Category Archives: समाज

जाति उन्‍मूलन का रास्‍ता दिखाते कुछ लेख, वीडियो

जाति का सवाल भारतीय समाज के सबसे ज्‍वलंत सवालों में से एक है। जनता को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने का ये एक ऐसा तरीका है जो यहां आने वाले हर शासक को भाया है। चाहे वो मुगल हों या अन्‍य मध्‍यकालीन शासक या फिर अंग्रेज, सबने जाति का इस्‍तेमाल यहां की जनता को बांटकर रखने के लिए किया। भारत के वर्तमान शासक भी अपवाद नहीं है। इसलिए भारत में मजदूर वर्ग को एकजुट करने के लिए व क्रांतिकारी परिवर्तन की किसी भी परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए जाति उन्‍मूलन के कार्यभार को ठीक से समझना होगा व उसके आधार पर एक देशव्‍यापी जाति विरोधी आन्‍दोलन खड़ा करना होगा।

नपुंसक न्याय-व्यवस्था से इंसाफ़ माँगते-माँगते खैरलांजी के भैयालाल भोतमांगे का संघर्ष थम गया

संवेदनशुन्य हो चुकी जुल्मी न्याय व्यवस्था तक भोतमांगे की आवाज़ व वेदना जीवन के आख़ि‍र तक भी नहीं पहुँच पायी। इस हत्याकाण्ड में गाँव के बहुत सारे लोगों का हाथ होने के बावजुद सिर्फ़ 11 लोगों पर मुक़दमा चलाया गया। भण्डारा न्यायालय ने इनमें से तीन आरोपियों को मुक्त कर दिया, दो को उम्रकैद व छह को फाँसी की सज़ा सुनायी। बाद में उच्च न्यायालय ने फाँसी की सज़ा को भी उम्रकैद में बदल दिया।

‘भारत में जाति व्यवस्था : उद्भव, विकास और उन्मूलन का सवाल’ विषय पर परिचर्चा

जाति व्यवस्था पर चोट आज इसी रूप में की जा सकती है कि तमाम जातियों की मेहनतकश आबादी वर्ग आधारित एकजुटता स्थापित करे। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था, जो जातिवाद का समाज की मेहनतकश जनता को बाँटने के लिए इस्तेमाल करती है, के क्रान्ति के द्वारा ख़ात्मे का सवाल बेशक एजेण्डे पर होना चाहिए किन्तु यह भी उतना ही सच है कि व्यापक जाति विरोधी आन्दोलनों को खड़ा किये बग़ैर मेहनतकश आबादी को एकजुट नहीं किया जा सकता।

मध्य प्रदेश – नवजात बच्चों का नर्क

रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इण्डिया की एसआरएस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में सबसे ज़्यादा बच्चों की मौत भाजपा शासित मध्य प्रदेश में होती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ मध्य प्रदेश में पैदा होने वाले 1000 बच्चों में से 52 जन्म की पहली वर्षगाँठ भी नहीं मना पाते। इस तरह मध्य प्रदेश की बाल मृत्यु दर 52 है जो सर्वेक्षण किये गये राज्यों में से सबसे ज़्यादा है।

मनुस्मृति दहन (25 दिसम्बर, 1927) की 89वीं वर्षगाँठ पर

आज से 89 वर्ष पहले महाड़ में मेहनतकश दलितों ने एक बग़ावत शुरू की थी। इसकी शुरुआत 19-20 मार्च 1927 को बहिष्कृत सम्मेलन से हुई थी। लेकिन वास्तव में इस सम्मेलन का विचार आर बी मोरे ने मई 1924 में पेश किया, जिन्हें बाद में कॉमरेड आर बी मोरे के नाम से जाना गया। इस सम्मेलन में डाॅ. अम्बेडकर को उनकी अकादमिक उप‍लब्धियों के लिए सम्मानित करने की योजना बनायी गयी थी।

सावित्रीबाई फुले की वि‍रासत को आगे बढ़ाओ। नई शिक्षाबन्दी के विरोध में नि:शुल्क शिक्षा के लिए एकजुट हों!

