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आसाराम ही नहीं बल्कि समूचे धर्म के लुटेरे चरित्र की पहचान करो!

साधू, सन्तों, पादरियों, मौलवियों आदि को हमेशा से ही शोषक वर्ग इस्तेमाल करते आए हैं। इसके बदले में इन्हें भी लूट का हिस्सा प्राप्त होता आया है। जैसे-जैसे सामाजिक- आर्थिक-राजनीतिक हालात बदलते गए हैं, वैसे-वैसे धर्म भी बदलता गया है। आज पूँजीवादी व्यवस्था कायम हो चुकी है और धर्म भी पूँजीवादी धर्म बन चुका है। धर्म के प्रचारक साधू, सन्त, पादरी, मौलवी आदि भी पूँजीवादी रंग में रंगे गए हैं। आम तौर पर ये प्रचारक, ये ‘‘भगवान के भेजे हुए’’, या ‘‘भगवान का रूप’’ ये सन्त-बाबा खुद भी पूँजीपति बन चुके हैं। ये अब साधू-सन्त बाद में हैं बल्कि कारोबारी, दलाल, पूँजीपति पहले हैं।

पूँजीवादी पाशविकता की बलि चढ़ते मासूम बच्चे

इसमें कोई दो राय नहीं कि बच्चों के खिलाफ़ होने वाले अपराधों का शिकार आमतौर से गरीब परिवारों और निम्न मध्‍यम वर्गीय परिवारों से आने वाले बच्चे होते हैं। अक्सर ही ऐसे परिवारों में गुजर बसर के लिए स्‍त्री और पुरूष दोनों को ही मेहनत मज़दूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालाँकि 12-14 घंटे लगातार अपना हाड़-मांस गलाने के बावजूद उन्हें इतनी कम मज़दूरी मिलती है कि बमुश्किल ही गुजारा हो पाता है। ऐसे हालात में बच्चे घरों में अकेले रह जाते हैं, वे असुरक्षित होते हैं इसलिए तमाम अपराधियों का आसानी से शिकार बनते हैं।

क्यों बढ़ रहे हैं ऐसे जघन्य अपराध और प्रतिरोध का रास्ता क्या है?

स्त्री-विरोधी बढ़ती बर्बरता केवल पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय प्रणाली की स्वतःस्फूर्त परिणति मात्र नहीं है। पूँजीवादी लोभ-लाभ की प्रवृत्ति इसे बढ़ावा देने का काम भी कर रही है। जो भी बिक सके, उसे बेचकर मुनाफा कमाना पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति है। पूँजीवादी समाज के श्रम-विभाजन जनित अलगाव ने समाज में जो ऐन्द्रिक सुखभोगवाद, रुग्ण- स्वच्छन्द यौनाचार और बर्बर स्त्री-उत्पीड़क यौन फन्तासियों की ज़मीन तैयार की है, उसे पूँजीपति वर्ग ने एक भूमण्डलीय सेक्स बाज़ार की प्रचुर सम्भावना के रूप में देखा है। सेक्स खिलौनों, सेक्स पर्यटन, वेश्यावृत्ति के नये-नये विविध रूपों, विकृत सेक्स, बाल वेश्यावृत्ति, पोर्न फिल्मों, विज्ञापनों आदि-आदि का कई हज़ार खरब डालर का एक भूमण्डलीय बाज़ार तैयार हुआ है। टी.वी., डी.वी.डी., कम्प्यूटर, इन्टरनेट, मोबाइल, डिजिटल सिनेमा आदि के ज़रिए इलेक्ट्रानिक संचार-माध्यमों ने सांस्कृतिक रुग्णता के इस भूमण्डलीय बाज़ार के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभायी है। खाये-अघाये धनपशु तो स्त्री-विरोधी अपराधों और अय्याशियों में पहले से ही बड़ी संख्या में लिप्त रहते रहे हैं, भले ही उनके कुकर्म पाँच सितारा ऐशगाहों की दीवारों के पीछे छिपे होते हों या पैसे और रसूख के बूते दबा दिये जाते हों। अब सामान्य मध्यवर्गीय घरों के किशोरों और युवाओं तक भी नशीली दवाओं, पोर्न फिल्मों, पोर्न वेबसाइटों आदि की ऐसी पहुँच बन गयी है, जिसे रोक पाना सम्भव नहीं रह गया है। यही नहीं, मज़दूर बस्तियों में भी पोर्न फिल्मों की सी.डी. का एक बड़ा बाज़ार तैयार हुआ है। वहाँ मोबाइल रीचार्जिंग की दुकानों पर मुख्य काम अश्लील वीडियो और एम.एम.एस. क्लिप्स बेचने का होता है।

आख़िर कब खोलोगे अन्धी आस्था की पट्टी अपनी आँखों से?

