Category Archives: समाज

विकास के शोर के बीच भूख से दम तोड़ता मेहनतकश

भारत में कुल पैदावार का चालीस प्रतिशत गेहूँ हर साल बर्बाद हो जाता है। लेकिन गाय की पूजा से देशभक्ति को जोड़ने वाली सरकार को देश के भूखे मरते लोगों की चिन्ता क्यों होने लगी? बहरहाल सरकार का कहना है कि यह अनाज ख़राब भण्डारण और परिवहन की वजह से ख़राब होता है। लेकिन सवाल ये है कि भण्डारण और परिवहन की ज़ि‍म्मेवारी किसकी है? इस सम्बन्ध में 2001 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी जिसमें कहा गया था कि देश की बड़ी आबादी भूखों मरती है और अनाज गोदामों में सड़ता है।

अभी भी पंजाब में लड़कियों के साथ भेद-भाव बड़े स्तर पर जारी

पिछले दशकों में हुए पूँजीवादी विकास के साथ पंजाब में औरतों को घर से बाहर निकल कर पढ़ने, काम-काज करने के मौके मिले हैं पर इसके बावजूद भी औरतों के साथ यहां बड़े स्तर पर भेद-भाव मौजूद है। लड़कियों को पढ़ाने और नौकरी करने देने का कारण अभी भी औरतों को सम्मान या बराबरी का दर्जा देना नहीं ब्लकि अभी भी इसका एक बड़ा कारण यही है कि विवाह के रुप में होते सौदों में उसकी पढ़ाई, रोज़गार के साथ उसका अच्छा सौदा हो सके।

सिर पर छत की ख़ातिर नैतिकता की नीलामी के लिए मजबूर लोग

इस सर्वेक्षण में 2,040 लोगों ने हिस्सा लिया और 28% लोगों ने माना कि वे आर्थिक तंगी के कारण मकान का किराया नहीं दे सकते, इस कारण उनको अपने साथी, दोस्त, मकान मालिक के साथ यौन संबंधों में रहना पङता है। एक और सर्वेक्षण के अनुसार बेघरों के लिए काम करने वाली संस्था होमलैस चैरिटी ने एक रिपोर्ट जारी की कि होमलैस सर्विस इस्तेमाल करने वाले लोगों की ओर से रिपोर्ट की गयी कि वह बेघरी के डर से असहमत यौन संबंध में रहते हैं। इस रिपोर्ट में ना सिर्फ औरतें बल्कि मर्द भी शामिल हैं।

राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक क्रान्ति को अलग-अलग करके देखना अवैज्ञानिक है

आर्थिक शोषण सामाजिक उत्पीड़न के ऐतिहासिक सन्दर्भ व पृष्ठभूमि को बनाता है और सामाजिक उत्पीड़न बदले में आर्थिक शोषण को आर्थिक अतिशोषण में तब्दील करता है। यही कारण है कि 10 में से 9 दलित-विरोधी अपराधों के निशाने पर ग़रीब मेहनतकश दलित होते हैं और यही कारण है कि मज़दूर आबादी में भी सबसे ज़्यादा शोषित और दमित दलित जातियों के मज़दूर होते हैं। आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न के सम्मिश्रित रूपों को बनाये रखने का कार्य शासक वर्ग और उसकी राजनीतिक सत्ता करते हैं। यही कारण है कि इस आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न को ख़त्म करने का संघर्ष वास्तव में पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक सत्ता के ध्वंस और मेहनतकशों की सत्ता की स्थापना का ही एक अंग है।

साम्राज्यी युद्धों की भेंट चढ़ता बचपन

इन मुल्कों में युद्ध के लिए साम्राज्यवादी मुल्क ही ज़िम्मेवार हैं जो प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करके मुनाफा कमाने की दौड़ में बेकसूर और मासूम बच्चों को मारने से भी नहीं झिझकते। युद्ध के उजाड़े गए इन लोगों को धरती के किसी टुकड़े पर शरण भी नहीं मिल रही और यूरोप भर की सरकारें इनको अपने-अपने मुल्कों में भी शरण देने को तैयार नहीं है।

अमेरिका : बच्चों में बढ़ती ग़रीबी-दर

अमेरिका के 4 करोड़ 65 लाख बच्चे भोजन की अपनी ज़रूरतों के लिए अमेरिकी सरकार द्वारा चलाए जाने वाले अनाज सहायता योजना, स्नैप (सप्लीमेंट न्यूट्रिशन असिस्टेंस प्रोग्राम) पर निर्भर हैं। इस योजना का ख़र्च सरकार उठाती है, मगर आर्थिंक संकट के चलते अब अमेरिकी सरकार इन फंडों में लगातार कटौती करती जा रही है। 2016 में ही सरकार द्वारा इस राशि में की गयी कटौती से 10 लाख लोग प्रभावित हुए हैं।

