैं ।

    नोएडा में ग़रीब मेहनतकशों के बच्चों की नृशंस हत्या

    निठारी गाँव की बर्बर घटना पूँजीवादी समाज की मनोरोगी संस्कृति का एक प्रतिनिधि उदाहरण है। धनपशुओं का जो समाज मेहनतकशों की हड्डियों का पाउडर बनाकर भी बेच सकता है और मुनाफ़ा कमा सकता है, वह आज बर्बर विलासी मनोरोगियों का एक वहशी गिरोह बन चुका है। उस समाज में मोहिंदर जैसे नरभक्षियों की मौजूदगी कोई आश्‍चर्य की बात नहीं है। यह घटना पूँजीवादी समाज की रुग्णता को उजागर करने वाली एक प्रतीक घटना है।

    लेनिन-धर्म के बारे में मजदूरों की पार्टी का रुख

    मार्क्सवाद भौतिकवाद है। इस कारण यह धर्म का उतना ही निर्मम शत्रु है जितना कि अठारहवीं सदी के विश्वकोषवादी पण्डितों का भौतिकवाद या फ़ायरबाख का भौतिकवाद था, इसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं है। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विश्व कोषवादियों और फ़ायरबाख से आगे निकल जाता है, क्योंकि यह भौतिकवादी दर्शन को इतिहास के क्षेत्र में, सामाजिक विज्ञानों के भी क्षेत्र में, लागू करता है। हमें धर्म के विरुद्ध लड़ाई लड़नी चाहिए-यह समस्त भौतिकवाद का क ख ग है, और फ़लस्वरूप मार्क्सवाद का भी। लेकिन मार्क्सवाद ऐसा भौतिकवाद नहीं है, जो क ख ग पर ही रुक गया। वह आगे जाता है। वह कहता हैः हमें यह भी जानना चाहिये कि धर्म के विरुद्ध कैसे लड़ाई लड़ी जाये, और यह करने के लिये जनता के बीच हमें ईश्वर और धर्म के मूल की व्याख्या भी भौतिकवादी पद्धति से करनी होगी।