ज़ाहिर है कि हम इन स्त्री-विरोधी, रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी, तानाशाहाना, और बर्बर ताक़तों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे स्त्री के अधिकारों का सम्मान करेंगी, स्त्रियों को समानता का हक़ देंगी, उनकी सुरक्षा के इन्तज़ाम करेंगी, या उन्हें समाज में पुरुषों के समान मानेंगी! यही तो वे ताक़तें हैं जो स्त्री की गुलामी के लिए ज़िम्मेदार हैं, यही तो वे लोग हैं जो स्त्री-विरोधी अपराधों के लिए जवाबदेह हैं और अक्सर स्वयं उन्हें अंजाम देते हैं, यही तो वे लोग हैं जो स्त्रियों को पुरुषों की दासी समझते हैं और उन्हें पैर की जूती बनाकर रखना चाहते हैं! इनसे भला क्या उम्मीद की जा सकती है? कुछ भी नहीं! हम एक ही चीज़ कर सकते हैं: इस समाज के सभी विद्रोही, संवेदनशील और न्यायप्रिय युवा और युवतियाँ, मेहनतकश और आम मध्यवर्गीय नागरिक सदियों पुरानी रूढ़ियों, कूपमण्डूकताओं, पाखण्ड और ढकोसलेपंथ के इन अपराधी ठेकेदारों की बन्दिशों को उखाड़ कर फेंक दें, इन्हें तबाह कर दें, नेस्तनाबूद कर दें! ये हमारे देश और समाज को पीछे ले जाने वाले प्रतिक्रियावादी हैं, राष्ट्रवादी या देशभक्त नहीं! आगे अगर हम ऐसे धार्मिक कट्टरपंथियों, बाबाओं, स्त्री-विरोधियों की कोई भी बात या प्रवचन सुनते हैं, तो हममें और भेड़ों की रेवड़ों में कोई फ़र्क नहीं रह जायेगा! अगर हम इन अन्धकार की ताक़तों के ख़िलाफ़ उठ नहीं खड़े होते तो सोचना पड़ेगा कि हम ज़िन्दा भी रह गये हैं या नहीं!

दिल्ली की शाहाबाद डेयरी बस्ती में एक और बच्ची की निर्मम हत्या

लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसे अपराध समाज में हो ही क्यों रहे हैं। इस समाज में स्त्रियां और बच्चियां महफ़ूज क्यों नहीं हैं। दरअसल, 1990 के बाद से देश में उदारीकरण की जो हवा बह रही है, उसमें बीमार होती मनुष्यता की बदबू भी समायी हुई है। पूँजीवादी लोभ-लालच की संस्कृति ने स्त्रियों को एक ‘माल’ बना डाला है और इस व्यवस्था की कचरा संस्कृति से पैदा होने वाले जानवरों में इस ‘माल’ के उपभोग की हवस भर दी है। सदियों से हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तात्मक मानसिकता इसे हवा दे रही है, जो औरतों को उपभोग का सामान और बच्चा पैदा करने की मशीन मानती है, और पल-पल औरत विरोधी सोच को जन्म देती है। और ’90 के बाद लागू हुई आर्थिक नीतियों ने देश में अमीरी-ग़रीबी के बीच की खाई को अधिक चौड़ा किया है, जिससे पैसे वालों पर पैसे का नशा और ग़रीबों में हताशा-निराशा, अपराध हावी हो रहा है।