मुम्बई में लगातार ग़रीबों के बच्चों की गुमशुदगी के ख़ि‍लाफ़ मुहिम

वेश्यावृत्ति, अंगों के व्यापार, भीख मँगवाने आदि के लिए देशभर में बच्चे ग़ायब करने वाले गिरोह सक्रिय रहते हैं। पूरे देश में ग़ायब होने वाले बच्चों की संख्या के हिसाब से महाराष्ट्र टॉप पर है। मुम्बई में भी दक्षिण के पॉश वार्डों की अपेक्षा ईस्ट वार्ड से सबसे ज़्यादा बच्चे ग़ायब होते हैं। अमीरों का कुत्ता ग़ायब होने पर भी सक्रिय हो जाने वाली पुलिस ग़रीबों के बच्चों के ग़ायब होने पर भी अक्सर या तो रिपोर्ट ही नहीं लिखती है या फिर रिपोर्ट के बावजूद कार्रवाई नहीं करती है। ग़ायब बच्चों के मां-बाप को एक ओर अपने बच्चों के ग़ायब होने का दुख होता है तो दूसरी ओर पुलिस का संवेदनहीन रवैया उनके घावों पर मिर्च छिड़कने का काम करता है।

किसानों-खेत मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याएँ और कर्ज़ की समस्या : जिम्‍मेदार कौन है? रास्‍ता क्‍या है?

पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार भी पूँजीपतियों की सेवा के लिए होती है। दूसरे उद्योग के मुक़ाबले कृषि हमेशा पिछड़ जाती है। इसलिए सरकार की ओर औद्योगिक व्यवस्था (सड़कें, फ्लाइओवर आदि) में निवेश करने और औद्योगिक पूँजी को टैक्स छूट, कर्ज़े माफ़ करने जैसी सहायता देने के लिए तो बहुत सारा धन लुटाया जाता है पर कृषि के मामले में यह निवेश नाममात्र ही होता है। इसके अलावा कृषि के लिए भिन्न-भिन्न पार्टियाँ और सरकारें जो करती हैं वह भी धनी किसानों, धन्नासेठों आदि के लिए होता है, ग़रीब किसानों और मज़दूरों के हिस्‍से में कुछ भी नहीं आता। सरकारों के ध्यान ना देने के कारण ग़रीब किसान और खेत मज़दूर हाशिए पर धकेल दिये जाते हैं।

आरक्षण आन्दोलन, रोज़गार की लड़ाई और वर्ग चेतना का सवाल

देश की तरह ही हरियाणा प्रदेश की जनता को भी यह बात समझनी होगी की हर जाति में मुट्ठीभर ऐसी आबादी है जो किसी भी तरह की प्रत्यक्ष उत्पादन की कार्रवाई में भागीदारी नहीं करती केवल पैदावार का बड़ा हिस्सा हड़प लेती है, और बहुसंख्या में ऐसी आबादी है जो अपनी खून-पसीने की मेहनत के बूते देश की हर सम्पदा का सृजन करती है। शोषक जमात के हित मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के साथ जुड़े होते हैं क्योंकि तमाम संसाधनों पर इनका नियंत्रण होता है जबकि मेहनतकश आवाम को इस व्यवस्था में अपनी हड्डियाँ गलाने के बावजूद केवल बेरोज़गारी, ग़रीबी, मुफ़लिसी और कुपोषण ही नसीब होते हैं। 35 बिरादरी बनाम एक बिरादरी के झगड़े में हमें नहीं पड़ना है क्योंकि असल में किसी भी समाज में दो ही बिरादरी होती हैं एक वो जो खुद मेहनत करती है और अपनी श्रम शक्ति को पूँजी के मालिकों के हाथों बेचने पर मजबूर होती है और दूसरी वह जो दूसरों की मेहनत पर जोंक की तरह पलती है। ग़रीब और मेहनतकश आबादी को वर्गीय आधार पर अपनी एकजुटता क़ायम करनी पड़ेगी। तभी एक ऐसे समाज की लड़ाई सफल हो सकेगी जिसमें हर हाथ को काम और हर व्‍यक्ति को सम्‍मान के साथ जीने का अधिकार मिलेगा।

महाराष्ट्र में 2 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार

गरीबी घटाकर दिखाने के इस हेरफ़ेर के बावजूद सरकार के ही आकड़ों के हिसाब से महाराष्ट्र में कुल आबादी का 30 फ़ीसद हिस्सा ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहा है। नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे और नेशनल सैम्पल सर्वे के अनुसार राज्य के 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और एक तिहाई वयस्क भी सामान्य से कम वज़न के हैं। इसी सर्वे के अनुसार महाराष्ट्र में हर साल कुपोषण से करीब 45,000 बच्चे मर जाते हैं यानी हर रोज 124 बच्चे। इतनी भयानक तस्वीर के बावजूद सत्ता में आने वाली हर सरकारें एक तो इनपर पर्दा डालने की कोशि‍श करती हैं इसके अतिरिक्त कुछ छोटी-मोटी स्कीमें चलाकर अपना पल्ला झाड़ लेती रही हैं।