Category Archives: समाज

“अच्छे दिन” के कानफाड़ू शोर के बीच 2% बढ़ गयी किसानों और मज़दूरों की आत्महत्या दर!

हम इस लेख में इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि मुख्यत: कौन सा किसान आत्महत्या कर रहा है – धनी किसान या छोटे ग़रीब किसान और क्यूँ?! राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार साल 2015 में कृषि सेक्टर से जुड़ी 12602 आत्महत्याओं में 8007 किसान थे और 4595 कृषि मज़दूर। साल 2014 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5650 और कृषि मज़दूरों की 6710 थी यानी कुल मिलाकर 12360 आत्महत्याएँ। इन आँकड़ों के अनुसार किसानों की आत्महत्या के मामले में एक साल में जहाँ 42 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई वहीं कृषि मज़दूरों की आत्महत्या की दर में 31.5 फ़ीसदी की कमी आयी है व आत्महत्या करने वाले कुल किसान व कृषि मज़दूरों की संख्या 2014 के मुक़ाबलेे 2 फ़ीसदी बढ़ गयी है।

शासक वर्गों द्वारा मेहनतकशों की जातिगत गोलबन्दी का विरोध करो! अपने असली दुश्मन को पहचानो!

महाराष्ट्र में आज जो मराठा उभार हो रहा है, उसके मूल कारण तो मराठा ग़रीब आबादी में बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी और असुरक्षा है; लेकिन मराठा शासक वर्गों ने इसे दलित-विरोधी रुख़ देने का प्रयास किया है। इस साज़िश को समझने की ज़रूरत है। इस साज़िश का जवाब अस्मितावादी राजनीति और जातिगत गोलबन्दी नहीं है। इसका जवाब वर्ग संघर्ष और वर्गीय गोलबन्दी है। इस साज़िश को बेनक़ाब करना होगा और सभी जातियों के बेरोज़गार, ग़रीब और मेहनतकश तबक़ों को गोलबन्द और संगठित करना होगा।

16 दिसम्बर की बर्बर घटना के पाँच साल बाद बलात्कार पीड़िताओं को इंसाफ के झूठे वादे

जल्द इंसाफ मिलने की सम्भावनाएँ यहाँ बहुत कम हैं। सारी सरकारी व्यवस्था स्त्री विरोधी सोच से ग्रस्त है। जब कोई स्त्री हिम्मत करके पुलिस के पास शिकायत लेकर जाती है तो सबसे पहले उसे ही गुनाहगार ठहराने की कोशिश की जाती है। पुलिस की पूरी कोशिश रहती है कि मामला दर्ज न हो। कोशिश की जाती है कि घूस लेकर मामला रफा-दफा कर दिया जाये। अगर रपट दर्ज भी होती है तो देरी कार कारण मेडीकल करवाने पर बलात्कार साबित करना मुश्किल हो जाता है।

भाजपा के सत्ता में आने के बाद से अल्पसंख्यकों व दलितों के ख़ि‍लाफ़़ अपराधों की रफ़्तार हुई तेज़

भाजपा के आने से फासीवादी तत्वों और दलित के ख़िलाफ़़ अपराधियों को छूट मिली हुई है। आरएसएस की विचारधारा में दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के विरुद्ध नफ़रत फैलाना शामिल है। मोदी जो कि 2002 में ख़ुद फासीवादी हिंसा में मुसलमानों के क़त्लेआम में शामिल रहा था, से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? इसलिए, आज ज़रूरत है कि जितने भी उत्पीड़ित वर्ग चाहे वे अल्पसंख्यक,दलित या स्त्रियाँ हों उन्हें समूची जनता के अंग के तौर पर अपनी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए, भारत की समूची मेहनतकश जनता की पूँजीपतियों के ख़िलाफ़़ वर्गीय लड़ाई को मज़बूत बनाते हुए अपने उत्पीड़न का डटकर विरोध करना पड़ेगा।

विकास के शोर के बीच भूख से दम तोड़ता मेहनतकश

भारत में कुल पैदावार का चालीस प्रतिशत गेहूँ हर साल बर्बाद हो जाता है। लेकिन गाय की पूजा से देशभक्ति को जोड़ने वाली सरकार को देश के भूखे मरते लोगों की चिन्ता क्यों होने लगी? बहरहाल सरकार का कहना है कि यह अनाज ख़राब भण्डारण और परिवहन की वजह से ख़राब होता है। लेकिन सवाल ये है कि भण्डारण और परिवहन की ज़ि‍म्मेवारी किसकी है? इस सम्बन्ध में 2001 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी जिसमें कहा गया था कि देश की बड़ी आबादी भूखों मरती है और अनाज गोदामों में सड़ता है।

