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माइक्रो फ़ाइनेंस : महाजनी का पूँजीवादी अवतार

माइक्रो फाइनेंस एक नयी परिघटना के रूप में लगभग 2 दशक पहले ख़ासकर तीसरी दुनिया के देशों में ग़रीबी हटाने के उपक्रम के नाम पर विश्व पूँजीवाद के पटल पर आया। चूँकि पूँजीवादी बैंकों से कर्ज लेने के लिए एक निश्चित सम्पत्ति होना अनिवार्य होता है, अत: बहुसंख्यक ग़रीब आबादी इन बैंकों की पहुँच से बाहर ही रहती है। पारम्परिक रूप से ग़रीब अपनी खेती और पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए गाँव के महाजन या साहूकार द्वारा दिये गये कर्ज पर निर्भर रहते थे। ऐसे कर्र्जों पर ब्याज दर बहुत अधिक हुआ करती थी जिसकी वजह से ग़रीबों की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में निकल जाता था और इस प्रकार वे एक दुष्चक्र में फँस जाते थे। गाँव के ग़रीबों को महाजनों और साहूकारों से मुक्ति दिलाने और उनको ग़रीबी के दुष्चक्र से बाहर निकालने के नाम पर पिछले 2 दशकों में माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं को ख़ूब बढ़ावा दिया गया। ऐसी संस्थाएँ ग़रीबों को एक समूह (सेल्फ हेल्प ग्रुप) में संगठित करती हैं और एक व्यक्ति के बजाय पूरे समूह को कर्ज देती हैं। ऐसे समूहों को छोटे-मोटे उपक्रम जैसे टोकरी बनाना, पापड़ बनाना, अचार बनाना, मुर्ग़ी पालन इत्यादि में निवेश के लिए प्रेरित किया जाता है। महिला सशक्तीकरण के नाम पर महिलाओं को ऐसे समूहों में वरीयता दी जाती है। सतही तौर पर देखने में किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि ये संस्थाएँ वाकई ग़रीबी हटाने के प्रयास में संलग्न हैं। लेकिन इन संस्थाओं की संरचना, काम करने का तरीका, फण्ंडिग के ड्डोत,इनके द्वारा दिये गये कर्ज पर ब्याज की दरों की गहरायी से पड़ताल करने पर इनके मानवद्रोही चरित्र का पर्दाफाश हो जाता है और हम इस घिनौनी सच्चाई से रूबरू होते हैं कि दरअसल ऐसी संस्थाएँ ग़रीबों का महाजनों और साहूकारों से भी अधिक बर्बर किस्म का शोषण करती हैं और ग़रीबों का ख़ून चूसकर इनके संस्थापक और शीर्ष अधिकारी अपनी तिजोरियाँ भरते हैं।

राहुल सांकृत्यायन की जन्मतिथि (9 अप्रैल) और पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर

धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ -इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों का खून का प्यासा कौन बना रहा है कौन गाय खाने वालों से गो न खाने वालों को लड़ा रहा है असल बात यह है – ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।’ हिन्दुस्तान की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौवे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं है।

भूख से दम तोड़ते सपने और गोदामों में सड़ता अनाज

हमारे इस ”शाइनिंग इण्डिया” की एक वीभत्स तस्वीर यह भी है कि जिनकी ऑंखों में कल का सपना होना चाहिए, वे केवल भोजन की आस में ही दम तोड़ रहे हैं। इस देश के एक हिस्से में भूख के कारण वयस्क ही नहीं बच्चों की भी जानें जा रही हैं, तो दूसरे हिस्से में गोदामों में रखा अनाज सड़ रहा है और सरकारों के लिए समस्या यह है कि गेहूँ की नयी आमद का भण्डार कहाँ करे! उन्हें भूख से होती मौतों की इतनी चिन्ता नहीं है, जितना वे मालिकों के मुनाफे पर चोट पहुँचने से परेशान हैं।

बोलते आंकड़े चीखती सच्‍चाइयां

  • भारत के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं!
  • दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है।
  • देश में हर तीन सेकंड में एक बच्चे की मौत हो जाती है।
  • देश में प्रतिदिन लगभग 10,000 बच्चों की मौत होती है, इसमें लगभग 3000 मौतें कुपोषण के कारण होती हैं।
  • सिर्फ अतिसार के कारण ही प्रतिदिन 1000 बच्चें की मौत हो जाती है।
  • यह महँगाई ग़रीबों के जीने के अधिकार पर हमला है!