लेनिन – समाजवाद और धर्म

धर्म बौद्धिक शोषण का एक रूप है जो हर जगह अवाम पर, जो दूसरों के लिए निरन्तर काम करने, अभाव और एकांतिकता से पहले से ही संत्रस्त रहते हैं, और भी बड़ा बोझ डाल देता है। शोषकों के विरुद्ध संघर्ष में शोषित वर्गों की निष्क्रियता मृत्यु के बाद अधिक सुखद जीवन में उनके विश्वास को अनिवार्य रूप से उसी प्रकार बल पहुँचाती है जिस प्रकार प्रकृति से संघर्ष में असभ्य जातियों की लाचारी देव, दानव, चमत्कार और ऐसी ही अन्य चीजों में विश्वास को जन्म देती है। जो लोग जीवन भर मशक्कत करते और अभावों में जीवन व्यतीत करते हैं, उन्हें धर्म इहलौकिक जीवन में विनम्र होने और धैर्य रखने की तथा परलोक सुख की आशा से सान्त्चना प्राप्त करने की शिक्षा देता है। लेकिन जो लोग दूसरों के श्रम पर जीवित रहते हैं उन्हें धर्म इहजीवन में दयालुता का व्यवहार करने की शिक्षा देता है, इस प्रकार उन्हें शोषक के रूप में अपने संपूर्ण अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने का एक सस्ता नुस्ख़ा बता देता है और स्वर्ग में सुख का टिकट सस्ते दामों दे देता है।

लुटेरे गिरोहों के शिकार औद्योगिक मज़दूर प्रशासन और फ़ैक्टरी मालिकों के ख़िलाफ़ संघर्ष की राह पर

लुधियाना में लूट-खसोट की वारदातों से तंग आकर बहादरके रोड वाले इलाक़े के हज़ारों फ़ैक्टरी मज़दूरों ने फ़ैक्टरियों में काम बन्द करके सुरक्षा बन्दोबस्त ना करने के ख़िलाफ़ पुलिस-प्रशासन और मालिकों के ख़िलाफ़ रोषपूर्ण प्रदर्शन किया। पिछले एक महीने में दर्जन से ज़्यादा लूट-खसोट की वारदातें इस इलाक़े में काम करने वाले मज़दूरों के साथ हो चुकी हैं। ये वारदातें आमतौर पर तनख़्वाह और एडवांस मिलने वाले दिनों में 10 से 15 तारीख़ और 25 से 30 तारीख़ के बीच होती हैं।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

भूख और कुपोषण से दुनिया भर में रोज़ 24 हज़ार लोग मरते हैं। इनमें से एक तिहाई मौतें भारत में होती हैं। भूख से मरने वालों में 18 हज़ार बच्चे होते हैं, जिनमें से 6 हज़ार बच्चे भारत के होते हैं। (जनसत्ता, 7 जुलाई 2013)

अपने बच्चों को बचाओ व्यवस्था के आदमख़ोर भेड़िये से!

इस दिल दहलाने वाली घटना ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हम आख़िर किस तरह के समाज में रह रहे हैं। कैसा है यह समाज जो ऐसे वहशी दरिन्दों को पैदा कर रहा है जो अपने मुनाफ़े के लिए छोटे-छोटे मासूम बच्चों को दर्दनाक मौत के हवाले कर दे रहे हैं। अभी तक मिले साक्ष्यों से ऐसे आरोपों की पुष्टि होती लग रही है कि बिहार में चुनावी राजनीति के तहत वर्तमान सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए इस घिनौनी साज़िश को अंजाम दिया गया है। चुनावी राजनीति की सारी राहें ख़ून के दलदल से होकर ग़ुज़रती हैं, लाशों के ढेर पर ही सत्ता के सिंहासन सजते हैं, मगर अपने चुनावी मंसूबों के लिए नन्हे बच्चों की बलि चढ़ाने की यह घटना बताती है कि पूँजीवादी राजनीति पतन के किस गटर में डूब चुकी है।

हर साल लाखों माँओं और नवजात शिशुओं को मार डालती है यह व्यवस्था

किसी भी समाज की ख़ुशहाली का अनुमान उसके बच्चों और माँओं को देखकर लगाया जा सकता है। लेकिन जिस समाज में हर साल तीन लाख बच्चे इस दुनिया में अपना एक दिन भी पूरा नहीं कर पाते और क़रीब सवा लाख स्त्रियाँ हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं, वह कैसा समाज होगा, इसे कस्बे की ज़रूरत नहीं। आज़ादी के 66 साल बाद, जब देश में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, तब ऐसा होना शर्मनाक ही नहीं बल्कि एक घृणित अपराध है। और इसकी ज़िम्मेदार है यह पूँजीवादी व्यवस्था जिसके लिए ग़रीबों की ज़िन्दगी का मोल कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है।