भारत में सावि‍त्रीबाई फुले सम्भवत: पहली महि‍ला थीं, जि‍न्होंने जाति‍ प्रथा के साथ ही स्त्रि‍यों की गुलामी के ि‍ख़लाफ़ आवाज़ उठायी। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। 1848 में अपने पति‍ ज्योति‍बा फुले के साथ मि‍लकर ब्राह्मणवादी ताक़तों से वैर मोल लेकर पुणे के भिडे वाडा में लड़कियों के लिए स्कूल खोला था। इस घटना का एक क्रान्तिकारी महत्व है। पीढ़ी दर पीढ़ी दलितों पर अनेक प्रतिबन्धों के साथ ही “शिक्षाबन्दी” के प्रतिबन्ध ने भी दलितों व स्त्रियों का बहुत नुक़सान किया था। ज्योतिबा व सावित्रीबाई ने इसी कारण वंचितों की शिक्षा के लिए गम्भीर प्रयास शुरू किये।

“अच्छे दिन” के कानफाड़ू शोर के बीच 2% बढ़ गयी किसानों और मज़दूरों की आत्महत्या दर!

हम इस लेख में इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि मुख्यत: कौन सा किसान आत्महत्या कर रहा है – धनी किसान या छोटे ग़रीब किसान और क्यूँ?! राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार साल 2015 में कृषि सेक्टर से जुड़ी 12602 आत्महत्याओं में 8007 किसान थे और 4595 कृषि मज़दूर। साल 2014 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5650 और कृषि मज़दूरों की 6710 थी यानी कुल मिलाकर 12360 आत्महत्याएँ। इन आँकड़ों के अनुसार किसानों की आत्महत्या के मामले में एक साल में जहाँ 42 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई वहीं कृषि मज़दूरों की आत्महत्या की दर में 31.5 फ़ीसदी की कमी आयी है व आत्महत्या करने वाले कुल किसान व कृषि मज़दूरों की संख्या 2014 के मुक़ाबलेे 2 फ़ीसदी बढ़ गयी है।

शासक वर्गों द्वारा मेहनतकशों की जातिगत गोलबन्दी का विरोध करो! अपने असली दुश्मन को पहचानो!

महाराष्ट्र में आज जो मराठा उभार हो रहा है, उसके मूल कारण तो मराठा ग़रीब आबादी में बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी और असुरक्षा है; लेकिन मराठा शासक वर्गों ने इसे दलित-विरोधी रुख़ देने का प्रयास किया है। इस साज़िश को समझने की ज़रूरत है। इस साज़िश का जवाब अस्मितावादी राजनीति और जातिगत गोलबन्दी नहीं है। इसका जवाब वर्ग संघर्ष और वर्गीय गोलबन्दी है। इस साज़िश को बेनक़ाब करना होगा और सभी जातियों के बेरोज़गार, ग़रीब और मेहनतकश तबक़ों को गोलबन्द और संगठित करना होगा।

16 दिसम्बर की बर्बर घटना के पाँच साल बाद बलात्कार पीड़िताओं को इंसाफ के झूठे वादे

जल्द इंसाफ मिलने की सम्भावनाएँ यहाँ बहुत कम हैं। सारी सरकारी व्यवस्था स्त्री विरोधी सोच से ग्रस्त है। जब कोई स्त्री हिम्मत करके पुलिस के पास शिकायत लेकर जाती है तो सबसे पहले उसे ही गुनाहगार ठहराने की कोशिश की जाती है। पुलिस की पूरी कोशिश रहती है कि मामला दर्ज न हो। कोशिश की जाती है कि घूस लेकर मामला रफा-दफा कर दिया जाये। अगर रपट दर्ज भी होती है तो देरी कार कारण मेडीकल करवाने पर बलात्कार साबित करना मुश्किल हो जाता है।

भाजपा के सत्ता में आने के बाद से अल्पसंख्यकों व दलितों के ख़ि‍लाफ़़ अपराधों की रफ़्तार हुई तेज़

भाजपा के आने से फासीवादी तत्वों और दलित के ख़िलाफ़़ अपराधियों को छूट मिली हुई है। आरएसएस की विचारधारा में दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के विरुद्ध नफ़रत फैलाना शामिल है। मोदी जो कि 2002 में ख़ुद फासीवादी हिंसा में मुसलमानों के क़त्लेआम में शामिल रहा था, से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? इसलिए, आज ज़रूरत है कि जितने भी उत्पीड़ित वर्ग चाहे वे अल्पसंख्यक,दलित या स्त्रियाँ हों उन्हें समूची जनता के अंग के तौर पर अपनी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए, भारत की समूची मेहनतकश जनता की पूँजीपतियों के ख़िलाफ़़ वर्गीय लड़ाई को मज़बूत बनाते हुए अपने उत्पीड़न का डटकर विरोध करना पड़ेगा।