    ग़रीबों तक सस्ता अनाज पहुँचाने के लिए बनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के बावजूद थोड़ा बहुत अनाज आदि नीचे तक पहुँच जाता था, पर उदारीकरण के दौर में उसे धीरे-धीरे धवस्त किया जा चुका है। पूँजीपतियों को हज़ारों करोड़ की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार ग़रीबों को भुखमरी से बचाने के लिए दी जाने वाली खाद्य सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही है। इस महँगाई ने यह भी साफ कर दिया है कि जनता की खाद्य सुरक्षा की गारण्टी करना सरकार अब अपनी ज़िम्मेदारी मानती ही नहीं है। लोगों को बाज़ार की अन्‍धी शक्तियों के आगे छोड़ दिया गया है। यानी, अगर आप अपनी मेहनत, अपना हुनर, अपना शरीर या अपनी आत्मा बेचकर बाज़ार से भोजन ख़रीदने लायक पैसे कमा सकते हों, तो खाइये, वरना भूख से मर जाइये!

    बेहिसाब महँगाई से ग़रीबों की भारी आबादी के लिए जीने का संकट

    महँगाई पूँजीवादी समाज में खत्म हो ही नहीं सकती। जब तक चीज़ों का उत्पादन और वितरण मुनाफा कमाने के लिए होता रहेगा तब तक महँगाई दूर नहीं हो सकती। कामगारों की मज़दूरी और चीज़ों के दामों में हमेशा दूरी बनी रहेगी। मज़दूर वर्ग सिर्फ अपनी मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के लिए लड़कर कुछ नहीं हासिल कर सकता। अगर उसके आन्दोलन की बदौलत पूँजीपति थोड़ी मज़दूरी बढ़ाता भी है तो दूसरे हाथ से चीज़ों के दाम बढ़ाकर उसकी जेब से निकाल भी लेता है। मज़दूर की हालत वहीं की वहीं बनी रहती है। इसलिए मज़दूरों को मज़दूरी बढ़ाने के लिए लड़ने के साथ-साथ मज़दूरी की पूरी व्यवस्था को खत्म करने के लिए भी लड़ना होगा।

    ”अतुलनीय भारत” – जहाँ हर चौथा आदमी भूखा है!

    आज दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोग भारत में रहते हैं। देश में लगभग साढ़े इक्कीस करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नसीब नहीं हो रहा है। इसके अलावा नीचे की एक भारी आबादी ऐसी है जिसका पेट तो किसी न किसी प्रकार भर जाता है मगर उनके भोजन से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यही वह आबादी है जो फैक्टरियों-कारखानों और खेतों में सबसे खराब परिस्थितियों में सबसे मेहनत वाले काम करती है और झुग्गी-बस्तियों में और कूड़े के ढेर और सड़कों-नालों के किनारे जिन्दगी बसर करती है। कहने की जरूरत नहीं कि भूख, कुपोषण, संक्रामक रोगों, अन्य बीमारियों और काम की अमानवीय स्थितियों के कारण और साथ ही दवा-इलाज के अभाव के कारण इस वर्ग के अधिकतर लोग समय से ही पहले ही दम तोड़ देते हैं। पर्याप्त पोषण की कमी के कारण भारत के लगभग 6 करोड़ बच्चों का वज़न सामान्य से कम है। सुनकर सदमा लग सकता है कि अफ्रीका के कई पिछड़े देशों की हालत भी यहाँ से बेहतर है! दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों की एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है। देश की 50 प्रतिशत महिलाओं और 80 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है।

    ग्लोबल सिटी दिल्ली में बच्चों की मृत्यु दर दोगुनी हो गयी है!