अभी भी पंजाब में लड़कियों के साथ भेद-भाव बड़े स्तर पर जारी

पिछले दशकों में हुए पूँजीवादी विकास के साथ पंजाब में औरतों को घर से बाहर निकल कर पढ़ने, काम-काज करने के मौके मिले हैं पर इसके बावजूद भी औरतों के साथ यहां बड़े स्तर पर भेद-भाव मौजूद है। लड़कियों को पढ़ाने और नौकरी करने देने का कारण अभी भी औरतों को सम्मान या बराबरी का दर्जा देना नहीं ब्लकि अभी भी इसका एक बड़ा कारण यही है कि विवाह के रुप में होते सौदों में उसकी पढ़ाई, रोज़गार के साथ उसका अच्छा सौदा हो सके।

सिर पर छत की ख़ातिर नैतिकता की नीलामी के लिए मजबूर लोग

इस सर्वेक्षण में 2,040 लोगों ने हिस्सा लिया और 28% लोगों ने माना कि वे आर्थिक तंगी के कारण मकान का किराया नहीं दे सकते, इस कारण उनको अपने साथी, दोस्त, मकान मालिक के साथ यौन संबंधों में रहना पङता है। एक और सर्वेक्षण के अनुसार बेघरों के लिए काम करने वाली संस्था होमलैस चैरिटी ने एक रिपोर्ट जारी की कि होमलैस सर्विस इस्तेमाल करने वाले लोगों की ओर से रिपोर्ट की गयी कि वह बेघरी के डर से असहमत यौन संबंध में रहते हैं। इस रिपोर्ट में ना सिर्फ औरतें बल्कि मर्द भी शामिल हैं।

राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक क्रान्ति को अलग-अलग करके देखना अवैज्ञानिक है

आर्थिक शोषण सामाजिक उत्पीड़न के ऐतिहासिक सन्दर्भ व पृष्ठभूमि को बनाता है और सामाजिक उत्पीड़न बदले में आर्थिक शोषण को आर्थिक अतिशोषण में तब्दील करता है। यही कारण है कि 10 में से 9 दलित-विरोधी अपराधों के निशाने पर ग़रीब मेहनतकश दलित होते हैं और यही कारण है कि मज़दूर आबादी में भी सबसे ज़्यादा शोषित और दमित दलित जातियों के मज़दूर होते हैं। आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न के सम्मिश्रित रूपों को बनाये रखने का कार्य शासक वर्ग और उसकी राजनीतिक सत्ता करते हैं। यही कारण है कि इस आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न को ख़त्म करने का संघर्ष वास्तव में पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक सत्ता के ध्वंस और मेहनतकशों की सत्ता की स्थापना का ही एक अंग है।

साम्राज्यी युद्धों की भेंट चढ़ता बचपन

इन मुल्कों में युद्ध के लिए साम्राज्यवादी मुल्क ही ज़िम्मेवार हैं जो प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करके मुनाफा कमाने की दौड़ में बेकसूर और मासूम बच्चों को मारने से भी नहीं झिझकते। युद्ध के उजाड़े गए इन लोगों को धरती के किसी टुकड़े पर शरण भी नहीं मिल रही और यूरोप भर की सरकारें इनको अपने-अपने मुल्कों में भी शरण देने को तैयार नहीं है।

अमेरिका : बच्चों में बढ़ती ग़रीबी-दर

अमेरिका के 4 करोड़ 65 लाख बच्चे भोजन की अपनी ज़रूरतों के लिए अमेरिकी सरकार द्वारा चलाए जाने वाले अनाज सहायता योजना, स्नैप (सप्लीमेंट न्यूट्रिशन असिस्टेंस प्रोग्राम) पर निर्भर हैं। इस योजना का ख़र्च सरकार उठाती है, मगर आर्थिंक संकट के चलते अब अमेरिकी सरकार इन फंडों में लगातार कटौती करती जा रही है। 2016 में ही सरकार द्वारा इस राशि में की गयी कटौती से 10 लाख लोग प्रभावित हुए हैं।