    दिल्ली को तेजी से आगे बढ़ते भारत की प्रतिनिधि तस्वीर बताया जाता है। वर्ष 2010 में पूरी दुनिया के सामने कॉमनवेल्थ खेलों के जरिये हिन्दुस्तान की तरक्की क़े प्रदर्शन की तैयारी भी जोर-शोर से चल रही है। दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने के लिए जहाँ दिल्ली मेट्रो चलायी गयी है, वहीं सड़कों-लाइटों से लेकर आलीशान खेल परिसर और स्टेडियमों तक हर चीज का कायापलट करने की कवायद भी चल रही है। लेकिन करोड़ों-अरबों रुपया पानी की तरह बहाने वाली सरकार ग़रीबों की बुनियादी सुविधाओं के प्रति कितनी संवेदनहीन है, इसका एक नमूना इस तथ्य से मिल सकता है कि दिल्ली में एक साल से कम उम्र के बच्चों की शिशु मृत्यु दर पिछले दो सालों में थोड़ी-बहुत नहीं सीधे 50 प्रतिशत बढ़ गयी है। यानी दिल्ली में पैदा होने वाले बच्चों में से मरने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी हो गयी है!

    झुग्गीवालों की कहानी पर कोठीवाले मस्त! या इलाही ये माजरा क्या है?

    फिल्म यह सन्देश देती है कि भयंकर बदहाली, अत्याचार, नारकीय हालात में रहते हुए भी ग़रीबों को इस व्यवस्था के भीतर ही अमीर बन जाने का सपना देखना नहीं छोड़ना चाहिए। रोज़-रोज़ शोषण, अभाव और अपमान की ज़िन्दगी जीते हुए भी उन्हें यह उम्मीद पाले रखनी चाहिए कि एक न दिन इसी व्यवस्था के भीतर उनकी किस्मत का ताला खुल जायेगा और उनके दुख-दर्द दूर हो जायेंगे। फिल्म दिखाती है कि एक झुग्गी में रहने वाला बच्चा टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जीतकर करोड़पति बन जाता है। ढेरों अतार्किक परिस्थितियों और ग़लत तथ्यों से भरी यह फिल्म कला के नज़रिये से भी बेहद लचर है। झुग्गियों की ज़िन्दगी को इससे बेहतर ढंग से तो कई बॉलीवुड की फिल्में दिखा चुकी हैं।

    कैसी तरक्की, किसकी तरक्की? हमारे बच्चों को भरपेट खाना तक नसीब नहीं

    संयुक्त राष्‍ट्र के विश्‍व खाद्य कार्यक्रम की ताज़ा रिपोर्ट में दिये गये आँकड़े तरक्की के तमाम दावों के चीथड़े उड़ाने के लिए काफ़ी हैं। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों में से एक चौथाई भारत में हैं और कुपोषित आबादी का 27 फ़ीसदी यहाँ है। कुपोषित बच्चों के मामले में पूरी दुनिया के 100 कुपोषित बच्चों में से 47 हमारे देश के होते हैं, यह संख्या दुनिया के सबसे पिछड़े क्षेत्र सहारा अफ्रीकी देशों के 28 फ़ीसदी बच्चों से भी कहीं ज़्यादा है! यहाँ के असमय मरने वाले 50 फ़ीसदी बच्चे पौष्टिक खाना न मिल पाने की वजह से मर जाते हैं। वैश्विक भूख सूचकांक में शामिल 119 देशों में से भारत 94वें नम्बर पर पहुँच गया है। भूख और कुपोषण के बारे में होने वाले अधिकांश अध्ययनों में हमारा देश किसी से पीछे नहीं है, बल्कि ग्राफ लगातार ऊपर उठता जा रहा है।